पुआल के इस्तेमाल से मिलेगी धुंध से निजात

पंजाब, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, हिमाचल प्रदेश और हरियाणा के अलावा पाकिस्तान के पश्चिमी पंजाब के कुछ इलाकों की पुआल आधारित खेती प्रणाली का दिल्ली के प्रदुषण  से नजदीकी नाता है|

समय के साथ विकराल होती पुआल की समस्या :

  • पहले की तुलना में अब कहीं ज्यादा पुआल पैदा हो रहा है।
  • इस पुआल को समेट पाना पहले की तुलना में अधिक मुश्किल हो गया है।
  • यह पुआल अब कहीं कम उपयोगी रह गया है और किसानों के पास उसे खेतों से हटाने के लिए समय भी कम मिल पाता है। ऐसी स्थिति में किसान इस पुआल को अपने खेत में ही आग लगाकर नष्ट कर दे रहे हैं।
  • परंपरागत तौर पर पुआल का इस्तेमाल मवेशियों के चारे और उनका बिछावन बनाने के अलावा फूस का छप्पर बनाने में होता रहा है। लेकिन कम पौष्टिकता होने से पशु चारे के रूप में पुआल और भूसे का इस्तेमाल अब कम हो गया है।
  • ह फूस का छप्पर और मिटटी की दीवालों पर गोबर के साथ पुताई करने का दौर भी चला गया है। कृषि के आधुनिक तरीकों में पशुपालन भी काफी कम हो गया है। इसके साथ ही जल्दी-जल्दी फसल उगाने की चाहत भी किसानों को इतना समय नहीं देती है कि वे पुआल को लंबे समय तक खेतों में छोड़ सकें ताकि बाद में जुताई कर उसे मिट्टी  में ही मिला दिया जाए। संक्षेप में कहें तो पंजाब को पुआल की अब कोई जरूरत ही नहीं रह गई है। 
  •  पुआल की जरूरत बिजली उत्पादन, कागज निर्माण और फाइबर बोर्ड बनाने के अलावा पशु चारे के लिए बनी हुई है। वैसे अब इनके बेहतर विकल्प मौजूद होने से पुआल की उतनी मात्रा की जरूरत नहीं रह गई है। 

नुकसान :

 इससे खेतों की मिट्टी  को काफी नुकसान पहुंचता है, खेती के लिहाज से लाभदायक कीटाणु और अन्य जीव जलकर नष्ट हो जाते हैं, और गांवों तथा सुदूर शहरों में रहने वाले लोगों की सेहत और पर्यावरण को भी खासा नुकसान पहुंच रहा है।

क्यों पुआल जलाना को रोकना कठीन  काम :

 पुआल जलाने पर रोक लगा पाना वेश्यावृत्ति के खात्मे से कहीं अधिक मुश्किल काम है। इन लोगों को यह अंदाजा ही नहीं है कि तकनीकी-आर्थिक हालात के चलते किसानों के पास पुआल जलाने के अलावा कोई चारा ही नहीं है। 

धान और पुआल :

  • 1960 के दशक के मध्य से ही खरीफ सत्र में धान की फसल के रकबे में लगातार बढ़ोतरी देखी जा रही है। उस समय के 3 लाख हेक्टेयर भूभाग के मुकाबले आज करीब 30 लाख हेक्टेयर इलाके में धान की खेती होने लगी है। इस दौरान चावल उत्पादन भी एक टन प्रति हेक्टेयर से बढ़कर 6 टन प्रति हेक्टेयर पर पहुंच गया है। अधिक उत्पादन क्षमता वाले बीजों की उपलब्धता के साथ ही समर्थन मूल्य बढऩे और खरीदी प्रक्रिया में सुधार आने, सस्ती या मुफ्त बिजली आपूर्ति होने से किसान खेती के लिहाज से बहुत अनुकूल हालात नहीं रखने वाली फसल को भी बड़े पैमाने पर उगाने के लिए प्रेरित हुए हैं। कुछ समय के लाभ के लिए किसान अपने खेतों, आसपास की हवा और सतही जल का अनजाने में ही बड़ा नुकसान कर देते हैं।

क्या क्या उपाय संभव :

  • चावल की कम खरीददारी: दिल्ली के आसमान में छाई धुंध को कम करने का एक तरीका तो यह है कि समय-समय पर केंद्र और राज्य सरकारों के स्तर पर जो गलतियां हुई हैं, उन्हें दूर किया जाए। सरकारें अगर चावल की कम खरीद करती हैं और कीमतों में भी कमी लाई जाती है तो किसान स्वाभाविक तौर पर अन्य फसलों की खेती का रुख करेंगे जिससे धान की खेती में अपने-आप कमी आ जाएगी। पहले से ही धान की खेती agroecologically / agroclimatologically उपयुक्त नहीं है और यह कदम सही कदम होगा किसानो को धान से दूसरी खेती करने के लिए
  • धान की खेती कम इलाके में होने से पंजाब में भूमिगत जल का दोहन भी कम होगा और पुआल जलाने में कमी आने से खेतों की गुणवत्ता भी बेहतर होगी। इससे आगे चलकर दिल्ली के आसमान में छाने वाली धुंध से भी छुटकारा पाया जा सकेगा। 
  • पुआल संकलन पर ध्यान : समय के साथ बदलती तकनीक ने कृषि के तरीकों को भी बदला है। आज के दौर में धान की पकी फसल की कटाई के लिए जिन मशीनों का इस्तेमाल किया जाता है वे बालियों को एक तरफ रखती जाती हैं जबकि पुआल को पूरे खेत में बिखेरती चलती हैं। इस स्थिति में अगर पुआल इकट्ठा करना है तो उसे पूरे खेत से जुटाना होगा जो कि काफी श्रमसाध्य और खर्चीला काम होगा। वैसे पुआल का गवार  बनाने की मशीनें भी आ गई हैं लेकिन इनकी कीमत और परिचालन लागत काफी ऊंची है। पुआल के गवार  के काफी फैले हुए होने से इन्हें कहीं ले जाना भी काफी मुश्किल होता है। इस तरह किसानों के पास अब न केवल पहले से कहीं ज्यादा पुआल है बल्कि उसे इकट्ठा कर पाना महंगा भी है।
  • धान की खूंटी की समस्या : धान की खूंटी की को खेतों से निकाल पाना पुआल की तरह आसान नहीं है। जमीन में थोड़ा धंसकर जुताई करने वाली मशीन की लागत करीब डेढ़ लाख रुपये होने से किसान इस खूंटी को खेत में ही छोड़ देने के लिए मजबूर हो जाता है। लेकिन रबी सीजन की फसल (आमतौर पर गेहूं) बोते समय यह खूंटी बड़ी रुकावट पैदा करता है। इससे बीज, खाद, पानी और जुताई की लागत भी बढ़ जाती है। वैसे गहरी जुताई करने वाली मशीनें अब किराये पर मिलने लगी हैं लेकिन इसका प्रसार होने में थोड़ा वक्त लगेगा।
  • पुआल को बॉयोमास बिजली उत्पादकों, फाइबर बोर्ड निर्माताओं, पेपर मिल और पशुचारे के लिए स्वाभाविक पसंद बनाने से तत्काल फायदा मिल सकता है। अगर इन उद्योगों में पुआल की बड़ी मांग पैदा की जा सके तो किसान इसे जलाने के बजाय गïर बनाकर रखने के लिए प्रेरित होंगे। हालांकि इन इकाइयों को केवल प्रोत्साहन या सब्सिडी देने से बात नहीं बनेगी।
  • इस क्षेत्र में समुचित तकनीक के विकास के लिए शोध को भी अहमियत देनी होगी। लेकिन सीमित अवधि में तो पुआल का इस्तेमाल करने वाले उद्योगों को प्रोत्साहन देना ही होगा।
  • कच्चे माल के तौर पर पुआल के उपयोग को बढ़ावा देने के लिए यह जरूरी होगा। पुआल का गïर बनाने और खेतों में गहरी जुताई करने वाली मशीनों का इस्तेमाल बढ़ाने, पशु चारे के लिए पुआल के साथ पौष्टिक तत्त्व मिलाने, बिजली संयंत्रों में पुआल जलाने से निकलने वाली राख को सीमित करने, फाइबर बोर्ड में सिलिका की मात्रा को कम करने और कागज बनाने के लिए बेहतर मशीनों से इस समस्या को काफी हद तक सुलझाया जा सकता है।
  • Reference: http://www.thehindu.com/opinion/op-ed/crop-burning-straws-in-the-wind/article9325140.ece 

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