# Editorial_Tribune
सरकार पिछले दो वर्षों से किसान की आय को दोगुणा करने के वादे कर रही है। परन्तु किसान की हालत में तनिक भी सुधार नहीं दिखता है। सरकार का फार्मूला है कि किसान को सड़क एवं पानी उपलब्ध कराया जाए जिससे उत्पादन में वृद्धि हो। साथ-साथ फसल बीमा तथा सस्ता ऋण उपलब्ध कराकर किसान की उत्पादन लागत को कम किया जाए जिससे उसकी आय में वृद्धि हो।
Not just input but output prices also matter
किसान की आय उत्पादन की मात्रा अथवा लागत से तय नहीं होती है। किसान की आय तय होती है उत्पादन लागत एवं बाजार के दाम के अन्तर से। जैसे 15 रुपये किलो की लागत से गेहूं का उत्पादन किया जाए और 17 रुपये किलो में बेचा जाए तो किसान को लाभ 2 रुपये प्रति किलो का लाभ होता है। मान लीजिए सरकार ने सड़क, सिंचाई, बीमा तथा ऋण की सुविधाएं किसान को उपलब्ध करा दीं। किसान ने उत्पादन अधिक मात्रा में किया। उसकी लागत 15 रुपये से घटकर 13 रुपये प्रति किलो हो गई। परन्तु इस सुधार से किसान की आय में वृद्धि होना जरूरी नहीं है। इन सुधारों के साथ-साथ यदि बाजार में गेहूं के दाम 17 रुपये से घट कर 12 रुपये रह गए तो किसान को प्रति किलो एक रुपये का घाटा लगेगा। जितना उत्पादन बढ़ेगा उतना ही किसान का घाटा बढ़ेगा। कृषि उत्पादों के मूल्य की अनदेखी करने के कारण एनडीए सरकार के पिछले तीन वर्षों में किसान की हालत बिगड़ती गई है।
Export Import policy and farmers
- सरकार की आयात-निर्यात नीति भी किसान को कष्ट में डालती है। सरकार की प्राथमिकता देश में कृषि उत्पादों के दामों को नियंत्रण में रखना है। आज देश की लगभग 60 प्रतिशत आबादी शहर में रहती है। ये खाद्य पदार्थों को खरीद कर खाते हैं। गांव में रहने वाले खेत मज़दूर, बढ़ई, लोहार, चाय वाले इत्यादि भी खाद्य पदार्थ खरीद कर खाते हैं। देश की 80 प्रतिशत जनता इन्हें खरीद कर खाती है। इन वोटर को साधना सरकार की प्राथमिकता है। इसलिए सरकार चाहती है कि खाद्य पदार्थों के दाम न्यून बने रहें।
- जब देश में किसी कृषि उत्पाद की फसल कम होती है और घरेलू बाजार में दाम बढ़ते हैं तो सरकार आयात करती है और दाम को बढ़ने से रोकती है। वर्तमान में दाल के आयात से ऐसा किया जा रहा है।
- इसके विपरीत जब देश में उत्पादन ज्यादा होता है और दाम न्यून होते हैं तो निर्यातों पर प्रतिबंध लगाकर इन्हें नीचा बनाए रखा जाता है। किसान दोनों तरह से मरता है। किसान की आय दोगुणा करने के लिए जरूरी है कि दाम में वृद्धि होने दी जाए। सरकार की पॉलिसी इसके ठीक विपरीत है। दाम न्यून रखकर सरकार किसान की आय में कटौती करती है।
- सिंचाई, सड़क, बीमा और ऋण के माध्यम से किसान भ्रमित हो जाता है और समझता है कि सरकार उसके हित में काम कर रही है। जैसे किचन में रोटी बनाई जा रही हो तो घर वाले प्रसन्न होते हैं। वास्तविकता उन्हें तब पता लगती है जब कोरी रोटी परोसी जाती है और दाल नदारद रहती है।
मान लिया जाए कि सरकार ने कृषि उत्पादों के दाम बढ़ने दिए। समर्थन मूल्य बढ़ाया। तब दूसरी समस्या उत्पन्न हो जाती है। दाम ऊंचे होने से किसान उत्पादन बढ़ाता है। लेकिन उपभोक्ता की खपत तथा बाजार में मांग पूर्ववत् बनी रहती है। मजबूरन फूड कार्पोरेशन को अधिक मात्रा में माल को खरीद कर भंडारण करना पड़ता है। इस भंडार का निस्तारण नहीं हो पाता है, जैसे तीन साल पूर्व फूड कार्पोरेशन के गोदामों में गेहूं सड़ने लगा था। तब सुप्रीम कोर्ट ने सरकार से पूछा था कि गेहूं को सड़ने देने के स्थान पर लोगों को क्यों न बांट दिया जाए। परन्तु बांटना भी समस्या का हल नहीं है। लोग तीन-चार रोटी ही खाएंगे। बांटने से गेहूं की खपत में विशेष वृद्धि नहीं होगी। इसलिए दाम बढ़ने से बने विशाल भंडार का निस्तारण घरेलू अर्थव्यवस्था में नही हो सकता है।
विश्व बाजार में भी इसका निस्तारण नहीं किया जा सकता है। मान लीजिए सरकार ने गेहूं के दाम 17 रुपए किलो के ऊंचे स्तर पर निर्धारित कर दिए। लेकिन विश्व बाजार में आस्ट्रेलियाई गेहूं 12 रुपए में उपलब्ध हो तो भारतीय गेहूं को 17 रुपए में कोई क्योंकर खरीदेगा? निर्यात सब्सिडी देकर भी इसका निर्यात नहीं किया जा सकता है। डब्ल्यूटीओ का प्रतिबंध है कि निर्यातों पर सब्सिडी नहीं दी जाएगी। अतः सच यह है कि समस्या का कोई हल उपलब्ध है ही नहीं। किसान की आय बढ़ाने के लिए दाम में वृद्धि जरूरी है। दाम बढ़ने से उत्पादन बढ़ता है। बढ़े उत्पादन का भंडारण करना पड़ता है। इस भंडार का निस्तारण वैश्विक बाजार में नहीं हो सकता है।
इस समस्या के फिर भी दो समाधान हैं।
- पहला समाधान है कि निर्यात सब्सिडी के स्थान पर किसान को ‘भूमि सब्सिडी’ दी जाए। जैसे छोटे किसान को 5,000 रुपये प्रति एकड़ प्रति वर्ष और बड़े किसान को 1,000 रुपये प्रति एकड़ की सब्सिडी दी जाए। यह न देखा जाए कि उसने किस माल का उत्पादन किया और उसे कहां बेचा। साथ-साथ दाम को बाजार के हवाले छोड़ दिया जाए। तब गेहूं का दाम 12 रुपए प्रति किलो हो जाए तो भी किसान मरेगा नहीं। सब्सिडी के भरोसे वह जीवित रहेगा। बल्कि दाम गिरने से वह उत्पादन कम करेगा और भंडारण करने की समस्या उत्पन्न नहीं होगी। किसान को निश्चित आय मिल जाएगी और शहरी उपभोक्ता को सस्ता माल मिल जाएगा। निर्यात करके हम विश्व बाजार में भी अपनी पैठ भी बना सकेंगे। वर्तमान में दी जा रही फर्टिलाइजर एवं फूड सब्सिडी का उपयोग किसान को निश्चित आय देने के लिए किया जा सकता है। फर्टिलाइजर एवं फूड सब्सिडी के लेन-देन में व्याप्त भारी भ्रष्टाचार से भी देश को मुक्ति मिल जाएगी। इन सब्सिडी देने पर डब्ल्यूटीओ का प्रतिबंध नहीं है।
- दूसरा समाधान है कि ऊंचे मूल्य के कृषि उत्पादन की तरफ किसान को बढ़ाया जाए। आज दुनिया के विभिन्न देशों द्वारा विशेष कृषि उत्पादों को ऊंचे दाम में बेचा जा रहा है। जैसे फ्रांस में अंगूर की खेती करके उससे वाइन बनाकर निर्यात किया जाता है। इटली द्वारा जैतून, नीदरलैंड द्वारा ट्यूलिप के फूल, श्रीलंका द्वारा चाय, वियतनाम द्वारा काली मिर्च, ब्राजील द्वारा कॉफी इत्यादि के ऊंचे दाम वसूल किए जा रहे हैं। भारत की भौगोलिक स्थिति में अप्रत्याशित विविधता है। कश्मीर से अंडमान के बीच हर प्रकार का वातावरण उपलब्ध है। सरकार को चाहिए कि उत्तम श्रेणी के विशेष उत्पादों पर रिसर्च कराए, किसानों को ट्रेनिंग दे और इनके निर्यात को एक सार्वजनिक इकाई बनाए। इन कदमों को उठाने से किसान की स्थिति में सुधार होगा। सिंचाई, सड़क, बीमा और ऋण की वर्तमान पॉलिसी निष्फल होगी जैसे बिना दाल के रोटी निष्फल होती है।