- पेरिस में दिसंबर के मध्य में जलवायु समझौते के कुछ प्रमुख तत्त्व इस प्रकार हैं:
1. पहली बात, वैश्विक तापवृद्घि को 2 डिग्री सेल्सियस से कम रखना और वह भी इस उम्मीद के साथ कि वैश्विक तापमान को 1.5 डिग्री सेल्सियस से कम रखा जा सके।
2.दूसरा, अधिकांश देशों ने उत्सर्जन में कमी की स्वैच्छिक घोषणा की है (दुनिया के 185 देशों में से 158 ने ऐसी घोषणाएं की हैं, इस क्रम में वैश्विक स्तर पर 90 प्र्रतिशत उत्सर्जन का उल्लेख है)।
3.ये घोषणाएं पहला चरण हैं क्योंकि अधिकांश देशों को वर्ष 2020 में नई घोषणा करनी होगी और हर पांच वर्ष पर उनको उत्सर्जन कटौती का लक्ष्य बढ़ाना होगा।
4, विकसित देश गरीब देशों को वर्ष 2025 तक सालाना 100 अरब डॉलर की राशि देंगे और उसके बाद यह राशि बढ़ाई जाएगी।
** उपरोक्त बातों के साथ समस्या यह है कि उठाए गए कदमों से वांछित नतीजे नहीं निकलेंगे। वैश्विक तापवृद्घि में औसत 2 डिग्री सेल्सियस की कमी भी नहीं आ सकती है, 1.5 डिग्री सेल्सियस के लक्ष्य को तो भूल ही जाइए।
- पेरिस समझौते से पहले हम वैश्विक तापमान में औसत वृद्घि के 3.6 डिग्री सेल्सियस के लक्ष्य को हासिल करने की स्थिति में थे। पेरिस में किए गए तमाम वादों के बाद हमें कुछ सुधार देखने को मिलेगा लेकिन इसके बावजूद वर्ष 2030 तक उत्सर्जन में बढ़ोतरी देखने को मिलती रहेगी। इस अवधि में हम शायद वैश्विक तापवृद्घि के औसत को 2.7 डिग्री सेल्सियस तक ही सीमित कर सकेंगे। यह सुधार तो है लेकिन लक्ष्य के करीब कतई नहीं।
** बर्नस्टेन रिसर्च के मुताबिक तापवृद्घि को 2 डिग्री सेल्सियस तक सीमित रखने के लिए अब तक किए गए कटौती के वादे में 25 फीसदी का और इजाफा करना होगा। जबकि उसे 1.5 डिग्री सेल्सियस तक लाने के लिए 2030 तक यह कटौती 40 फीसदी तक लानी होगी।
- इतना ही नहीं इस कार्य की भयावहता में इजाफा करने के क्रम में अतिरिक्त उत्सर्जन कटौती को कोयले से मिश्रित ईंधन के चरणबद्घ बदलाव में करने तथा परिवहन के साधनों के ईंधन के रूप में तेल के प्रयोग को बंद करने की बात कही गई है। इस लक्ष्य को 2030 तक हासिल करना दुष्कर है।
------------ >>लब्बोलुआब यह कि 1.5 फीसदी का लक्ष्य अव्यावहारिक है। उल्लिखित से अधिक कटौती की संभावना दूरदूर तक नजर नहीं आती। यहां सवाल आता है उस कार्बन का जिसके बारे में कहा जाता है कि कुछ मात्रा में जीवाश्म ईंधन कभी नहीं जलाया जा सकेगा और वह यूंही पड़ा रहेगा।
- कुल कार्बन बजट की चुनौती के हिसाब से देखा जाए तो 2 डिग्री सेल्सियस के लक्ष्य तक पहुंचने के लिये हमारे पास केवल 1100 गीगा टन कार्बन डाइऑक्साइड शेष है जिसका हम उत्सर्जन कर सकते हैं। अगर मान लिया जाए कि आज हम उत्सर्जन के उच्चतम स्तर पर हैं तो हमारे पास शून्य उत्सर्जन के लिए केवल 22 साल और हैं।
दूसरी तरह से देखें तो हमारा मौजूदा जीवाश्म ईंधन भंडार 812 अरब टन है। इस पूरे भंडार को जला भी दिया जाए तो 2512 गीगा टन कार्बन उत्सर्जन होगा। जबकि दुनिया को 2 डिग्री सेल्सियस के दायरे में रहना है तो वह 1100 गीगाटन से अधिक उत्सर्जन बर्दाश्त नहीं कर सकती। यानी कुल जीवाश्म ईंधन का 40 फीसदी से ज्यादा हिस्सा कभी जलाया ही नहीं जा सकेगा।
जीवाश्म ईंधन आधारित कार्बन बजट की बात करें तो दुनिया के कुल कोयला भंडार का बमुश्किल 25-30 फीसदी ही प्रयोग हो सकेगा। तेल भंडारों का 50 फीसदी से अधिक हिस्सा प्रयोग में लाया जा सकेगा और गैस भंडारों का 60 फीसदी से अधिक हिस्सा। बड़ी तेल कंपनियों की बात करें तो उनकी अल्प भंडारण अवधि और खनन की गति को देखते हुए कहा जा सकता है कि उन पर असर नहीं पड़ेगा।
- यही बात ईरान और इराक जैसे देशों के बारे में नहीं कही जा सकती है क्योंकि उनकी खनन की गति काफी धीमी है। यानी लंबित तेल एवं गैस क्षमता का बोझ ओपेक देशों को सहन करना पड़ेगा।
=>भारत के लिए निहितार्थ?
- सबसे पहले हमें जितनी जल्दी संभव हो कोयला उत्पादन बढ़ाना होगा। वरना बड़ी मात्रा में हमारा कोयला बिना जले रह जाएगा। संभावना है कि कोयले के लिए 20-25 साल की अतिरिक्त अवधि मिल जाए लेकिन उसके बाद इसका प्रयोग असंभव होगा।
- दूसरी बात, इस बात की भी संभावना है कि हमें एक ऐसी होड़ देखने को मिले जिसमें ओपेक के सदस्य देश अधिकाधिक तेल उत्पादित करें।
- कार्बन उत्सर्जन की यह होड़ तेल कीमतों को क्षति पहुंचाएगी। हमें अभी ही इसकी एक झलक देखने को मिल रही है जहां ओपेक उत्पादन लगातार बढ़ रहा है जबकि तेल कीमतें कम बनी हुई हैं।
- तीसरी बात, अल्पावधि में उत्सर्जन की दर कम करने के क्रम में प्राकृतिक गैस ही इकलौता विकल्प रह जाएगी। नवीकरणीय ऊर्जा के जरिये इलेक्ट्रिक वाहनों और ऊर्जा भंडारण व्यवस्था को व्यवहार्य बनाए जाने तक उसका ही भरोसा रह जाएगा।
- हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि लंबी अवधि के लिए गैस लिंकेज हासिल किया जा सके। यह भविष्य में तेल की तुलना में अधिक अहम है। यदि आज लंबी अवधि के समझौते कर लिए जाएं तो यह समझदारी होगी क्योंकि फिलहाल कीमत कम है।
**कोयले तथा अन्य कार्बन आधारित ईंधन से अचानक दूरी बनानी की कठिन प्रक्रिया की शुरुआत हो चुकी है। इससे प्राकृतिक गैस जैसे कम कार्बन वाले ईंधनों तथा नवीकरणीय विकल्पों मसलन बैटरी और बिजली चालित वाहनों को लाभ पहुंचेगा।
* फिलहाल 60 फीसदी उत्सर्जन बिजली के जेनरेटरों और परिवहन से होता है। बिजली चालित वाहन और सौर ऊर्जा के चलन के बढऩे के बाद ये दोनों बाधित होंगे।
** भारत को चाहिए कि वह इन नए क्षेत्रों में तकनीकी क्षमताएं हासिल करे। चीन पहले ही सौर ऊर्जा क्षेत्र में दबदबा बना चुका है जबकि दक्षिण कोरिया बैटरी तकनीक और ऊर्जा भंडारण में आगे है।
** भारत को अपने हिस्से के ईंधन की खपत करके तेजी से इन नई तकनीक को अपनाना चाहिए ताकि वह इन क्षेत्रों में व्यवहार्य पर्यावास निर्मित कर सके। हमें इन दोनों क्षेत्रों में स्थानीय कारोबारियों को बढ़ावा देना चाहिए।