वित्त वर्ष में बदलाव के क्या हैं मायने?

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मध्य प्रदेश ने वित्त वर्ष की शुरुआत जनवरी से करने का निर्णय लिया है और केंद्र सरकार भी यह फैसला लागू कर सकती है। मध्य प्रदेश के अलावा पूरे देश में फिलहाल वित्त वर्ष की शुरुआत 1 अप्रैल से होती है और अगले साल 31 मार्च को वित्त वर्ष पूरा होता है। (हालांकि संविधान में इसका प्रावधान नहीं है लेकिन सामान्य प्रावधान अधिनियम 1897 में यह परिपाटी निहित है।) यहां ध्यान में रखना होगा कि निजी कंपनियों और कारोबारी संगठनों के लिए जरूरी नहीं है कि वे सरकारी वित्त वर्ष के मुताबिक ही अपना लेखा-जोखा रखें। अगर सरकार वित्त वर्ष में बदलाव करती है तो भी कारोबारी जगत के लिए ऐसा करना अनिवार्य नहीं होगा।

 Background:

Ø  भारत का पहला बजट 7 अप्रैल 1860 को पेश किया गया था और 1867 तक वित्त वर्ष की गणना 1 मई से 30 अप्रैल तक होती रही थी।

Ø  हालांकि वर्ष 1867 में ब्रिटिश सरकार के साथ साम्यता स्थापित करने के मकसद से भारत में भी वित्त वर्ष का समय बदल दिया गया।

Ø  वर्ष 1865 में भारतीय खाता जांच आयोग बना था जिसमें असिस्टेंट पेमास्टर जनरल फॉस्टर और डिप्टी अकाउंटेंट जनरल व्हिफेन सदस्य बनाए गए थे। उस आयोग ने वित्त वर्ष की शुरुआत 1 जनवरी से करने का सुझाव दिया था। लेकिन तत्कालीन भारत सचिव इससे सहमत नहीं हुए। उनका मानना था कि ऐसा करने से ब्रिटिश सरकार के साथ भारतीय शासन का तालमेल स्थापित करने में समस्या खड़ी हो जाएगी।

Ø  वर्ष 1913 में भारतीय वित्त एवं मुद्रा पर सुझाव के लिए गठित शाही आयोग ( जिसे चैम्बरलिन आयोग के नाम से भी जाना जाता है) ने भी इस पर अपना सुझाव दिया था। चैम्बरलिन आयोग ने कहा था, 'वित्तीय नजरिये से यह साफ नजर आता है कि वित्त वर्ष का वर्तमान समय बजट के लिहाज से काफी असुविधाजनक है। हमारी तरफ से सुझाव है कि वित्त वर्ष की शुरुआत 1 अप्रैल के बजाय 1 नवंबर या 1 जनवरी से की जाए। इस सलाह को अमल में लाने में कुछ प्रशासनिक कठिनाइयां आ सकती हैं लेकिन वित्तीय रूप से यह उल्लेखनीय सुधार होगा।' 

Ø  आजादी के बाद वर्ष 1958 में लोकसभा की अनुमान समिति ने भी अपनी 20वीं रिपोर्ट में वित्त वर्ष की शुरुआत की तारीख बदलने की संस्तुति की थी। समिति का कहना था कि 1 अप्रैल के बजाय 1 अक्टूबर से वित्त वर्ष शुरू किया जाना चाहिए। प्रशासनिक सुधारों के लिए गठित पहले आयोग ने 1966 में पेश अपनी रिपोर्ट में भी वित्त वर्ष को 1 अप्रैल से शुरू करने के खिलाफ राय दी थी। आयोग के वित्तीय प्रशासन अध्ययन दल ने 1 जनवरी के बजाय 1 अक्टूबर से नया वित्त वर्ष शुरू करने के पक्ष में तर्क दिए थे।

Ø  वित्त, लेखा एवं अंकेक्षण पर पेश चौथी रिपोर्ट में भी कहा गया था कि '1 अप्रैल से वित्त वर्ष की शुरुआत न तो भारत की परंपराओं पर आधारित है और न ही यह हमारे देश की जरूरत पर आधारित है। हमारी अर्थव्यवस्था अब भी मूलत: कृषि पर आधारित है, ऐसे में वास्तविक वित्त वर्ष राजस्व का सटीक आकलन करने में सहयोग देने वाला और कामकाजी मौसम के अनुरूप होना चाहिए।'

Ø   वर्ष 1983-84 में राष्ट्रीय विकास परिषद की बैठक के बाद तत्कालीन वित्त मंत्री ने एक बार फिर इस मुद्दे को उठाते हुए राज्यों के मुख्यमंत्रियों से उनकी सलाह मांगी। इस पर अपनी बात रखने वाले लगभग सभी मुख्यमंत्रियों ने वित्त वर्ष में बदलाव का समर्थन किया। यह अलग बात है कि वित्त वर्ष के नए समय को लेकर उनकी राय बंटी हुई थी। उनमें से कई मुख्यमंत्रियों ने कहा कि मॉनसून के बाद खरीफ की उपज को लेकर अनुमान लगाना अधिक आसान होता है। वहीं कुछ मुख्यमंत्रियों ने नए साल के साथ ही वित्त वर्ष की भी शुरुआत करने का समर्थन किया। कुछ लोगों का कहना था कि 1 जुलाई से वित्त वर्ष शुरू होने से विकास कार्यों को तेजी दे पाना आसान होगा। 

Ø  इन सुझावों पर विचार के लिए गठित एल के झा समिति ने वर्ष 1984 में पेश अपनी रिपोर्ट में 1 जनवरी से वित्त वर्ष शुरू करने का प्रस्ताव रखा था। वित्त मंत्री को लिखे पत्र में कहा था, 'हमें ऐसा लगता है कि वित्त वर्ष को जनवरी-दिसंबर करना काफी लाभप्रद होगा क्योंकि इससे बजट को नवंबर में पेश किया जा सकेगा। उस समय तक खरीफ फसल की उपज के बारे में सटीक जानकारी उपलब्ध होती है और रबी फसल के बारे में भी अनुमान लगाया जा सकता है। ऐसा करने से न केवल राष्ट्रीय लेखा के लिए सांख्यिकी आंकड़े जुटाए जा सकेंगे बल्कि अंतरराष्ट्रीय परंपरा के भी अनुकूल होगा। इसके अलावा वित्त वर्ष और कैलेंडर साल अलग-अलग होने से पैदा होने वाला भ्रम भी दूर होगा।' 

इन सभी बिंदुओं को उठाने का मकसद यह दिखाना है कि यह कोई नया मामला नहीं है। वित्त वर्ष में बदलाव के लिए कई कारण गिनाए जाते रहे हैं।

Ø  वित्त वर्ष की मौजूदा व्यवस्था से कामकाजी सत्र का पूरा उपयोग नहीं हो पाता है;  

Ø  कृषि फसल की अवधि, सूचनाओं और आंकड़ों के संकलन की अवधि में अंतर होने से राष्ट्रीय खाता तैयार कर पाना मुश्किल हो जाता है

Ø  विधायिका के लिए बजटीय कार्य आसान हो जाएगा

Ø  अंतरराष्ट्रीय रवायतों के अनुरूप होगा और पांचवां, राष्ट्रीय संस्कृति एवं परंपरा के अनुरूप होगा। राष्ट्रीय आय में कृषि की हिस्सेदारी घटने की भी स्थिति में कामकाजी सत्र को लेकर एक समस्या तो पैदा होती ही है।

 हालांकि उस सुझाव को लागू नहीं किया गया था। सरकार ने इस पर कहा था कि वित्त वर्ष में बदलाव के फायदे कुछ खास नहीं होंगे और आंकड़ा जुटाने में भी समस्या होगी। इसके अलावा कर नियमों और वित्तीय प्रक्रियाओं में बदलाव के लिए सुधार करने की बाध्यता का भी हवाला दिया गया। हालांकि झा समिति ने केंद्रीय सांख्यिकीय संगठन (सीएसओ) से जब इस बारे में राय मांगी थी तो उसने वित्त वर्ष में बदलाव से कोई बड़ा विघ्न पडऩे की आशंका को खारिज किया था। सीएसओ ने यहां तक कहा था कि वित्त वर्ष में बदलाव से उसे आंकड़ों को सहेजते समय अवधि की एकरूपता के चलते कम समस्या होगी। 

Difficulties?

 प्रथम प्रशासनिक सुधार आयोग ने भी माना था कि 'वित्त वर्ष में बदलाव से थोड़े समय के लिए प्रशासनिक और सांख्यिकीय मोर्चों पर असुविधा बढ़ेगी लेकिन इसकी वजह से हमें एक अधिक तर्कसंगत, व्यावहारिक और सुविधाजनक व्यवस्था अपनाने से पीछे नहीं हटना चाहिए।

इस बदलाव से होने वाले तमाम लाभों को भी ध्यान में रखना होगा।' अभी तो सार्वजनिक व्यय और बजट प्रक्रियाओं में बदलाव का सिलसिला चल रहा है। योजनागत एवं गैर-योजनागत व्यय के विभेद को खत्म किया जा चुका है, 14वें वित्त आयोग ने भी अपनी अनुशंसाएं दे दी हैं और केंद्र से प्रायोजित विभिन्न योजनाओं का पुनर्गठन हुआ है। ऐसे में यह वित्त वर्ष में बदलाव लाने का माकूल वक्त है। इसके पक्ष में तर्क तो 1865 से ही दिए जाते रहे हैं। हालांकि झा समिति के सुझावों को लागू करने के बारे में योजना आयोग के उपाध्यक्ष ने 1993 में ही वित्त मंत्री को पत्र लिखा था। उस समय यह जवाब आया था कि देश सुधारों के दौर से गुजर रहा है और ऐसे में वित्त वर्ष बदलने के लिए अच्छा समय नहीं है। उस तरह तो लगातार खराब समय ही चल रहा है।

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