जेनेटिकली मोडिफाइड (जीएम) फसलों के मामले में भारत लंबे समय से ऊहापोह की स्थिति में है। लेकिन, अब पर्यावरण मंत्रालय की एक कमिटी ने सरसों की जीएम फसल को मंजूरी दी है और इसे सरकार से भी हरी झंडी मिल सकती है।
जीएम फसल क्या होती है और कैसे विकसित किया जाता है ..
- जेनेटिक इंजिनियरिंग के जरिए किसी भी जीव या पौधों के जीन को दूसरे पौधों में डाल कर एक नई फसल प्रजाति विकसित की जाती है।
- 1982 में तंबाकू के पौधे में इसका पहला प्रयोग किया गया था, जबकि फ्रांस और अमेरिका में 1986 में पहली बार इसका फील्ड ट्रायल किया गया था।
- 1996 से लेकर 2015 के दौरान पूरी दुनिया में जीएम फसलों की खेती में इजाफा हुआ है।
- जीएम फसलें ऐसी फसलें हैं, जिनके जीन में बायॉटेक्नॉलजी और बायॉ इंजिनियरिंग के जरिए परिवर्तन किया जाता है।
- इस प्रक्रिया में पौधे में नए जीन यानी डीएनए को डालकर उसमें ऐसे मनचाहे गुणों का समावेश किया जाता है जोकि प्राकृतिक रूप से उस पौधे में नहीं होते हैं।
- इस तकनीक के जरिए तैयार किए गए पौधे कीटों, सूखे जैसी पर्यावरण परिस्थिति और बीमारियों के प्रति अधिक प्रतिरोधी होते हैं। जीनांतरित फसलों से उत्पादन क्षमता और पोषक क्षमता को बढ़ा सकते हैं।
- एक दशक से पहले जब देश में जीएम कॉटन को लॉन्च किया गया था और इसे भारी सफलता मिली थी, 2002 में लॉन्च किया गया बीटा कॉटन देश की एक मात्र जीएम फसल है और यह देश के 11.6 मिलियन हेक्टेयर्स में होने वाली कॉटन की खेती के 95 फीसदी हिस्से को कवर करता है।
- नेट इंपोर्टर होने के नाते भारत फाइबर का दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक और एक्सपोर्टर बन गया है।
जीएम तकनीक के नुकसान भी हैं।
- इससे प्राकृतिक खेती में संक्रमण का खतरा रहता है। इसके अलावा स्वास्थ्य के लिहाज से भी इस फसल को बहुत अच्छा नहीं माना जाता। इसी के चलते बीटी बैंगन पर रोक लग गई थी।
- यही नहीं जीएम फसलों के जरिए बीजों के मामले में भारतीय किसान विदेशी कंपनियों पर निर्भर होंगे।
निष्कर्ष -
- भारत में खेती की पैदावार की निराशाजनक स्थिति में बेहतरी लाने के लिए जीएम फसलों को अनुमति देना अहम निर्णय माना जा रहा है। शहरीकरण के कारण खेती योग्य भूमि समाप्त होती जा रही है और जनसंख्या जिस रफ्तार से बढ़ रही है, उससे यह अनुमान लगाया जा रहा है कि 2030 तक आबादी के मामले में हम चीन को भी पीछे छोड़ देंगे और हमें 1.5 अरब लोगों के पेट भरने का प्रबंध करना होगा।