बाघों की मृत्यु दर और उनके अस्तित्व पर बढ़ता खतरा

देश में बाघों की संख्या एक बार फिर खतरनाक तेजी से कम होने लगी है। नैशनल टाइगर कंजरवेशन अथॉरिटी ऑफ इंडिया (एनटीसीए) के आंकड़ों के अनुसार इस साल देश भर में अभी तक 78 बाघ मर चुके हैं। यह संख्या पिछले 15 सालों में सबसे ज्यादा है।

  • अपने देश के लिए यह चिंता की बात इसलिए भी है कि कम से कम बाघों के मामले में दुनिया की उम्मीद भरी नजरें हम पर ही टिकी हुई हैं। बाघों की करीब 70 फीसदी आबादी भारत में रहती है और मध्य प्रदेश इस मामले में सबसे आगे माना जाता रहा है।
  • समस्या यह है कि इसी राज्य में बाघों के रख-रखाव में सबसे ज्यादा गिरावट आई है। 2010 में टाइगर स्टेट, यानी सबसे ज्यादा बाघों वाले राज्य का तमगा मध्य प्रदेश से हट कर कर्नाटक के पास जा चुका था, इस बार बाघों की सबसे ज्यादा मौतें भी मध्य प्रदेश में ही दर्ज की गई हैं।
  • 78 में से 26, यानी एक तिहाई बाघ इसी राज्य में मरे हैं। नौकरशाही से जुड़े सूत्र इसके कुछ ऐसे कारण गिनाते हैं, जिनसे उनके इंतजामों पर कोई सवाल न उठे। ताजा मामले में उनका कहना है कि चूंकि प्रदेश में बाघों की संख्या ही ज्यादा हो गई है, इसलिए आबादी का घनत्व उन्हें सुरक्षित क्षेत्रों को पार कर अन्य क्षेत्रों में जाने को मजबूर करता है।

- वहां उनका टकराव इंसानी आबादी से होता है, नतीजन वे मारे जाते हैं। मगर बात इतनी सीधी नहीं है। कम से कम तीन ऐसे मामले हैं जिनमें तांत्रिकों की संलग्नता आधिकारिक तौर पर स्वीकार की गई है।

- कुछ आदिवासी समुदायों में यह मान्यता बनी हुई है कि तांत्रिक क्रियाओं में बाघ के पंजों और नाखूनों का इस्तेमाल जरूरी है। इसके अलावा कई मौतें दुर्घटना और आपसी लड़ाई के भी कारण हुई हैं। फिर भी असली खलनायक आज भी अंतरराष्ट्रीय बाजारों में बाघों के अंगों तथा खालों की बढ़ी हुई मांग और इनकी स्वाभाविक रिहाइश माने जाने वाले क्षेत्रों का लगातार सिकुड़ते जाना ही है। इस ओर समय रहते ध्यान नहीं दिया गया तो बाघ बचाने के हमारे तमाम प्रयासों पर पानी फिर जाएगा।

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