सात जरूरी कदम जिन्हें उठा कर भारत टोक्यो-2020 ओलंपिक में कर सकता है बेहतर प्रदर्शन

रियो ओलंपिक खत्म होने को है. साक्षी मलिक और पीवी सिंधू के प्रदर्शन के बावजूद, कुल मिला कर ओलंपिक में भारत का प्रदर्शन थोड़ा फीका रहा है.

  • भारत कभी भी खेलों में ओलंपिक के स्तर पर बड़ी ताकत नहीं रहा है, लेकिन अटलांटा 1996 (लिएंडर पेस की वजह से एक ब्रांज मेडल) और लंदन 2012 (छह मेडल) के बीच भारत के प्रदर्शन में लगातार सुधार हुआ है.

आइए इसकी असली वजह से ही इसे समझना शुरू करते हैं..

- यह पूरी तरह केंद्र और राज्य सरकारों की भी गलती नहीं है कि भारत में खेल संस्कृति की जड़ें गहरे तक जम नहीं पाईं. सच्चाई यह है कि अगर सरकारी पैसे और उनकी आधारभूत सुविधाएं न मिलें, तो भारत ओलंपिक में एक एथलीट न भेज पाये. शायद केवल टेनिस के सितारे ही जा सकें.

- लेकिन जरूरत इस बात को समझने की है कि हम क्या गलतियां कर रहे हैं, और हम क्या सही कर सकते हैं, अगर टोक्यो 2020 और उसके आगे अच्छा प्रदर्शन करना है ....

1. एथलीटों पर आरोप लगाना बंद हो, उनकी कोशिशों को समर्थन दिया जाय:-
- शुरुआत करते हैं प्रशंसकों से, जो हर चार साल में एक बार जागते हैं और उन्हें याद आता है कि शूटिंग और जिमिनास्टिक्स जैसे खेल भी वजूद में हैं. ओलंपिक से जुड़े खेल हमें तभी याद आते हैं जब ओलंपिक, एशियाई खेल या राष्ट्रमंडल खेल हो रहे होते हैं, लेकिन हमेशा याद रखें कि एथलीटों के लिए यह हर दिन हर घंटे लगातार चलने वाली प्रक्रिया है.
-  इन एथलीटों को हमारे लगातार समर्थन की जरूरत है.

- दीपा कर्माकर रातोंरात प्रोडूनोवा वॉल्ट की बादशाह नहीं बन गयी हैं, सालोंसाल की कड़ी मेहनत से आज वह यहां तक पहुंच सकी हैं. अगर अभिनव बिन्द्रा तीसरे स्थान के लिए संघर्ष में हार गये, तो इसका यह मतलब नहीं है कि वह खराब शूटर हैं. इसका मतलब यह है कि उस एक निर्णायक शॉट में उनके प्रतिद्वंद्वी ने उनसे बेहतर प्रदर्शन किया.

- कैसे 1.3 अरब लोगों का देश ओलंपिक मेडल जीतने वाले खिलाड़ी नहीं पैदा कर सकता, ये पंक्ति बार-बार दुहराना अच्छा नहीं है. क्योंकि यह कोई लोकप्रियता की प्रतियोगिता नहीं है. मामला यहां बेहतर सुविधाएं मिलने का है. और हमारे एथलीटों को वही नहीं मिलता है.

02. अभिभावकों की मानसिकता :-
- अक्सर यह कहा जाता है कि भारतीय माता-पिता चाहते हैं कि उनके बेटे-बेटियां अच्छे अंक लायें और डॉक्टर-इंजीनियर बनें, वे अपने बच्चों को खिलाड़ी बनाने के सपने नहीं देखने देते.

- इन अभिभावकों को खुद से महज एक सवाल पूछना चाहिए- क्या आप स्थानीय सरकारी अस्पताल में काम करने वाले डॉ. आया राम गया राम के माता-पिता बनने में गर्व महसूस करेंगे या, फिर अपने बच्चे को मौका दे कर माइकल फेल्प्स या उसेन बोल्ट या गगन नारंग या साइना नेहवाल या एमसी मेरी कॉम का माता-पिता बनने में गौरव की अनुभूति करेंगे?
★जरूरत है सोच में बदलाव की. दरअसल आज के माता-पिता ही कल के बेहतरीन एथलीट तैयार कर सकते हैं.

03. कई साल पहले ही जारी कर दिया जाय धन :-
★उच्चाधिकारियों को यह एहसास करने की जरूरत है कि ओलंपिक से डेढ़ साल पहले पैसे जारी करने से एथलीटों को कोई फायदा नहीं होगा.

★दरअसल ओलंपिक किसी भी अन्य प्रतिस्पर्द्धा से एक कदम ऊपर होता है. मानसिक तौर पर यह एथलीट के सामने सबसे बड़ी चुनौती पेश करता है, और भारतीय एथलीट यहीं पर पिछड़ जाते हैं क्योंकि उनको ओलंपिक से एक या दो साल पहले वर्ल्ड क्लास सुविधाएं मिल पाती है, जबकि खेल दिग्गज देशों के जिन खिलाड़ियों से उनका मुकाबला होता है वे सालोंसाल से उस मौके के लिए लगातार तैयारी में लगे रहते हैं. आप डेढ़ साल की ट्रेनिंग का खर्चा उठा कर माइकल फेल्प्स नहीं तैयार कर सकते.

04. छोटी उम्र में प्रतिभा पहचानिए, उनको ट्रेनिंग देकर विश्वस्तरीय बनाइए :-
★ जब भी चीनी खिलाड़ी ओलंपिक में मेडल जीतना शुरू करते हैं, इंटरनेट पर ऐसी कहानियां और तस्वीरें आने लगती हैं कि वहां किस तरह से ट्रेनिंग के दौरान अपने बच्चों के साथ अमानवीय व्यवहार किया जाता है.

★ अमेरिकी लोगों को देखिए, युवा स्तर पर उनकी व्यवस्था इतनी मजबूत है कि वे तेरह-चौदह साल की उम्र में ही प्रतिभाओं की पहचान कर लेते हैं, और फिर उनके पीछे पूरी ताकत लगा देते हैं.

★ अगर भारत में इस तरह की व्यवस्था स्थापित कर दी जाये कि छोटे आयु वर्ग से ही प्रतिभा की पहचान हो सके, जैसे मान लीजिए अंडर-16 के स्तर पर, और फिर उनको लंबे समय के लिए ट्रेनिंग दी जाये, तो उनमें से कुछ 23-24 साल के होते-होते निश्चय ही विश्वस्तरीय खिलाड़ी के तौर पर उभर कर सामने आयेंगे.

★ अभिनव बिन्द्रा इसके बेहतरीन उदाहरण हैं. साल 1996 में जब वह 14 साल के थे, तो उन्होंने ट्रेनिंग लेना शुरू कर दिया था. जब साल 2000 में सिडनी ओलंपिक हुए, तब वह ओलंपिक स्तर के खिलाड़ी बन चुके थे. साल 2001 में 18 साल से भी कम उम्र में ही वह खेल रत्न घोषित हो चुके थे. 

★लेकिन उसके बाद कई बार उनके सपने टूटे, कई बार उन्हें कड़े अनुभवों से गुजरना पड़ा, और फिर अंत में साल 2008 में बीजिंग में वह ओलंपिक चैंपियन बने. उस समय उनकी उम्र तकरीबन 26 साल थी.

05. मानसिक प्रशिक्षण:- 
★लंदन ओलंपिक में बेहतरीन प्रदर्शन करने में नाकामयाब रहे एक शूटर ने इस संवाददाता को बताया था कि खेल गांव में रहना कितना अजीब अनुभव था.

★ उस शूटर के मुताबिक जैसे ही आप खेल गांव पहुंचते हैं, आप दूसरे देशों से पहुंचे एथलीटों को देखते हैं जो अधिक तैयार और अधिक विश्वस्त नजर आते हैं. उनकी ट्रेनिंग का तरीका भारतीयों के मुकाबले अधिक केंद्रित और व्यवस्थित दिखता है. और इस तरह प्रतियोगिता शुरू होने से पहले ही भारतीय एथलीट मानसिक लड़ाई हार जाते हैं.

06. बेहतरीन प्रतिभाओं को दिया जाये पूरी तरह साथ:-
★अब कॉरपोरेट जगत ओलंपिक खिलाड़ियों को प्रायोजित करने में भी रुचि दिखाने लगा है. लेकिन सरकार की ही तरह उन्हें भी यह एहसास होना चाहिए कि महज दो सालों में उन्हें उनके निवेश पर रिटर्न नहीं मिल जायेगा. अगर मेडल जीतना है, तो उन्हें एथलीट को चार साल, आठ साल या फिर 12 साल तक का समय देना होगा.

★ऐसे में अहम यह है कि वे प्रतिभा की पहचान करें और फिर अंत तक उसका साथ दें. हो सकता है कि राह में निराशा मिले, लेकिन अगर एथलीट में प्रतिभा है, और उसे सही ट्रेनिंग मिलती रहे, तो आखिरकार उसे कामयाबी जरूर मिलेगी.

★बीच राह में उनका साथ न छोड़ें. यह भी ध्यान रहे कि सभी एथलीट कामयाब नहीं होंगे, कुछ ही होंगे. और जब ओलंपिक मेडल जीतने वाला कोई एथलीट अपनी कामयाबी का श्रेय आपको देगा, तो वही आपके निवेश पर हासिल आपका रिटर्न होगा.

07. खेल संघों पर अधिक ध्यान दिया जाय, उन्हें अधिक पेशेवर बनने को बाध्य किया जाय :-
★यह सही बात है कि खेलों से जुड़े राष्ट्रीय फेडरेशन और उनकी राजनीति अक्सर एथलीटों के लिए राह का रोड़ा बन जाती है. लेकिन इसका एक पहलू यह भी है कि अधिकांश मामले ऐसे होते हैं जिनमें वे एथलीटों के लिए जानबूझकर मुश्किल नहीं पैदा करते, बल्कि नौकरशाही से जुड़ी लापरवाही या राजनीतिक उठापटक की वजह से एथलीटों की राह कठिन हो जाती है.

★निजी धन लगने से इन फेडरेशनों की जवाबदेही बढ़ेगी. ऐसे में इन फेडरेशनों पर ध्यान भी अधिक रहेगा. चूंकि कोई इन पर नजर नहीं रखता, इसलिए ये बच कर निकल जाते हैं. जब एथलीट कामयाब होते हैं, तो हम लोगों को अधिक सवाल पूछने चाहिए. मीडिया को इन फेडरेशनों को प्रमुखता से जगह देनी चाहिए. ऐसा करने से ही ये अधिक जवाबदेह और अधिक पेशेवर बनेंगे.

★रियो ओलंपिक में शूटरों के नाकामयाब होने के बाद एनआरएआई ने बिन्द्रा की अध्यक्षता में एक समिति बनायी है जो वजहों का पता लगायेगी और भविष्य के लिए सही कदम उठाने में मदद करेगी. यह वही फेडरेशन है जिसने एथलीट कमीशन (बिन्द्रा की ही अध्यक्षता वाली) के दबाव में आकर ओलंपिक सिलेक्शन के मामले में अपना एक मूर्खतापूर्ण फैसला बदला था.

★एक नया आधार बनाने की जरूरत है, जो अधिक पेशेवर हो, व्यावहारिक हो और राजनीति से मुक्त माहौल मुहैया कराये.रियो ओलंपिक अब खत्म होने को है. बदलाव की शुरुआत करने का इससे अच्छा मौका नहीं होगा.

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