मध्यस्थता (Arbitration ) को सुधारने में आने वाली दिक्कते

हाल ही में प्रधानमंत्री ने अंतरराष्ट्रीय कारोबारी विवादों के निस्तारण में मध्यस्थता का वैश्विक केंद्र बनाने की बात कही है जो बहुत सराहनीय है। सोच के स्तर पर यह विचार बढिय़ा है लेकिन इसका क्रियान्वयन उतना ही महत्त्वाकांक्षी

  • प्रधानमंत्री ने  प्रक्रियाओं को समय पर पूरा करने और पेशेवर आचरण को अंतरराष्ट्रीय मामलों के निस्तारण के लिए अतिरिक्त खूबी बताया। 
  • इस दिशा में 23 अक्टूबर, 2015 को सरकार ने पंचाट एवं सुलह (संशोधन) अधिनियम को सैद्घांतिक मंजूरी दे दी।
  • अधिनियम  मध्यस्थता की प्रक्रिया को सुसंगत बनाने में मददगार साबित होगा। इसके अलावा प्रक्रिया की अवधि तय करने और उन्हें तेजी से निपटाने में भी यह मददगार होगा। 

 

Some lacunaes (कुछ खामिया )

  • पंचाट एवं सुलह (संशोधन) में कई प्रावधान ऐसे हैं जो नए कानून के प्रवर्तन पर प्रश्नचिह्न लगा सकते हैं। उदाहरण के लिए नए कानून के तहत एक मध्यस्थता पंचाट आवश्यक है जिसके पास अदालत के समान अधिकार होंगे। वह 12 माह के भीतर निर्णय दे सकेगा।
  • इस अवधि को छह माह तक बढ़ाया जा सकता है।
  • यह अवधि जितनी कम रखी जाएगी शुल्क उतना ही ज्यादा होगा।
  • अगर देरी होती है तो हर बीतते महीने के साथ शुल्क पांच फीसदी कम किया जाएगा।
  • अधिनियम में यह व्यवस्था भी है कि इसके तहत दिए गए किसी भी निर्णय के खिलाफ अगर अदालत का रुख किया जाता है तो उसे एक साल में निपटाना होगा।
  •  परंतु इस अवधि में देरी होने पर किसी जुर्माने की बात नहीं कही गई है। देश की अदालतों के सामने लंबित मामलों को देखते हुए यह प्रश्न उठता ही है कि क्या यह समय सीमा हकीकत के करीब है? क्या कभी इसका पालन हो पाएगा?
  • विभिन्न पक्षों को मध्यस्थता काम निपटाने के लिए अवधि विस्तार की खातिर भी अदालत जाना होगा।
  • वाणिज्यिक मामलों के निपटान में जितना वक्त लगता है उसे देखते हुए यह ठीक नहीं प्रतीत होता। देश की 1,200 के करीब फास्ट ट्रैक अदालतों में ही छह लाख से अधिक मामले लंबित हैं। इससे उनकी काम करने की गति का अंदाजा लगाया जा सकता है। 
  • मध्यस्थता का काम देश की विधिक व्यवस्था में निहित है। जिस किसी का पाला देश की अदालतों से पड़ा होगा वह यह जरूर मानेगा कि वैश्विक कारोबार निकट भविष्य में शायद ही वाणिज्यिक मामलों की मध्यस्थता के लिए सिंगापुर या लंदन को छोड़कर भारत का रुख करेंगे।
  •  वोडाफोन और उसके बाद हाल ही में टाटा डोकोमा का अनुभव भी उनके यकीन को बढ़ाने वाला नहीं है।
  • यह बात ध्यान देने लायक है कि लंदन की अंतरराष्ट्रीय अदालत ने जून में अपनी भारतीय शाखा बंद कर दी। जबकि यह संस्थान कुछ समय में देश के प्रमुख संस्थागत पंचाट के रूप में उभरा था।
  •  बीते छह सालों से इसे मामलों की कमी बनी थी। यही इसे बंद करने की वजह बना।
  • इस बीच महाराष्ट्र सरकार और भारतीय और अंतरराष्ट्रीय विधिक समुदायों ने मिलकर इस वर्ष अक्टूबर में मुंबई में अंतरराष्ट्रीय मध्यस्थता केंद्र की स्थापना की है।

सैद्घांतिक रूप से इसकी स्थापना इसलिए की गई है ताकि भारतीय मध्यस्थता मामलों को सिंगापुर स्थित अंतरराष्ट्रीय मध्यस्थता केंद्र से वापस लाया जा सके। वहां 90 फीसदी से अधिक मामले भारत से जुड़े हैं। ऐसे वक्त पर जबकि भारत एक उच्च क्षमता वाले निवेश केंद्र के रूप में उभर रहा है तब अनुबंधों के प्रवर्तन जैसे कारोबारी सुगमता मानक बहुत अहम हो चले हैं। प्रश्न यह है कि क्या विधिक व्यवस्था इस चुनौती से निपटने के लिए तैयार है? 

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