नोटबंदी और ग्रामीण भारत

परिप्रेक्ष्य

हालांकि गांवों में 500 और 1000 की नोटों की तादाद शहरों की तुलना में कम थी लेकिन सामाजिक सुरक्षा पेंशन, मनरेगा आदि का भुगतान इन्हीं नोटों में होने के कारण आंकड़ा बढ़ गया था। उदाहरण के लिए छत्तीसगढ़ में मनरेगा के एक सप्ताह के काम का भुगतान 1002 रुपये होता है। ग्रामीण इलाकों की बड़ी आबादी के लिए आज भी बैंक जाना टेढी खीर है। बैंक औसतन किसी गांव से कुछ किलोमीटर की दूरी पर ही होते हैं। ऐसे में बैंक जाने और घंटों वहां कतार में खड़े रहने की लागत करीब 50 रुपये रोजाना पड़ जाती है। इससे मेहनताने का नुकसान होता है।

कुछ ध्यान देने योग्य असर :

  • एक मोटे अनुमान के मुताबिक एक ग्रामीण श्रमिक बैंक के चक्कर में करीब 200 रुपये रोजाना का नुकसान उठाता है। ग्रामीण इलाकों के बैंकों में कर्मचारियों की भी जबरदस्त कमी है। इसके चलते बैंक कर्मचारियों का लोगों के साथ व्यवहार भी खासा रुखा रहता है। इसमें नया कुछ नहीं है लेकिन विमुद्रीकरण के दौरान यह काफी बढ़ गया है।
  • Information deficit : मुद्रा बदलने के लिए जो प्रक्रिया अपनाई जानी है उसे लेकर समुचित जानकारी हर जगह नहीं पहुंच पाई। सूचना का अधिकार अधिनियम की धारा 4 (1) (स) और 4 (1) (द) कहती है कि सरकार को अहम नीतियां बनाते वक्त उस संबंध में सभी तथ्यों को समुचित प्रकाशित करना चाहिए और लोगों को प्रभावित करने वाले अपने कदमों के संबंध में पूरी जानकारी देनी चाहिए। लेकिन देश के ग्रामीण इलाकों में विमुद्रीकरण को लेकर आरबीआई के दिशानिर्देश सही ढंग से नहीं पहुंच सके। 
  • ग्रामीण बैंकों और डाक घरों को शहरों की तुलना में कम धन भी जारी किया गया। यहां तक कि जब आरबीआई ने अपने दिशानिर्देश में कहा कि 10,000 रुपये तक की राशि निकाली जा सकती है, तब भी कई जगह ग्रामीण बैंकों ने 2000 रुपये देना ही जारी रखा। कई ऐसे मामले भी हैं जहां असंगठित क्षेत्रों के मजदूरों को जबरदस्ती 500 और 1000 रुपये का भुगतान किया गया। उनसे कहा गया कि अगर उनको काम करना है तो इसी मुद्रा में भुगतान लेना होगा। 
  •  पुराने नोटों को बदलने की कवायद ने अन्य बैंकिंग कामकाज को बुरी तरह प्रभावित किया। सारा ध्यान पुरानी नोटों को बदलने पर केंद्रित हो गया। छोटे और सीमांत किसान जो बैंकों से कर्ज लेते थे उन पर बुरा असर पडऩे लगा क्योंकि बैंकों में दूसरे कामकाज ठप हो गए। ऐसी परिस्थितियां इन किसानों को हमेशा के लिए खेती से दूर कर सकती हैं क्योंकि ऋण का नवीनीकरण न होने से उनको दिक्कत हो रही है। सरकारी दिशानिर्देश कहते हैं कि जिन लोगों के पास बैंक खाते नहीं हैं और वे धनराशि जमा करना चाहते हैं तो वे नए खाते खोल सकते हैं। लेकिन ग्रामीण बैंकों में मौजूदा स्थिति में तो यह असंभव नजर आता है। 
  • मनरेगा के तहत मिलने वाले भुगतान में देश भर में देरी हो रही है। डाकघर नोट बदलने में लगे रहे हैं। बाद में यह भुगतान हो जाएगा लेकिन यह देरी श्रमिकों को बहुत भारी पड़ रही है। इस देरी का कोई हर्जाना भी नहीं मिलेगा।
  • प्रवासी श्रमिक अपने घरों से दूर होने के कारण सबसे अधिक परेशान हैं। ऐसे श्रमिक अपने राशन कार्ड, आधार कार्ड और दस्तावेजों को बहुत अहम मानते हैं और शायद ही उनको साथ लेकर घूमते हों क्योंकि खो जाने का खतरा रहता है। लेकिन आरबीआई के दिशानिर्देशों के मुताबिक इन दस्तावेज के बगैर मुद्रा बदलना संभव ही नहीं था।
  • Effect on family life: गांवों में कई घरेलू महिलाएं आपातकालीन परिस्थितियों के लिए पैसे बचाकर रखती हैं। इस पैसे के बारे में उनके पतियों को भी जानकारी नहीं होती। ऐसी तमाम रकम 500 और 1000 के नोट में है। खबरें आ रही हैं कि अब यह सच उजागर होने से पति पत्नी के बीच तनाव तक होने लगा है। पतियों को लग रहा है कि उनकी पत्नी ने पैसे क्यों छिपाए? 
  • ग्रामीण इलाकों की कई असंगठित आर्थिक गतिविधियां भी प्रभावित हो रही हैं। उदाहरण के लिए आंध्र प्रदेश के ग्रामीण इलाके में महिलाएं घरेलू खर्च से बचे पैसे की मदद से बच्चों के पोषण के लिए दाल आदि खरीदने का काम करती हैं। ये गतिविधियां अब मुश्किल में आ जाएंगी। 

ग्रामीण भारत में लेनदेन का सबसे प्रमुख जरिया नकदी ही है। सरकार ने अचानक नोटबंदी का ध्येय कालेधन से बदलकर नकदी रहित अर्थव्यवस्था का निर्माण कर दिया। मौजूदा हालात में देश में नकदीरहित अर्थव्यवस्था की बात दिवास्वप्न है। ऐसा कदम उठाने के पहले कम से कम ग्रामीण इलाकों को अवसर दिया जाना चाहिए था जहां देश की अधिसंख्य आबादी रहती है।

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