नौकरियां पैदा करने में मददगार आर्थिक नीतियों की दरकार

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Job creation trend

नौकरी पैदा कर पाने में भारतीय आर्थिक विकास के नाकाम रहने का ताजा सबूत मैनपावर ग्रुप ने दिया है। मानव संसाधन क्षेत्र की सलाहकार कंपनी ने जुलाई-सितंबर 2017 के लिए जारी अपने रोजगार सर्वेक्षण में कहा है कि रोजगार बाजार लगातार छठी तिमाही में नीचे का रुझान दिखाएगा। इस तिमाही में नई नौकरियां देने की उम्मीद काफी कम रहने की आशंका है।

 

What survey says?

  • वर्ष 2005 से रोजगार संबंधी पूर्वानुमान दे रहे मैनपावर ने इस बार बेहद कम अनुमान जताया है।
  • वर्ष 2017 की तीसरी तिमाही में रोजगार का शुद्ध अनुमान 14 फीसदी बढ़त ही दिखा रहा है जबकि पिछले साल की समान अवधि में 35 फीसदी बढ़त का अनुमान था। सि
  • र्फ सूचना प्रौद्योगिकी पर केंद्रित एक सर्वेक्षण में कहा गया है कि अप्रैल-सितंबर में केवल 58 फीसदी कंपनियों की ही नौकरियां देने की योजना है। पिछली तिमाही में जताए गए अनुमान से यह 15 फीसदी कम है।

वैसे यह सही है कि सर्वेक्षण किसी भी परिस्थिति को आंकने का सबसे अच्छा तरीका नहीं है लेकिन इससे उभरते परिदृश्य के बारे में एक अनुमान तो लग ही जाता है। देश में नौकरियों की चिंताजनक स्थिति के बारे में संकेत देने वाला एक और पहलू है। हालांकि कई सलाहकार फर्मों और सरकार के भी कई लोगों ने उसे नकार दिया था। चुनिंदा क्षेत्रों में रोजगार परिदृश्य के बदलावों पर केंद्रित लेबर ब्यूरो की तिमाही रिपोर्ट के आंकड़े बताते हैं कि श्रम-आधिक्य वाले क्षेत्रों में भी वर्ष 2015 में केवल 1.35 लाख नौकरियां ही पैदा हुईं जबकि वर्ष 2011 में इन क्षेत्रों में 9.30 लाख नौकरियों का सृजन हुआ था।

 

 

हरेक महीने करीब 10 लाख नए लोगों के रोजगार की तलाश में उतरने संबंधी पहलू को ध्यान में रखें तो इसका यही मतलब है कि केवल 0.01 फीसदी लोगों को ही रोजगार मिल पा रहा है। हालांकि कोई व्यक्ति यह तर्क दे सकता है कि लेबर ब्यूरो बेहद प्रतिबंधित दायरे में काम करता है। उसके नमूने अर्थव्यवस्था के आठ क्षेत्रों में कार्यरत केवल 3-3.2 करोड़ लोगों से ही संबंधित होते हैं। ऐसे में हमें लेबर ब्यूरो के आंकड़ों से परे जाकर देखने की जरूरत है। दुर्भाग्यपूर्ण तरीके से रोजगार परिदृश्य फिर भी धुंधला ही दिख रहा है।

Other survey

 

  • रेटिंग एजेंसी क्रिसिल ने कहा है कि विनिर्माण क्षेत्र में रोजगार-गहनता में चौथाई गिरावट आई है जबकि 2000-05 में यह 0.78 हुआ करती थी।
  • इसी तरह विनिर्माण में रोजगार नमनीयता भी गिरकर 0.57 पर आ गई है। डॉयचे बैंक की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि ई-कॉमर्स और इंटरनेट आधारित स्टार्टअप में निवेश घटने और भारतीय आईटी सेवा क्षेत्र में मांग कम होने से शहरी रोजगार में वृद्धि पिछली कई तिमाहियों से रुकी पड़ी है। ऐसे में अपने कार्यकाल के अंतिम दो वर्षों में प्रवेश करने वाली सरकार के एजेंडे में रोजगार-सृजन का मुद्दा काफी अहमियत हासिल करने वाला है।
  •  रोजगार संकट को लेकर सुब्रमण्यन ने पिछले महीने कहा था, 'भारत की वर्तमान रोजगार चुनौती खासी मुश्किल है। देश की शानदार आर्थिक वृद्धि के समय नौकरियां देने में अहम भूमिका निभा चुके आईटी, निर्माण और कृषि क्षेत्र अब मुश्किल में घिरे हैं।' कुछ हलकों में यह चर्चा है कि रोजगार आंकड़े सामान्य तौर पर वास्तविक तस्वीर छुपा लेते हैं। दरअसल इन आंकड़ों में असंगठित क्षेत्र को शामिल नहीं किया जाता है जबकि देश के कुल श्रम बाजार में इसकी हिस्सेदारी 85 फीसदी से भी अधिक है।

 

Is unprganised sector answer to job creation?

लेकिन अगर संगठित क्षेत्र में ही रोजगार वृद्धि इस कदर धीमी हुई है तो यह उम्मीद करना अतिशय होगा कि असंगठित क्षेत्र में नौकरियां तेजी से बढ़ी हैं। खास तौर पर अंशकालिक रोजगार देने वाले निर्माण क्षेत्र और छोटे स्तर पर काम करने वाली इकाइयों के मुश्किल में होने से ऐसी उम्मीद करना और भी बेमानी होगा। मैकिंजी ने इस पूरे विमर्श का एक प्रति-कथन तैयार किया है। गुरुवार को प्रकाशित एक रिपोर्ट में इसने कहा है कि देश ने अपने कार्यबल को 'लाभकारी रोजगार' मुहैया कराने के अवसर पैदा किए हैं। मसलन, रोजगार सृजन में नजर आ रही शिथिलता अर्थपूर्ण संरचनात्मक बदलाव का छद्मावरण धारण करती है। जहां कृषि रोजगार में 2011-15 के दौरान तेजी से गिरावट आई थी वहीं गैर-कृषि क्षेत्र में सालाना 80 लाख रोजगार बढ़े। मैकिंजी का यह भी कहना है कि डिजिटल आर्थिक परिदृश्य कार्यबल के एक तबके के लिए बेहतर गुणवत्ता वाले काम के साथ अधिक मेहनताने वाले काम के नए अवसर भी पैदा कर रहा है।

 

 रिपोर्ट कहती है, 'कामगारों का कृषि कार्यों से गैर-कृषि रोजगार की तरफ जाना उतना तीव्र नहीं रहा है कि कामकाजी जनसंख्या में बढ़ोतरी के तौर पर उसका असर दिख सके।' श्रम ब्यूरो की रिपोर्ट अल्प-रोजगार के बारे में भी डरावनी तस्वीर पेश करती है। अल्प-रोजगार दो तरह का होता है- पूरे साल कोई काम नहीं मिल पाना और बेहद कम वेतन पर काम करने के लिए बाध्य होना।

 

केवल 61 फीसदी कार्यबल के पास ही पूरे साल का रोजगार उपलब्ध था जबकि पूरे साल काम करने के लिए तैयार होते हुए भी 34 फीसदी लोगों को केवल 6-11 महीने ही रोजगार मिल पा रहा था। इन आंकड़ों को चुनौती देने वाले अधिक साक्ष्य नहीं हैं। ऐसी स्थिति में केंद्रीय मुद्दा यह है कि नौकरियां पैदा करने पर समुचित ध्यान नहीं दिए जाने से अधिकाधिक लोगों को निचले दर्जे के स्व-रोजगार या सर्वाधिक असुरक्षित रोजगार की तरफ धकेला जा रहा है। इसमें कोई शक नहीं है कि रोजगार सृजन को एक बुनियादी धुरी बनाए जाने की जरूरत है जिसके इर्दगिर्द आर्थिक और सामाजिक नीतियों को तय किया जाए। इसके लिए समय बड़ी तेजी से निकलता जा रहा है

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