जन परिवहन प्रणाली को सहारा देगी रेल सेवा

शहरो में परिवहन की समस्या

शहरों में निजी वाहनों की तादाद बहुत तेजी से बढ़ती जा रही है। दूसरी ओर सार्वजनिक परिवहन प्रणाली की हिस्सेदारी अपेक्षित स्तर तक नहीं बढ़ पा रही है। इसमें सड़क पर उपलब्ध जगह से जुड़ी बाधाओं की अपनी भूमिका है। शहरों के भीतर आवाजाही को बेहतर बनाने की तमाम कवायदों के बावजूद राष्ट्रीय शहरी परिवहन नीति, 2006 और शहरों में मेट्रो रेल और बस रैपिड ट्रांजिट सिस्टम के लिए अधिक केंद्रीय मदद के बावजूद शहरों में आवाजाही और जाम के झाम की समस्या बहुत मामूली स्तर तक ही सुलझी है। 

क्या आवश्यकता

इसके लिए 10 लाख से अधिक आबादी वाले शहरों में एकीकृत मेट्रोपॉलिटन परिवहन प्राधिकरण का गठन, सार्वजनिक परिवहन प्रणाली को सक्षम और आसानी से पहुंच वाला बनाना और इन सभी से बढ़कर शहरी परिवहन को शहरी संस्थाओं के चुनाव की जिम्मेदारी देने जैसे कदम उठाने होंगेे। फिलहाल इन सभी का अभाव है। 

  • इस परिप्रेक्ष्य में रेल मंत्रालय ने उपनगरीय रेल प्रणाली का प्रस्ताव पेश किया है, जो अंतिम रूप लेने और अमल में आने के बाद हमारे बड़े शहरों में बेहद जरूरी अतिरिक्त परिवहन ढांचे को मजबूत बनाएगा।
  •  इसमें राज्य सरकारों की भूमिका अहम होगी, जिन्हें शहरी आवाजाही समस्याओं को चिह्नित करना है।
  • रेलवे तंत्र के बावजूद दिल्ली को वह लाभ नहीं मिल पा रहा है क्योंकि रेलवे की प्राथमिकता माल ढुलाई को लेकर है। इस प्रकार हाल में दिल्ली को आसपास के इलाकों से जोडऩे के लिए रैपिड रेल तंत्र के पक्ष में निर्णय किया गया। हालांकि यह वैसा तरीका नहीं है, जिसमें मौजूदा रेल ट्रैक का इस्तेमाल कर दिल्ली में और आसपास के इलाकों के बीच परिवहन को सुगम बनाया जाए। कर्नाटक ने पहले ही उपनगरीय आवाजाही को बेहतर बनाने का प्रस्ताव दिया है। इसमें डीजल-इलेक्ट्रिक मल्टीपल यूनिट ट्रेन से लेकर इलेक्ट्रिकल मल्टीपल यूनिट कार (मेमू) और पीक आवर्स के दौरान नई मेमू सेवा की शुरुआत जैसे विकल्पों की बात है। 

मौजूदा रेल तंत्र और शहर परिवहन

अगर मौजूदा रेल ट्रैक का उपयोग शहर और आसपास के इलाकों में परिवहन को सुगम बनाने के लिए किया जाए तो हमारे अधिकांश बड़े शहर और दस लाख से अधिक की आबादी वाले शहर बहुत फायदे में रहेंगे। मगर प्रस्तावित नीति में इस विकल्प की गुंजाइश खत्म कर दी गई है क्योंकि रेलवे का कहना है कि वे मौजूदा ढांचे को उपनगरीय सेवाओं के हवाले नहीं छोड़ सकते। 

  • प्रस्तावित नीति का उचित कार्यान्वयन हमारे शहरों के लिए बेहद महत्त्वपूर्ण है। मसौदा नीति के मुताबिक संबंधित राज्य को उपनगरीय सेवाओं के संचालन के लिए एसपीवी गठित करनी ही चाहिए, इसमें उसकी 40 फीसदी हिस्सेदारी अनिवार्य रूप से हो, जमीन का बंदोबस्त भी वही करे और जब परियोजना के लिए 70 फीसदी जमीन मिल जाए तब रेलवे कदम बढ़ाएगा। परियोजना का व्यवहार्य अध्ययन भी राज्य सरकारों का ही जिम्मा होगा, जिसकी रेलवे द्वारा समीक्षा की जाएगी और राजस्व भी रेलवे ही रखेगा और केवल अधिशेष की स्थिति में ही राशि एसपीवी के हिस्से में आएगी। 
  • यह पूरी तरह एकतरफा है। इस लिहाज से यह ध्यान में रखना होगा कि हम शहरों में आवाजाही को बेहतर बनाने और सड़कों पर भीड़भाड़ घटाने के लिए एक नई शुरुआत कर रहे हैं। ऐसे में यह संबंधित राज्यों के साथ ही रेलवे और केंद्रीय शहरी विकास मंत्रालय का संयुक्त उपक्रम अधिक मालूम पड़ता है। इस मुहिम को आगे बढ़ाने में यह खासा उपयोगी होगा कि शहरों में मेट्रो रेल परियोजनाएं केंद्र और संबंधित राज्यों का संयुक्त उपक्रम हों, जिनमें नियुक्त निदेशक मंडल प्रभावी रूप से अपने दायित्वों का निर्वहन करे। 

इस निति के लिए क्या आवश्यक

  • अगर उपनगरीय रेलवे नेटवर्क को प्रोत्साहित करने वाली इस प्रस्तावित नीति को कारगर बनाना है तो केंद्रीय शहरी विकास मंत्रालय को भी सक्रिय रूप से भूमिका निभानी होगी।
  • साथ ही शहरी परिवहन भी ऐसा विषय है जो उचित रूप से शहरी विकास मंत्रालय को आवंटित हुआ है।
  • रेलवे के पास संचालन के लिए एक बड़ा फलक है और अगर अतीत के अनुभव की बात करें तो देश में कोलकाता (जिसका प्रारूप रेलवे ने ही तैयार किया और वही उसे चला रहा है) के रूप में मेट्रो रेल के पहले प्रयोग के बाद से शहरी परिवहन में उसकी भूमिका बहुत प्रभावी नहीं रही।
  • राष्ट्रीय शहरी परिवहन नीति में संशोधन भी काफी उपयोगी होगा, जिसमें अभी तक बाहर रहे उपनगरीय रेल सेवा के विषय को भी जोड़ा जाए, जिसमें शहरी मेट्रोपॉलिटन परिवहन प्राधिकरण की स्पष्टï रूप से परिभाषित भूमिका को स्थान दिया जाए, जिसमें उपनगरीय रेल तंत्र सहित शहर की सभी परिवहन सेवाओं को एकीकृत किया जाए और यदि संभव हो तो आंतरिक जल मार्गों जैसे अन्य विकल्पों पर भी विचार हो।

अगर नई पहल के मकसद को पूरा करना है तो इसका स्पष्टï रूप से उल्लेख किया जाना चाहिए। उत्तराखंड सरकार ने तकरीबन 10 से 12 वर्ष पहले रेलवे के पास कुछ राशि जमा कराई थी, जिससे नए रेल खंड का निर्माण हो ताकि दिल्ली और देहरादून के बीच यात्रा में लगने वाला समय कम हो सके। यह नए नवेले राज्य की वृद्घि को नई रफ्तार दे सकता था लेकिन वह परियोजना आज तक फलीभूत नहीं हो पाई। चेन्नई में रेलवे की पहल एमआरटीएस भी कोई बदलाव लाने में नाकाम रही है। अगर उसे शहर की मेट्रो से जोड़ दिया जाए तो शायद आवाजाही के लिहाज से नतीजे और बेहतर हो सकते हैं। 

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