कार्यपालिका आदेश-कानून पर कब हो अदालती दखल?

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भारत में उच्चतर न्यायपालिका में कार्यपालिका के फैसलों की संवैधानिक समीक्षा की सशक्त और सतर्क संस्कृति रही है। कुछ समय पहले ही उच्चतम न्यायालय ने सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम की धारा 66ए को यह कहते हुए खारिज कर दिया कि इससे स्वतंत्र अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के बाधित होने का खतरा है।

कोर्ट के इसे मामलो में निर्णय

हालांकि व्यावहारिक स्तर पर किसी कार्यकारी आदेश या विधायी निर्णय पर तत्काल स्थगन आदेश देने के मामले में भारतीय न्यायपालिका का रिकॉर्ड मिला-जुला रहा है। अगर नया कानून संसद से पारित होता है तो उसकी संवैधानिक वैधता को चुनौती दी जा सकती है। किसी कानून को लागू किए जाने पर तात्कालिक महत्त्व को देखते हुए रोक तो लगाई जा सकती है लेकिन उससे पहले अदालत उसके सभी गुण-दोषों पर विचार करती है। फिर भी, हकीकत तो यही है कि इस तरह का आदेश हासिल कर पाना खासा मुश्किल है।

सरकार द्वारा न्यायालय के निर्णयों से  बचाव के उपाय

ऐसे मामलों में अक्सर सरकार राष्ट्रीय सुरक्षा, निवेशकों के हित और जनहित जैसे शब्दों का सहारा लेकर जताती है कि  न्यायपालिका ने अमुक आदेश पर रोक लगाई तो उसके भयावह नतीजे देखने को मिल सकते हैं।

बहरहाल, अदालतें किसी कानून की संवैधानिक वैधता पर अपना फैसला दे सकती हैं और उसे असंवैधानिक भी ठहरा सकती हैं लेकिन किसी नए संशोधन की तुलना में पहले से लागू कानून पर ऐसा निर्णय दे पाना खासा मुश्किल होता है। इसी तरह ऐसे प्रकरण भी देखने को मिलते हैं कि अदालतों ने किसी मामले में स्थगन आदेश दिए बगैर अपने फैसले में उस कानून को निरस्त कर दिया हो। यह एक तरह से ऑपरेशन सफल होने के बावजूद मरीज की मौत हो जाने जैसी स्थिति होती है। मेनका गांधी के पासपोर्ट जब्ती मामले के उदाहरण से इसे समझा जा सकता है। 

संयुक्त राज्य  अमेरिका में हाल ही का मामला

ट्रंप के आदेश पर रोक लगाने वाले अमेरिकी डिस्ट्रिक्ट कोर्ट के न्यायाधीश जेम्स रॉबर्ट ने अपने फैसले के आखिरी पैराग्राफ में विस्तार से न्यायिक भूमिका को परिभाषित किया है। रॉबर्ट के शब्दों में, 'इस अदालत का मौलिक कार्य एक सजग प्रहरी की भूमिका निभाना है लेकिन यह हमारी संघीय सरकार के तीन एकसमान अंगों का भी हिस्सा है। अदालत का कार्य नीतिगत फैसले लेना या किसी खास नीति में निहित बुद्धिमत्ता का परीक्षण करना नहीं है। ये सरकार के विधायिका और कार्यपालिका अंगों के कार्य हैं। इसके साथ ही इस देश के नागरिक भी लोकतांत्रिक नियंत्रण के माध्यम से अपनी भूमिका निभाते हैं। न्यायपालिका और उसके एक अंग के तौर पर इस अदालत का काम केवल यह सुनिश्चित करना है कि अन्य दोनों अंगों के फैसले और कार्य देश के कानून और उससे भी बढ़कर संविधान की भावनाओं के अनुरूप हैं या नहीं। इस अदालत के सामने कार्यपालिका के एक आदेश पर अस्थायी रोक की अर्जी लगाई गई है। भले ही यह एक छोटा सवाल है लेकिन अदालत को इसका अहसास है कि उसके आदेश का कार्यपालिका और देश के नागरिकों पर कितना असर पड़ सकता है। अदालत को लगता है कि उसे अपनी संवैधानिक भूमिका निभाने के लिए इसमें दखल देना ही होगा।'

वाशिंगटन और मिनेसोटा राज्यों ने ट्रंप के उस आदेश को अदालत में चुनौती दी थी। ट्रंप ने राष्ट्रपति पद का चुनाव ही मुस्लिमों और शरणार्थियों पर रोक लगाने के वादे के सहारे जीता है। लेकिन उनका फैसला संवैधानिक प्रावधानों के अनुरूप नहीं होगा तो लोकप्रिय होते हुए भी अदालतें रोक लगा सकती हैं।
अब जरा भारत का रुख करते हैं।

भारत में हाल ही में

  • आधार प्रणाली के गठन का रास्ता साफ करने वाले कानून को संसद की मंजूरी दिलाने के लिए सरकार ने धन विधेयक के रूप में वर्गीकृत कर पेश किया ताकि राज्यसभा के पटल पर चर्चा से बचा जा सके।
  • दरअसल धन विधेयक के रूप में पेश किए गए विधेयकों पर राज्यसभा के पास कोई अधिकार नहीं होता है। किसी विधेयक को धन विधेयक घोषित करने का अधिकार लोकसभा अध्यक्ष के ही पास होता है। लेकिन उच्चतम न्यायालय में उसके इस विशेषाधिकार को चुनौती देने वाली एक याचिका विचाराधीन है। इस संवैधानिक मसले पर उच्चतम न्यायालय का फैसला आने में हो सकता है कि कुछ साल लग जाएं लेकिन तब तक आधार हम सभी के जीवन का अनिवार्य हिस्सा बन चुका होगा।
  • नोटबंदी पर भी यही कहानी है। केंद्र सरकार ने अचानक ही 85 फीसदी नकदी को चलन से बाहर कर दिया था। वह फैसला काफी कुछ अमेरिकी सरकार के इस फैसले की ही तरह है जिसमें कुछ देशों के नागरिकों के प्रवेश पर अचानक रोक लगा दी गई। नोटबंदी के ऐलान के अगले ही दिन देश भर की कई अदालतों में उसे चुनौती दी गई थी लेकिन किसी भी अदालत ने उस पर स्थगन आदेश नहीं दिया।
  • कार्यपालिका की तरफ से यह दलील दी गई थी कि आतंकवादियों को काले धन का इस्तेमाल करने से रोकने के लिए यह फैसला किया गया है लिहाजा, अदालतों से कुछ और की उम्मीद भी नहीं की जा सकती थी। आखिर में हमें अदालतों से बस ये दिशानिर्देश मिलेंगे कि सरकार और भारतीय रिजर्व बैंक को किस तरह से काम करना चाहिए। और जब ऐसा होगा तो अदालतें असल में कार्यपालिका के कार्यों पर अपनी बुद्धिमत्ता दिखा रही होंगी जबकि अमेरिकी न्यायाधीश रॉबर्ट ने इससे बचने को कहा है। 

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