संसद राजनीति नहीं, नीति का स्थान बने

#Amar_UJALA

Decline of Parliament:

आजकल हमारे देश की संसदीय चर्चाएं मुश्किल से ही प्रभावित करने वाली होती हैं। एक समय था, जब संसदीय बहसें राष्ट्रीय और महत्वपूर्ण मुद्दों पर केंद्रित होती थीं, लेकिन अब इनका विषय संकीर्ण दृष्टि वाले स्थानीय मुद्दे होते हैं। नाममात्र की उपस्थिति, स्तरहीन चर्चाओं, सत्र के दौरान शोर-शराबे के बीच कोई सांसद नीतिगत चर्चाओं में शायद ही कुछ योगदान दे पाने की स्थिति में होता होगा। इसलिए संसद सत्र को प्रभावी बनाने के लिए कुछ बातों पर ध्यान देना जरूरी है।

What needs to be done:

  • समय की उपयोगिता-जब संसद सत्र चल रहा होता है, तो इसके हर मिनट पर 2.5 लाख रुपये का खर्च आता है, पर इस कीमती समय का इस्तेमाल बहुत खराब तरीके से होता है।
  • वर्ष 1950 से 1960 के दौरान लोकसभा एक साल में औसतन 120 दिन चलती थी। इसकी तुलना में, बीते दशक में लोकसभा हर साल औसतन 70 दिन ही चली। ज्यादातर देशों में संसद का सत्र साल भर चलता है, खासकर ब्रिटेन और कनाडा में।
  •  भारतीय संसद के पास सत्र आहूत करने का अधिकार नहीं है, लेकिन साल में तय अवधि तक इसका संचालन सुनिश्चित किया ही जाना चाहिए।
  • संविधान की कार्यप्रणाली की समीक्षा के लिए गठित राष्ट्रीय आयोग ने अपनी सिफारिश में कहा था कि लोकसभा के लिए कम से कम 120 दिन और राज्यसभा के लिए 100 दिन की बैठक जरूर होनी चाहिए। संसद बैठक न करके एक तरह से कार्यकारिणी पर नियंत्रण रखने की अपनी मूल जिम्मेदारी के निर्वहन में लापरवाही बरत रही है।

जनभागीदारी बढ़ानी होगी-राजनीतिक नेतृत्व पर पुरुषों का एकछत्र राज है। लोकसभा और राज्यसभा में महिला सांसदों की संख्या कभी 12 फीसदी से ज्यादा नहीं हुई। संसद में महिलाओं को प्रतिनिधित्व देने के मामले में भारत दुनिया में नीचे से 20वें पायदान पर है। राजनीतिक दलों में राष्ट्रीय व क्षेत्रीय स्तर पर महिलाओं की भागीदारी, खासकर नेतृत्व के मोर्चे पर, कमतर बनी हुई है। देश में सिर्फ चार दलों की कमान महिलाओं के हाथ में है, जबकि पार्टी सदस्यता 10-12 फीसदी है। इसमें बड़े पैमाने पर बदलाव की शुरुआत महिला आरक्षण विधेयक (108वां संशोधन) के पास होने के बाद संसद में महिलाओं को 33 फीसदी आरक्षण देने से हो सकती है।

विधेयकों पर हो पर्याप्त चर्चा-संसद से पारित होने वाले कानूनों को आजकल कई बार जल्दबाजी में ड्राफ्ट किए जाने और अफरातफरी में पास किए जाने के लिए आलोचना होती है। वर्ष 2008 में 16 विधेयक 20 मिनट से भी कम समय की चर्चा में पारित कर दिए गए। प्राइवेट मेंबर विधेयकों का पास नहीं होना भी चिंता की बात है। संसद सत्र के दौरान हर शुक्रवार को सत्र का दूसरा हिस्सा प्राइवेट मेंबर विधेयक पर चर्चा के लिए तय है। आज तक सिर्फ 14 प्राइवेट मेंबर विधेयक पास हुए हैं। इनमें सबसे आखिरी 1970 में पास हुआ था। विधायिका के काम के तरीके और प्राथमिकताएं तय करने में हमें व्यवस्थित तरीका अपनाना होगा। संसदीय समिति को, अब जिसका चलन खत्म-सा ही हो गया है, फिर से जगह देनी होगी। पिछली सीटों पर बैठने वाले सांसदों को कानून बनाने की प्रक्रिया के दौरान ऐसी समितियों में आम जनता की तरफ से आवाज बुलंद करने का मौका मिलता है। जैसा कि कानून मंत्रालय ने भी यह मुद्दा उठाया है, हमें एक संविधान समिति बनाने की भी जरूरत है। संविधान संशोधन विधेयक को संसद में साधारण कानूनों की तरह पेश किए जाने के बजाय अच्छा होगा कि संविधान में बदलाव का ड्राफ्ट बनाने से पहले ही समिति इसकी समीक्षा कर ले।

संसद की चर्चाएं-किसी सांसद से जुड़ा मतदान का कोई रिकॉर्ड नहीं रखा जाता, इसलिए सांसदों के निजी प्रगतिशील या रूढ़िवादी स्वभाव का पता लगना मुश्किल है। नेतृत्व क्षमता की बात तो खैर जाने दें। इधर, दल-बदल निरोधक कानून भी ऐसे सांसदों की सदस्यता छीनकर दंडित करता है, जो पार्टी लाइन से हटकर मतदान करते हैं। दल-बदल कानून में बदलाव करनेे की जरूरत है। सांसदों को अंतरात्मा की आवाज का स्वतंत्र इस्तेमाल करने की आजादी होनी चाहिए और इस कानून का इस्तेमाल सिर्फ अपवाद स्थितियों में ही किया जाना चाहिए। यूनाइटेड किंगडम में सांसदों को मुक्त रूप से मतदान की आजादी है।

संसदीय शोध को बढ़ावा देना होगा-संसद की लाइब्रेरी ऐंड रेफरेंस, रिसर्च, डाक्यूमेंटेशन ऐंड इनफार्मेशन सर्विस (एलएआरआरडीआईएस) के लिए अनुमोदित कर्मचारियों की संख्या 231 है, लेकिन यहां सिर्फ 176 कर्मचारी काम कर रहे हैं। यह लोकसभा सचिवालय के कुल कर्मचारियों की संख्या का करीब आठ फीसदी है। कई देशों की संसद अपने सांसदों को शोध टीम की सेवाएं लेने के लिए फंड देती हैं। संसद की बौद्धिक संपदा में निवेश करना जरूरी है। इसलिए सांसदों को शोध स्टाफ रखने में मदद दिए जाने की जरूरत है। बजट स्क्रूटनी से जुड़ी प्रक्रिया को चुस्त-दुरुस्त बनाने के लिए भी हमें संस्थागत व्यवस्था बनाने की जरूरत है। अधिकांश सांसदों के पास स्टाफ या तो बहुत कम हैं या बिल्कुल ही नहीं है, जिस वजह से वे निजी तौर पर विशेषज्ञ सलाह हासिल कर पाने से वंचित रहते हैं। उनके सहायक स्टाफ और संसदीय क्षेत्र के लिए मिले फंड में मौलिक शोध के लिए कुछ नहीं बचता। अमेरिकी कांग्रेस बजट ऑफिस की तरह भारत में भी संसदीय बजट ऑफिस की जरूरत है, जो स्वतंत्र और निष्पक्ष रहते हुए किसी भी किस्म के खर्च के बिल या एस्टिमेट का तकनीकी और वस्तुपरक मूल्यांकन कर सकेगा। केन्या, दक्षिण अफ्रीका, मोरक्को, फिलीपींस, घाना और थाईलैंड जैसे देश इस पर अमल भी कर चुके हैं।

भारत के लोग कानून बनाने के ज्यादा कारगर व्यवस्था की अपेक्षा रखते हैं, जो जनप्रतिनिधियों को उनकी अधिकारिता का ज्यादा जिम्मेदारी से एहसास कराए। इसके साथ ही हमें किसी खास वर्ग की तरफदारी करने वाली राजनीति से भी सतर्क रहना चाहिए, जो राष्ट्र को नुकसान पहुंचा रही है। हमें याद रखना होगा कि संसद नीति बनाने का स्थान होना चाहिए, न कि राजनीति करने का।

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