पीएम नरेंद्र मोदी की जुलाई में इजरायल जाने की तैयारी है। यह किसी भारतीय पीएम का वहां पहला दौरा होगा। हालांकि, इस दौरान वह फिलिस्तीन नहीं जाएंगे। कूटनीतिक विशेषज्ञ मानते हैं कि यह कदम भारत की पूर्व में अपनाई गई नीति से ठीक उलट है। इससे पहले, यह परंपरा रही है कि भारतीय राजनेता एक साथ दोनों पश्चिम एशियाई मुल्कों का दौरा करते रहे हैं।
- भारत द्वारा इजरायल और फिलिस्तीन को लेकर अपनाई गई इस नई नीति को कूटनीतिक एक्सपर्ट डी हाइफनेशन (de-hyphenation) नाम देते हैं।
- अमेरिका के भारत और पाकिस्तान से रखे गए कूटनीतिक रिश्तों को इसके उदाहरण के तौर पर दिया जाता है। इसके तहत, पहले बुश और बाद में ओबामा शासन ने यह फैसला किया कि वह भारत और पाकिस्तान की आपसी तल्खी को नजरअंदाज करते हुए दोनों मुल्कों से रिश्तों को अलग-अलग तरजीह देगा।
- मोदी का यह दौरा ऐतिहासिक माना जा रहा है। यह भारत के इजरायल के साथ अपने रिश्तों को खुलेआम स्वीकार करने जैसा है। मोदी से पहले के प्रधानमंत्रियों ने इस रिश्ते को सहेजा तो सही, लेकिन वे उसका सार्वजनिक इजहार करने से परहेज करते नजर आए थे।
- हालांकि, मोदी सरकार ने इस मामले में संतुलन साधने की भी कोशिश की है। इसके तहत, भारत मोदी के इजरायल दौरे से पहले फिलिस्तीन के राष्ट्रपति महमूद अब्बास की अगवानी कर सकता है।
भारत और इजरायल दोनों देशों के बीच सहयोग को बढ़ाते हुए रमल्ला में टेक पार्क स्थापित करने की योजना है। जुलाई के दूसरे हफ्ते में हैमबर्ग में जी20 समिट से लौटते वक्त मोदी इजरायल जाएंगे। सरकार का मानना है कि इजरायल का दौरा दोनों देशों के बीच रिश्तों में खास गर्माहट लाएगा। इसी साल दोनों देशों के कूटनीतिक रिश्तों की सिल्वर जुबली भी है।
- इजरायल भी मानता है कि मोदी सरकार को उसके साथ रिश्तों के सार्वजनिक इजहार पर कोई गुरेज नहीं है। इजरायल के भारत में राजदूत डेनियल कार्मन ने कहा कि रिश्तों की 'हाई विजबिलिटी' की वजह से दोनों देशों के बीच कूटनीतिक गतिविधियों में तेजी आएगी। पूर्व के तौर-तरीकों को सबसे पहले तोड़ने का श्रेय गृहमंत्री राजनाथ सिंह को जाता है, जिन्होंने 2014 में फिलिस्तीन न जाकर अपना दौरा सिर्फ इजरायल तक सीमित रखा। हालांकि, बाद में 2015 में राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी और विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने दोनों ही मुल्कों का दौरा किया।
अभी तक क्या था रुख
- भारत ने यूएन ह्यूमन राइट्स काउंसिल में इजरायल के खिलाफ प्रस्ताव पर वोटिंग से खुद को अलग रखा था। यह प्रस्ताव गाजा में अंतरराष्ट्रीय कानूनों के उल्लंघन और वहां हुई मौतों के लिए जिम्मेदारी तय करने को लेकर थी। भारत का यह फैसला फिलिस्तीन के लिए किसी झटके से कम नहीं था। राजदूत अलहायजा ने भी भारत के फैसले को चौंकाने वाला बताया था। एक न्यूजपेपर ने उनके हवाले से लिखा था कि भारत का उसके 'पारंपरिक रुख' से विचलन इजरायल के साथ उसके गहराते सैन्य रिश्तों का नतीजा है। वहीं, भारत ने यह कहते हुए अपने फैसले का बचाव किया था कि प्रस्ताव में इंटरनैशनल क्रिमिनल कोर्ट का हवाला दिया गया है, जिसका भारत सदस्य नहीं है।