भारत का इराकी कुर्दिस्तान की राजधानी इरबिल में वाणिज्य दूतावास खोलना अस्थिरता से जूझ रहे पश्चिमी एशिया के साथ इसके कूटनीतिक संपर्क की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है. यह फैसला लंबे समय से अटका रहा. चिंता यह थी कि भारत के इरबिल में वाणिज्य दूतावास खोलने को इस अर्धस्वायत्त क्षेत्र की आजादी की महत्वाकांक्षाओं को उसकी कूटनीतिक मान्यता के तौर पर देखा जाएगा.
★नई दिल्ली का यह कदम न सिर्फ स्वागतयोग्य है बल्कि इससे यह भी पता चलता है कि उसे बदलती हकीकतों के साथ बदलने में ही भलाई है, यह अहसास हो चुका है.
★पहली हकीकत यह है कि इराकी कुर्दिस्तान आर्थिक रूप से एक समृद्ध क्षेत्र है जो लाखों भारतीयों को रोजगार और कई भारतीय कंपनियों को अवसर देता है.
★ दूसरा, भले ही तेल बेचने का इसका फैसला बगदाद में बैठी सरकार के साथ इसके टकराव का सबब बन रहा हो, लेकिन यह भी सच है कि इस इलाके के ऊर्जा संसाधन भारत के दीर्घकालिक हित में हैं.
★ तीसरी और आखिरी बात यह है कि इराकी कुर्दिस्तान इस्लामिक स्टेट के खिलाफ वैश्विक अभियान की बुनियाद है और इस्लामिक स्टेट की विदाई के लंबे समय के बाद भी वह अल कायदा जैसे दूसरे जिहादी संगठनों से निपटने की दिशा में भारत का अहम साझीदार रहेगा.
★इसलिए इरबिल में वाणिज्य दूतावास की मौजूदगी अहम है. यह भारत के लिए उन संस्थाओं और समूहों के साथ संवाद के दरवाजे खोलेगी जो इसके दीर्घकालिक आर्थिक और सुरक्षा हितों के लिहाज से अहम हैं. यह एक ऐसा पहलू है जो जातीय और क्षेत्रीय खाइयों के चलते अस्थिरता से जूझ रहे इराक की संप्रभुता का सम्मान करने की जिद्दी हठ से कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण है.
★इरबिल में भारत को अपनी कूटनीतिक मौजूदगी दर्ज करने में इतना समय लग गया, इससे एक बड़ी समस्या का भी संकेत मिलता है. यह बताता है कि अपने पश्चिम में बसे इस इलाके, जिससे उसके इतने बड़े आर्थिक और ऊर्जा हित जुड़े हैं, के साथ संवाद का पुल बनाए रखने के लिए भारत के पास संसाधनों की कितनी कमी है.
★भारत की खुफिया सेवाओं और सेना में पश्चिम एशिया की भाषाओं और इस इलाके की जानकारी रखने वाले विशेषज्ञों का टोटा है. यही हाल विदेश मंत्रालय का भी है. मोसुल में भारतीय कामगारों के अपहरण के बाद भारत अधर में लटक गया था. वह बगदाद और इस्तांबुल में बैठे अविश्वसनीय वार्ताकारों पर निर्भर था. बड़े संकटों के नुकसान भी बड़े होते हैं. इसलिए जरूरत इस बात की है कि संस्थाओं की क्षमता बढ़ाने की दिशा में व्यापक कार्यक्रम चलाकर ये कमियां दूर की जाएं.
★कई दशक तक भारत यह मानकर चलता रहा कि अमेरिका इस क्षेत्र में व्यवस्था बनाकर रखेगा. इसके चलते यहां एक के बाद एक तानाशाह पैदा हुए. अब यह मानकर भी चला नहीं जा सकता क्योंकि यह महाशक्ति अब ऊर्जा के लिए पश्चिम एशिया पर पहले से कहीं कम निर्भर है. भविष्य में चीन और भारत को यहां अपने हितों को सुरक्षित रखने के लिए और कोशिशें करने की जरूरत महसूस हो सकती है. उस अनिश्चित भविष्य के लिए तैयारियां शुरू करने का समय आ चुका