अस्थिरता से झूजता मध्य-पूर्व और वैश्विक राजनीति पर इसका प्रभाव

- कच्चे तेल की कीमत में अभूतपूर्व गिरावट से विश्वभर की आर्थिकी में उथल-पुथल हुई है। इसका असर खाड़ी क्षेत्र के तेल-समृद्ध देशों पर ज्यादा देखने को मिल रहा है। 
- तेल के अन्य बड़े निर्यातक देश जैसे कि रूस और वेनेजुएला की आर्थिकी भी इससे प्रभावित हुई है। सऊदी अरब जहां पर भारत से गए लगभग 20 लाख कामगार आजीविका कमाते हैं और जो विश्व का सबसे बड़ा तेल निर्यातक देश है।

- ताजा घटनाक्रम के चलते 2015 में सऊदी अरब की आर्थिक वृद्धि दर 7 फीसदी से गिरकर 3.4 फीसदी पर दर्ज की गई है। सऊदी अरब की कुल आबादी का आधा हिस्सा 25 साल से कम लोगों का है, लिहाजा कमजोर आर्थिक वृद्धि दर की वजह से सऊदी अरब में युवाओं की बेरोजगारी नागवार स्तर पर पहुंंचने के आसार हैं। उसके कुल बजट का 78 फीसदी हिस्सा तेल की कमाई से आता है। एक ओर बेकाबू मुद्रास्फीति और दूसरी तरफ लगातार घटते विदेशी मुद्रा के खजाने ने सऊदी अरब को मजबूर किया है कि वह कड़े आर्थिक निर्णय ले। अरब की खाड़ी के अन्य तेल संपन्न देशों को भी इसी तरह की चुनौतियां दरपेश हैं।

- गिरती अर्थव्यवस्था के बीच सऊदी अरब में गृह युद्ध बढ़ने के संकेत मिल रहे हैं। वहां के तेल समृद्ध इलाके की शिया बहुल जनसंख्या काफी नाराज है क्योंकि उनके बीच काफी प्रभाव रखने वाले मौलवी शेख बकर अल-निमर का सिर कलम कर दिया गया है।

=>"यमन में सैन्य हस्तक्षेप"

- सऊदी अरब अपने पड़ोसी देश यमन में पूर्व राष्ट्रपति को फिर से पदस्थापित करने की खातिर किए जा रहे सैन्य हस्तक्षेप में फंसा हुआ है। 
- हालांकि इस सैन्य अभियान में सऊदी अरब की सहायता अन्य सुन्नी देश जैसे कि मिस्र, जॉर्डन, कुवैत, बहरीन, यूएई और कतर कर रहे हैं। यमन के विद्रोही हूती-शियाओं पर लगातार हवाई बमबारी की जा रही है जिसकी वजह से 25 लाख यमनी नागरिकों को अपने घरों से भागना पड़ा है। 
- यमन की आबादी के लगभग 78 फीसदी हिस्से को भोजन, पानी और स्वास्थ्य संबंधी मदद की बेतरह जरूरत है। इस आग में घी डालने का काम अमेरिकन कंपनियों द्वारा तब किया गया जब उन्होंने 1.29 बिलियन डॉलर की कीमत वाले सटीक निशाने वाले बम सऊदी अरब को मुहैया करवाए।

- ईरान पर यह इल्जाम लगाया जा रहा है कि वह सऊदी अरब का विरोध करने वाले यमन के हूती-शिया समुदाय को भड़का रहा है। ईरान पहले ही इराक के शियाओं को अपने साथ जोड़ चुका है। इसके अतिरिक्त सीरिया, जहां पर शियाओं के प्रभुत्व वाली सरकार को उखाड़ने पर उतारू सुन्नी विद्रोही गुटों की मदद कतर, तुर्की और सऊदी अरब कर रहे हैं, वहां की सत्ता पर काबिज बशर अल असद की सहायता तो ईरान कर ही रहा है, साथ ही वह लेबनान के शिया हिजबुल्ला गुट की मदद भी करता आया है।

=>"इराक- सीरिया में अस्थिरता और आईएस का प्रादुर्भाव"

- इराक में सुन्नियों के प्रभुत्व वाली सद्दाम हुसैन की सरकार को उखाड़ने के लिए अमेरिकी सैन्य अभियान किया गया था। इससे वहां की बागडोर शियाओं के बोलबाले वाली नौरी अल-मलिकी की सरकार के हाथों में आ गई थी।
- मलिकी सरकार ने जानबूझकर सुन्नियों के प्रभाव को खत्म करना शुरू कर दिया, जिसके प्रतिक्रम में इराक में गृहयुद्ध शुरू हो गया और आगे चलकर आईएसआईएल का उद‍्भव हो गया। हालात तब और भी ज्यादा बिगड़ने लगे जब सीरिया में बशर अल असद की सरकार को पलटने वाले प्रयासों को अमेरिका ने अपना मूर्खतापूर्ण समर्थन देना शुरू कर दिया। भड़की हिंसा की वजह से सीरिया के लाखों नागरिकों को अपने घर-बार छोड़कर शरणार्थी बनना पड़ा।
- इस घटनाक्रम ने यूरोपीय यूनियन के बीचोंबीच स्थित देशों तक भी शरणार्थियों के आगमन को जन्म दिया है। इसी दौरान आईएसआईल एक घातक ताकत बनकर उभर गया, जिससे इस्लामिक जगत के देशों में उथल-पुथल मचने लगी।

- हो सकता है कि अमेरिका इस बात पर यकीन रखता हो कि यदि वह अगले एक-दो सालों तक इराक और सीरिया में काबिज आईएसआईएल को सैन्य तौर पर कुचलने में कामयाब हो जाता है तो इस क्षेत्र की मौजूदा परिस्थितियां खुद-ब-खुद बदल जाएंगी। लेकिन यूरोप और अन्य देशों में बसने वाले अरब/इस्लामिक मूल के ‘जिहादी जॉन’ जैसे स्वयंसेवक जिस तरह से आईएलआईएल के उद्देश्यों की पूर्ति के लिए उसके साथ जुड़ते जा रहे हैं, उससे उम्मीद है कि आने दिनों में वे लीबिया और अन्य देशों या फिर यहां तक कि खुद यूरोप के देशों के सुरक्षित ठिकानों पर भी अपने अड्डे बना लेंगे।

=>ईरान से प्रतिबंधों का हटना :-
- इन हालातों ने सऊदी अरब और इस्राइल जैसे पुराने विरोधियों के बीच अंदरखाते परस्पर सहयोग करने का काम किया है। ईरान पर लगे आर्थिक प्रतिबंधों की पहली कड़ी समाप्त होने के बाद वैसे तो अमेरिका की कोशिश होगी कि वह ईरान-सऊदी अरब की आपसी प्रतिद्वंद्विता में दोनों के साथ एक जैसा बर्ताव करेगा। 
- लेकिन इस्राइल-सऊदी अरब के बीच बना हालिया गठबंधन अमेरिका के इस इरादे पर अपना काफी प्रभाव अवश्य छोड़ेगा। ईरान और आईएसआईएल से मिलने वाली संभावित चुनौतियों के मद्देनजर सऊदी अरब इस ओर प्रयासरत है कि वह इस्लामिक जगत के 34 सुन्नी देशों का एक गठबंधन बना पाए।

- ईरान पर लगे परमाणु प्रतिबंधों के हटने के बाद यह समूचा इलाका विश्व के ध्यान का विषय बन गया है। इस सिलसिले में चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग सऊदी अरब, मिस्र और ईरान का दौरा कर आए हैं। कतर, जहां पर अमेरिका की मध्य एशिया सैन्य कमांड स्थित है, वहां के सुल्तान सीरिया समस्या पर मंत्रणा के लिए रूस की यात्रा पर गए थे। ईरान के साथ अमेरिका के संबंधों को सामान्य दर्शाने की दिशा में अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा प्रतिबद्ध हैं ताकि इसे वे अपनी एक उपलब्धि गिना सकें, हालांकि इसके चलते सऊदी अरब और यूएई में असहजता बढ़ गई है।

- मिस्र, सऊदी अरब, ईरान, इस्राइल और मध्य-पूर्व की मुख्य शक्तियों के साथ अपने संबंधों को और प्रगाढ़ करने के प्रयासों के साथ-साथ भारत को इस ओर तैयारी करनी होगी कि किसी मुल्क में कोई आपातस्थिति पैदा होने पर वहां रह रहे अपने नागरिकों को कैसे सुरक्षित रखना या निकालना है।

- गिरती तेल कीमतों के चलते अरब-खाड़ी सहयोग परिषद के देशों में आगे इस बात की अपेक्षा कम होगी कि वे भारत से और ज्यादा कामगारों को भर्ती करेंगे। लिहाजा अाप्रवासी भारतीयों द्वारा कमाकर भेजी जाने वाली विदेशी मुद्रा में अब पहले जैसी बढ़ोतरी नहीं होगी। बेशक ईरान पर लगे प्रतिबंधों के हटने के चलते उसकी कमाई में बढ़ोतरी होगी परंतु इसका आरंभिक लाभ इस देश से अपने संबंध बनाने में पहल करने वाले चीन और यूरोपीय ताकतों को ज्यादा होगा।

- ईरान के साथ हमारे संबंधों को मजबूत बनाने के वास्ते न केवल दोनों के बीच एक साझी समस्या के रूप में अफगानिस्तान के तालिबान अतिवादी हैं बल्कि अफगान और मध्य एशियाई क्षेत्रों तक पहुंच करने के लिए भी भारत को उसका साथ चाहिए। 
- यह भारत के हित में होगा यदि प्रधानमंत्री सऊदी अरब, ईरान और ओमान की यात्रा पर जाएं, जहां की सरकारें मौजूदा समय तक हमारे साथ सदा दोस्ताना रही हैं।

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