विकासशील देशों का बृहत संघ बनाकर सार्क के विकल्प तलाशे भारत

- सार्क का उद्देश्य है कि क्षेत्र के देशों के बीच आपसी व्यापार एवं समन्वय को बढ़ाकर एक-दूसरे की समृद्धि एवं खुशहाली में सहयोग हो। परन्तु कश्मीर विवाद के कारण पूरी व्यवस्था भटक जा रही है।
सार्क देश दो बड़े गुटों के बीच लटके हुए हैं। एक तरफ पाकिस्तान-चीन का गठबन्धन है तो दूसरी तरफ भारत।

- भौगोलिक दृष्टि से पाकिस्तान की तुलना में भारत भारी पड़ता है। पाकिस्तान के अतिरिक्त हमारी सरहद नेपाल, भूटान, बांग्लादेश से जुड़ी है। श्रीलंका एवं मालदीव समुद्री मार्ग से हमारे ज्यादा नजदीक हैं। हमारे सामने चुनौती है कि अपनी भौगोलिक स्थिति को भुनाते हुए सार्क देशों को अपने से जोड़ लें जिससे इस क्षेत्र का विकास कश्मीर विवाद से ग्रास न कर लिया जाये। इस दिशा में हमें पाकिस्तान को छोड़कर शेष देशों के साथ मुक्त व्यापार समझौता करना चाहिये।

1.एक संभावना है कि हम बंगाल की खाड़ी को मुक्त व्यापार क्षेत्र बनायें। इस मुक्त व्यापार क्षेत्र में नेपाल, भूटान, बांग्लादेश, मालदीव एवं श्रीलंका को जोड़ा जा सकता हैम्यांमार, लाओस तथा दूसरे पूर्वी एशिया के देशों को भी जोड़ा जा सकता है

2. दूसरी संभावना है कि हम हिन्द महासागर मुक्त व्यापार क्षेत्र बनायें। इसमें ऊपर बताये देशों के साथ अफगानिस्तान तथा ईरान को जोड़ा जा सकता है।

- हालांकि भारत सरकार द्वारा बीबीआईएन यानी भूटान, बांग्लादेश, इंडिया तथा नेपाल के बीच मुक्त व्यापार क्षेत्र बनाने के प्रयास किये जा रहे हैं। ये प्रयास ही दिशा में हैं परन्तु इनमें भूटान तथा नेपाल छोटे देश हैं। व्यावहारिक स्तर पर यह भारत एवं बांग्लादेश के बीच मुक्त व्यापार क्षेत्र रह जाता है।


- इससे बहुत आगे सोचने की जरूरत है। भारत को सभी विकासशील देशों के बीच मुक्त व्यापार क्षेत्र बनाने की पहल करनी चाहिए। यानी भौगोलिक आधार के स्थान पर आर्थिक आधार को पकड़ना चाहिये। कारण कि सभी विकासशील देशों के आर्थिक हितों का विकसित देशों से दो विषयों पर सीधा गतिरोध है।

- पहला विषय पेटेंट कानून का है। आज विश्व के अधिकतर पेटेंट विकसित देश की कम्पनियों के पास हैं। उनके द्वारा पेटेंट कानूनों की आड़ में तमाम माल को महंगा बेचा जा रहा है जैसे जीवनदायिनी दवाओं को। विकासशील देशों के हित में है कि पेटेंट कानून को ढीला कर दिया जाये। डब्ल्यूटीओ की दोहा वार्ता में इस मन्तव्य को स्वीकार किया गया था परन्तु बाद में इसे निरस्त कर दिया गया। इसके विपरीत विकसित देशों के हित में है कि इसे और सख्त बनाया जाये, जिससे वे अपने माल को और महंगा बेच सकें।

2. विकसित एवं विकासशील देशों के बीच दूसरा गतिरोध कृषि उत्पादों के व्यापार का है। वर्ष 1995 में डब्ल्यूटीओ संधि पर हस्ताक्षर होते समय विकसित देशों ने आश्वासन दिया था कि कृषि उत्पादों पर 10 वर्षों के भीतर समझौता कर लिया जायेगा लेकिन इस मुद्दे पर तनिक भी प्रगति नहीं हुई।
विकासशील देशों के लिये यह महत्वपूर्ण मुद्दा है। हमारे कृषि उत्पादों के लिये विकसित देशों के बाजारों को खोल दिया जाये तो हमारे करोड़ों किसान लाभान्वित होंगे। लेकिन विकसित देश इसमें रोड़ा अटकाये हुए हैं, चूंकि वे अपनी खाद्य सुरक्षा बनाये रखने के लिये अपनी जरूरत के कृषि पदार्थों का उत्पादन स्वयं करना चाहते हैं। इस प्रकार डब्ल्यूटीओ का वर्तमान ढांचा विकासशील देशों के हितों के विपरीत है। यही कारण है कि 20 वर्षों में वैश्विक आर्थिक समानता स्थापित करने में प्रगति नहीं हुई है। आज भी विकसित देशों के 25 प्रतिशत लोगों के पास विश्व की 75 प्रतिशत आय है। वैश्विक आय के इस अन्यायपूर्ण बंटवारे को डब्ल्यूटीओ की परिधि से दूर नहीं किया जा सकता।


- विश्व अर्थव्यवस्था की मूलभूत विसंगति को दूर करने के लिये जरूरी है कि सभी विकासशील देश एकजुट होकर विकसित देशों का सामना करें। अतः हमें ‘विकासशील देश मुक्त व्यापार क्षेत्र’ बनाने का प्रयास करना चाहिये।

- इस दिशा में वर्तमान गुटनिरपेक्ष आन्दोलन सहायक हो सकता है। इस आन्दोलन की शुरुआत पचास के दशक में हुई थी। तब दुनिया के दो केन्द्र अमेरिका और रूस थे। भारत के पंडित नेहरू, मिस्र के नासिर तथा यूगोस्लाविया के मार्शल टीटो ने विकासशील देशों के लिये इन दोनों गुटों के बीच रास्ता बनाने के लिये इस आन्दोलन का गठन किया था।

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