उत्तराखंड के जंगलों में भीषण आग : आग के कारण और बचाव के उपाय

  • उत्तराखंड के जंगलों में हर साल लगने वाली आग एक बार फिर ख़बरों में है. लंबे समय से सूखे की स्थिति के चलते इस बार इसका स्वरूप बीते सालों के मुकाबले कहीं भयंकर है
  •  अब तक 13 जिलों में फैला 2800 हेक्टेयर से भी ज्यादा जंगल तबाह हो चुका है. पौड़ी, चमोली, नैनीताल और अल्मोड़ा में हालात ज्यादा खराब हैं. अब तक वनाग्नि से अलग-अलग जगहों पर छह लोगों की मौत हो चुकी है. कई लोग घायल हैं
  •  उत्तराखंड के राज्यपाल केके पाल के मुताबिक इस समस्या से निपटने के लिए व्यापक प्रबंध किए जा रहे हैं. आग बुझाने के काम में लगे लोगों की संख्या को दोगुना करके छह हजार कर दिया गया है. उनकी मदद करने के लिए राष्ट्रीय आपदा राहत बल की तीन टीमें मौके भेजी गई हैं. आग बुझाने के लिए कहीं-कहीं भारत-तिब्बत सीमा पुलिस और सेना की भी मदद ली जा रही है।

★यह हाल तब है जब राज्य की राजधानी देहरादून में देश का वन अनुसंधान संस्थान है. देहरादून में स्थित फारेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया ने देश भर में लगने वाली आग की सूचना पहुंचाने के लिए सैटेलाइट आधारित सूचना देने की एक प्रणाली विकसित की है.

★ इसकी मदद से जंगल में कहीं भी आग लगने के चार घंटे के भीतर अपने आप ही उस इलाके में तैनात डीएफओ के मोबाइल पर इसकी सूचना आ जाती है. यानी आग लगने के कुछ समय बाद ही उसे काबू किया जा सकता है. 

★लेकिन अभी जो स्थिति है उससे साफ पता चल रहा है कि इस व्यवस्था पर ठीक से अमल नहीं हो रहा. राज्य के वन विभाग के पास वित्तीय और मानव संसाधनों की कमी की खबरें भी जब तब छपती ही रहती हैं.

‪#‎कारण :-

  1. वन विभाग के अनुसार, ज्यादातर मामलों में आग का संबंध कुदरत के बजाय इंसानों से होता है. उसके मुताबिक ग्रामीण अपने खेतों या पास के वनों में आग लगाते हैं ताकि बरसात के बाद पशुओं के लिए अच्छी घास उगे. 
  2.  उधर, ग्रामीण कहते हैं कि हर साल होने वाले फर्जी वृक्षारोपणों की असफलता को छिपाने के लिए वनकर्मी खुद भी जंगलों में आग लगाते हैं.
  3. शीशम और सागौन जैसे बहुमूल्य पेड़ काटने के लिए टिंबर माफिया भी इस तरह की घटनाओं को अंजाम देते हैं.
  4. कई बार इसके पीछे शिकारियों का भी हाथ बताया जाता है क्योंकि जब जंगल में आग लगती है तो जीव-जंतु बाहर आ जाते हैं और उनका शिकार करना आसान हो जाता है.
  5. उत्तराखंड में करीब 16 फीसदी भूमि पर अकेले चीड़ के जंगल हैं. मार्च से लेकर जून का समय इन पेड़ों की नुकीली पत्तियां गिरने का भी होता है. इन्हें पिरुल कहा जाता है. davanal

भारतीय वन संस्थान के एक अध्ययन के अनुसार एक हेक्टेयर क्षेत्रफल में फैले चीड़ के जंगल से साल भर में छह टन तक पिरुल गिरता है. उत्तराखंड में अधिकांश सड़कें जंगलों से गुजरती हैं. सड़कों पर गिरे पिरुल पर गाड़ियों के चलने से सड़क के किनारे पिरुल का बुरादा जमा हो जाता है जिसमें मौजूद तेल की मात्रा इसे किसी बारूद सरीखा बना देती है. 

 माचिस की अधबुझी तीली या किसी यात्री की फेंकी गई बीड़ी-सिगरेट से यह बुरादा कई बार आग पकड़ लेता है. चीड़ के जंगलों में बहुत कम नमी होती है इसलिए भी इन जंगलों में आग जल्दी लगती है और तेजी से फैलती है

6.  जंगल से टूटता रिश्ता :-

  • व्यावहारिक वन कानूनों ने वनोपज पर स्थानीय निवासियों का अधिकार खत्म कर दिया है। इस वजह से ग्रामीणों और वनों के बीच की दूरी बढ़ी है।
  • यहीं इस समस्या का नाता पारंपरिक ज्ञान की उपेक्षा से भी जुड़ता है. दरअसल एक समय उत्तराखंड में चीड़ का इतना ज्यादा फैलाव नहीं था जितना आज है. तब इस इलाके में देवदार, बांज, बुरांश और काफल जैसे पेड़ों की बहुतायत थी. 
  • इमारती लकड़ी के लिए अंग्रेजों ने इन पेड़ों को जमकर काटा. इसके बाद खाली हुए इलाकों में चीड़ का फैलाव शुरू हुआ.
  • अंग्रेजों ने भी इस पेड़ को बढ़ावा दिया क्योंकि इसमें पाये जाने वाले रेजिन का इस्तेमाल कई उद्योगों में होता था. विकसित होने के बाद चीड़ का जंगल कुदरती रूप से जल्दी फैलने की क्षमता भी रखता है.
  •  बांज और बुरांस जैसे दूसरे स्थानीय पेड़ इस समाज के बहुत काम के थे. उनकी पत्तियां जानवरों के चारे की जरूरत पूरी करती थीं. उनकी जड़ों में पानी को रोकने और नतीजतन स्थानीय जलस्रोतों को साल भर चलाए रखने का गुण था. लेकिन चीड़ में ऐसा कुछ भी नहीं था. बल्कि जमीन पर गिरी इसकी पत्तियां घास तक को पनपने नहीं देती थीं.
  • तो लोगों में यह सोच आना स्वाभाविक था कि इनमें आग ही लगा दी जाए ताकि बरसात के मौसम में थोड़े समय के लिए ही सही, घास के लिए जगह खाली हो जाए और जानवरों के लिए चारे का इंतजाम हो जाए. इस स्थिति के साथ सख्त वन्य कानूनों का भी मेल हुआ तो स्थानीय लोगों के लिए जंगल पराए होते चले गए. पहले वे इन्हें अपना समझकर खुद इन्हें बचाते थे, लेकिन अब वे इन्हें सरकारी समझते हैं.

आग के प्रभाव

  • आग से उत्तर भारत के तापमान में 0.2 डिग्री सेल्सियस की बढ़ोतरी हुई है।
  • जंगल की आग की रफ्तार को काबू नहीं किया गया, तो पहाड़ी जनजीवन पर इसका विपरीत असर पड़ेगा
  • कम ऊंचाई वाले गंगोत्री, नेवला, चीपा, मिलम, सुंदरढूंगा जैसे ग्लेशियरों पर ब्लैक कार्बन की हल्की परत बनने लगी है। इससे इनके पिगलने का खतरा बन रहा है
  • वन्यजीवों पर आफत :उत्तराखंड के जंगलों में लगी आग वन्यजीवों के लिए बड़ा खतरा बना है। सैकड़ों प्रजाति के पक्षियों के अस्तित्व पर संकट बढ़ गया है। 
  • आग की वजह से जंगलों की अधिकांश वनस्पति जलकर नष्ट हो गई है। यह वनस्पति जमीन को आपस में जकड़े या बांधे रखने का काम करती है। इससे  नई आपदा का खतरा बढ़ गया है। आग से नंगी हुई पहाड़ियों के जून-जुलाई में बारिश से भारी भूस्खलन की चपेट में आने का खतरा कई गुना बढ़ गया है।

आग  समझदारी से लगाई जाए तो फायदे भी (कंट्रोल्ड फायर) :-

- सीमित तरीके से लगाई गई आग के फायदे भी हैं. तब वह बड़ी दावाग्नि को रोक सकती है और जैव विविधता खत्म करने के बजाय उसे बढ़ा भी सकती है. ऐसी आग को कंट्रोल्ड फायर कहा जाता है. बताते हैं कि पहले यह वन विभाग की कार्ययोजना का हिस्सा हुआ करती थी. 

- जनवरी के महीने जंगलों में कंट्रोल फायर लाइनें बनाई जाती थीं. इसमें एक निश्चित क्षेत्र को आग से जला दिया जाता था. इससे होता यह था कि कहीं भी आग लगे और वह फैलती हुई इस क्षेत्र तक पहुंचे तो उसे भड़कने के लिए कुछ नहीं मिलता था और वह वहीं थम जाती थी.

 

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