एलपीजी के प्रति सिलेंडर पर हर महीने चार रुपए की बढ़ोतरी

#Jansatta

लगभग सवा दो साल पहले प्रधानमंत्री ने समर्थ परिवारों से एलपीजी पर मिलने वाली सबसिडी स्वेच्छा से छोड़ने की अपील की थी। तब उसका मकसद यही बताया गया कि इससे गरीब परिवारों को रसोई गैस मुहैया कराने में मदद मिलेगी। उस अपील के बाद बड़ी तादाद में लोगों ने एलपीजी सबसिडी छोड़ी भी थी और सरकार ने इससे बड़ी राशि की बचत होने का दावा किया था।

  • कैग (नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक) ने सरकार के उस दावे को कठघरे में खड़ा किया था। उस बचत से कितने गरीब परिवारों को रसोई गैस मुहैया कराई गई, यह तो अभी तक साफ नहीं है, लेकिन सरकार के ताजा फैसले ने भोजन पकाने के लिए एलपीजी पर निर्भर तमाम लोगों के लिए सबसिडी खत्म करने की शुरुआत कर दी है।
  • सरकार ने तेल कंपनियों को निर्देश जारी कर कहा है कि वे एलपीजी के प्रति सिलेंडर पर हर महीने चार रुपए की बढ़ोतरी करें।
  • यह बढ़ोतरी तब तक जारी रहेगी, जब तक इस मद में सबसिडी पूरी तरह खत्म नहीं हो जाए।
  • विपक्षी दलों ने एलपीजी की कीमतों में इस तरह की बढ़ोतरी करने का तीखा विरोध किया है और इस मुद्दे पर संसद में भारी हंगामा भी हुआ। लेकिन सरकार अपने फैसले से डिगते हुए दिखाई नहीं पड़ रही है।

फिलहाल एक आम उपभोक्ता को साल भर में एलपीजी के बारह सिलेंडरों पर सबसिडी मिलती है। इससे ज्यादा लेने पर उन्हें सबसिडी रहित दर चुकानी पड़ती है। पिछले कुछ सालों के दौरान भोजन पकाने के लिए लकड़ी या कोयला जैसे पारंपरिक जलावन का उपयोग तेजी से घटा है और ग्रामीण इलाकों में भी लोग एलपीजी पर निर्भर हुए हैं। इनमें ऐसे लोगों की बहुत बड़ी तादाद है, जिन्हें मिलने वाली रियायतें या सुविधाएं सरकारों की घोषित जिम्मेदारी रही है। हाल के वर्षों में सरकार ने जनकल्याण की नीति के तहत चल रही योजनाओं और कार्यक्रमों से अपना हाथ पीछे खींचना शुरू कर दिया है। इसके पीछे दलील:

  • सबसिडी में दी जाने वाली राशि को देश के विकास के अन्य कामों में लगाया जा सकता है।

सवाल है कि अगर जरूरतमंद और कमजोर तबकों को मिलने वाली सबसिडी से देश का विकास बाधित होता है तो किस दलील पर बड़ी कॉरपोरेट और निजी कंपनियों के भारी भरकम ऋण माफ कर दिए जाते हैं या फिर उन्हें करों में छूट दे दी जाती है!

Concluding mark

लोकतांत्रिक पद्धति को अपनाने वाले किसी भी देश में सरकारों के लिए जनकल्याण की नीतियां और सिद्धांत सबसे ऊपर होते हैं। लेकिन सामाजिक-आर्थिक रूप से वंचित समुदायों के बजाय अगर कोई सरकार समृद्ध और सक्षम तबकों का खयाल रखना जरूरी समझती है तो वह लोकतंत्र में जनकल्याण की नई परिभाषा गढ़ रही है। यह छिपा तथ्य नहीं है कि बड़े कॉरपोरेटों और निजी कंपनियों को हर साल कर्ज माफी या फिर करों में भारी छूट दी जाती है। विकास का यह कैसा सिद्धांत है कि जो तबका आर्थिक रूप से समृद्ध है और कर्ज या कर चुका सकता है, उसके लिए विशेष सुविधाओं के प्रावधान किए जाते हैं और जरूरतमंद वर्गों से न्यूनतम राहतें भी छीनी जा रही हैं! विकास की इस राह में उस गरीब आबादी की क्या जगह है जो रसोई गैस या अनाज जैसे मदों में अब तक सबसिडी जैसी छोटी-मोटी रिआयतें पाती रही है

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