शिक्षा, रोजगार और समाज

#Editorial_Jansatta

Challenge of Job

इसमें तनिक संशय नहीं कि किसी भी देश के युवा के जीवन का सर्वप्रमुख और सर्वप्रथम प्रश्न, उसका जीविकोपार्जन होता है। इसमें अति धनाढ्य वर्ग या उच्च मध्यम वर्ग के युवाओं को अपवादस्वरूप देखा जा सकता है। पर ऐसे युवाओं की संख्या बहुत कम है। इसलिए यह कहा जा सकता है कि देश के युवाओं के सामने रोजगार प्राप्त करना सबसे बड़ी चुनौती है।

One important question to be answered:

Ø  एक और महत्त्वपूर्ण प्रश्न यह भी है कि क्या आज की शिक्षा व्यवस्था, युवाओं की प्रतिभाओं को पहचानने में सक्षम है या फिर किताबी ज्ञान पर आधारित डिग्रियों की लंबी फेहरिस्त के बीच देश के युवाओं में उस स्तर की प्रतिभा का अभाव है जितनी संबंधित नौकरियों के लिए चाहिए?

Ø  खासकर सूचना प्रौद्योगिकी और विज्ञान पारिस्थितिक तंत्र में रोजगार ढूंढ़ते युवाओं में प्रतिभाओं की भारी कमी है।

Ø   हाल ही में जारी एक आंकड़े में दावा किया गया है कि इस देश के 95 प्रतिशत इंजीनियर सॉफ्टवेयर डेवलपमेंट के क्षेत्र में नौकरी करने के लायक नहीं है। जब इंजीनियरिंग की डिग्री या डिप्लोमाधारी युवाओं का यह हाल है, तो कल्पना की जा सकती है कि जो युवा शिक्षा भी पूरी नहीं कर पाए या जिनके पास तकनीकी डिग्रियां नहीं हैं, उनकी क्या दशा है।

 

Present Education and Jobs:

दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य तो यह है कि वर्तमान शिक्षा व्यवस्था ने युवाओं को भ्रमित कर दिया और संपूर्ण समाज ऐसे ‘मिथकों’ के ढेर पर बैठ गया, जिसे दूर करना सहज नहीं है।

Ø  पहला मिथक यह कि शिक्षा के मायने डिग्रियां हासिल करना है।

Ø   दूसरा मिथक यह है कि विज्ञान और उसकी विभिन्न शाखाओं से जुड़े विषय, प्रतिभा के उचित मानक हैं।

Ø  तीसरा मिथक यह है कि साहित्य, कला और सामाजिक विज्ञान जैसे विषय प्रतिभाविहीन विद्यार्थियों का चुनाव होते हैं।

Ø  चौथा मिथक यह है कि सफलता और आर्थिक स्वावलंबन के लिए प्रबंधन डिग्री जैसी उच्चस्तरीय शिक्षा की आवश्यकता है।

ऐसे अनेक मिथकों के मध्य, युवाओं की आकांक्षाएं स्वयं ही भ्रमित होकर, आगे बढ़ने का साहस नहीं कर पातीं। अगर वाकई उच्चस्तरीय शिक्षा के मानक सही साबित होते तो बेरोजगारों की एक लंबी फौज नहीं दिखाई देती।

 

Focus of present education:

Ø  मौजूदा शिक्षा व्यवस्था में समझने के बजाय रटाया जाता है। युवाओं को हुनर सिखाने और उनकी सोच बदलने की कोशिश नहीं की जाती।

Ø  सच तो यह है कि इस देश के अधिकतर युवा ऐसी डिग्रियों के साथ बाहर निकल रहे हैं जो उन्हें कुछ नहीं सिखातीं।

Ø   ऐसे दौर में इस शिक्षा का कोई मतलब ही नहीं है, जब नवाचार का महत्त्व बढ़ने के साथ-साथ तकनीक की गति भी बढ़ती जा रही है। ऐसे में शिक्षा की कमजोर बुनियाद वाले लाखों छात्रों का भविष्य स्वाभाविक तौर पर उज्ज्वल नहीं हो सकता।

What to do?

 युवा बल को युवा शक्ति में रूपांतरित करने के लिए सबसे पहले युवा को अपने स्वभाव को पहचानने का प्रशिक्षण देना होगा। स्वभाव के अनुरूप कार्य का चयन करने से पूरी क्षमता व संभावना का विकास हो सकता है। भीड़ का हिस्सा बन, अपनी आजीविका का चयन करने के स्थान पर अपने स्वाभावानुरूप शिक्षा व तदनुरूप व्यवसाय का चयन आत्मसंतुष्टि का भाव देगा। ‘स्वभाव से स्वावलंबन’ युवा आकांक्षाओं की पूर्ति का मूलमंत्र सिद्ध हो सकता है। वह कार्य या विषय जो रुचिकर हो, उसकी राह में आई चुनौतियां भी दुष्कर प्रतीत नहीं होतीं। सच तो यह है कि वर्तमान परिस्थितियों में, युवा आबादी को उपयोगी कौशल में प्रशिक्षित करना, फिर इनके लिए पर्याप्त रोजगार उपलब्ध कराना तथा उद्योग, कृषि व सेवा क्षेत्र में संतुलन स्थापित करना अपने आप में बड़ा ही दुष्कर कार्य है। उच्च शिक्षा में असंतुलित वृद्धि के कारण एक ओर हम बड़ी संख्या में तैयार हो रहे इंजीनियरों को उचित रोजगार नहीं दे पा रहे हैं, वहीं दूसरी ओर अनेक आवश्यक कार्यों के लिए प्रशिक्षित व्यक्ति उपलब्ध नहीं हैं। एक आकलन के अनुसार, स्नातक स्तर पर कला क्षेत्र में घटते प्रवेश के कारण आने वाले दशकों में पूरे विश्व में भाषा शिक्षकों की कमी होगी। तकनीकी क्षेत्र के बढ़ते प्रभाव के कारण मूलभूत विज्ञान जैसे भौतिकी, रसायन तथा जीव विज्ञान के क्षेत्र में अनुसंधान करने के लिए पर्याप्त संख्या में वैज्ञानिक नहीं मिल रहे हैं।

 

इन वास्तविकताओं के साथ, एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न यहां यह उत्पन्न होता है कि वे जो चित्रकला, भाषा या संगीत में रुचि रखते हैं, जिनके सपनों के ताने-बाने इनके आसपास बुने जाते हैं, उनके सामने जीविकोपार्जन का संकट, उन्हें उन पंक्तियों में सम्मिलित होने के लिए विवश कर देता है जहां पहले ही लंबी कतारें हैं। उच्च शिक्षा के क्षेत्र में सामाजिक विभेद एक गंभीर चुनौती बन कर उभरी है। शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों के अमीर-गरीब छात्रों के बीच बढ़ती इस खाई को यूनेस्को ने चिंताजनक करार दिया है। ‘ग्लोबल एजुकेशन मॉनिटरिंग रिपोर्ट’ का हवाला देते हुए यूनेस्को ने सभी देशों की सरकारों से इस अंतराल को कम करने की अपील की है। यूनेस्को ने एक सुझाव में कहा है कि सरकारी स्तर पर एक ऐसी एजेंसी हो जो छात्र सहायता से संबंधित सभी तरह की जरूरतों के बीच तालमेल स्थापित कर सके। इन जरूरतों में शिक्षा ऋण, अनुदान और छात्रवृत्ति आदि हो सकते हैं।  ‘ग्लोबल एजुकेशन मॉनिटरिंग’ का मानना है कि छात्रों की बढ़ती संख्या के लिहाज से उनको आर्थिक सहायता पहुंचाना सहज नहीं है, पर नीतिगत व्यवस्था के जरिए सरकार इन चुनौतियों से पार पा सकती है। बैंक व अन्य वित्तीय संस्थानों से छात्रों को मिले ऋण की मासिक किस्त छात्रों की मासिक आय के पंद्रह प्रतिशत से कम होनी चाहिए। ऐसा होने पर छात्र न केवल पाठ्यक्रम पूरा कर पाएंगे बल्कि ऋणों की अदायगी करना भी उनके लिए आसान हो जाएगा। इन नीतिगत विषयों पर चर्चा और उनके अमलीकरण के मध्य एक अंतराल और भी है और वह है स्वयं की पात्रता सिद्ध करना।

 

भारतीय सामाजिक परिवेश में यह दलित समुदाय से संबंधित छात्रों और लड़कियों के लिए बेहद ही चुनौती भरा लक्ष्य है। क्योंकि असमानता की जड़ें आज भी इतनी गहरी हैं कि यह सहज स्वीकार ही नहीं किया जाता कि दलित युवा और छात्राएं, प्रतिभाशाली हो सकते हैं। लैंगिक असमानता और जातिगत भेदभाव से लड़ता युवा वर्ग, अपनी आकांक्षाओं को कैसे पूरा करे, यह प्रश्न सहज सुलझता प्रतीत नहीं होता। इन चुनौतियों से जूझने के साथ देश का युवा, अपने ही देश में हिंदी भाषा की उच्च शिक्षा में अवहेलना के कारण, न केवल अपना आत्मविश्वास खो रहा है बल्कि अपनी आकांक्षाओं की राह में यह उसके लिए सबसे बड़ी चुनौती सिद्ध हो रही है। महात्मा गांधी ने कहा था कि ‘यदि हिंदी अंग्रेजी का स्थान ले तो कम से कम मुझे तो अच्छा ही लगेगा। अंग्रेजी अंतरराष्ट्रीय भाषा है लेकिन वह राष्ट्रभाषा नहीं हो सकती…।’ तकनीकी पुस्तकों से लेकर राजनीति विज्ञान और समाजशास्त्र जैसे तमाम विषयों की पुस्तकों की हिंदी भाषा में अनुपलब्धता के चलते, देश के एक बड़े हिस्से को, अपने विषय को समझने में कठिनाई का सामना करना पड़ता है, वहीं उनकी रचनात्मकता भी इससे प्रभावित होती है। हिंदी भाषा बोलने और अंग्रेजी न बोल पाने वाले छात्रों को हेय दृष्टि से देखने की प्रवृत्ति ने शिक्षा के उद््देश्यों पर ही प्रश्नचिह्न अंकित कर दिया है।

 

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