सरकारी स्कूलों की साख

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Recent direction of HRD

  • मानव संसाधन मंत्रालय ने सभी राज्य सरकारों से कहा है कि शिक्षकों को जनगणना, चुनाव या आपदा राहत कार्यों को छोड़कर अन्य किसी भी ड्यूटी पर न लगाया जाए।
  • इसके अलावा प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा को लेकर एक बड़ा कदम उठाते हुए सरकार ने शिक्षा का अधिकार अधिनियम-2009 में संशोधन करते हुए शिक्षकों की ट्रेनिंग अवधि मार्च 2019 तक बढ़ा दी है।
  •  2010 में यह कानून लागू हुआ था तो देश भर में करीब साढ़े चौदह लाख शिक्षकों की भर्ती की गई थी। इनमें बहुतों के पास न तो बच्चों को पढ़ाने के लिए कोई डिग्री थी, न प्रशिक्षण। इनकी ट्रेनिंग का काम 31 मार्च 2015 तक पूरा होना था, जो नहीं हो पाया तो अब अधिनियम में संशोधन करना पड़ा है।

14 साल तक के सभी बच्चों को गुणवत्तापरक शिक्षा मिले, इसके लिए इस संशोधन का स्वागत होना चाहिए, लेकिन सरकारी स्कूलों की बीमार हालत को देखते हुए ऐसे फैसलों को लेकर ज्यादा उत्साहित नहीं हुआ जा सकता।

  • शिक्षकों को प्रशिक्षित कर भी दिया जाए तो ज्यादातर जगहों पर इन स्कूलों में बच्चे ही नहीं आते।
  • दोहरी शिक्षा व्यवस्था ने अभिभावकों के मन में यह बात बिठा दी है कि बच्चे को पढ़ाना है तो उसे इंग्लिश मीडियम स्कूल में भेजा जाए। हालांकि ऐसे स्कूलों के लिए भी कोई मानक नहीं है और इनमें ज्यादातर का हाल सरकारी स्कूलों जैसा ही है।
  • मिड-डे मील से बच्चों के स्कूल जाने का ग्राफ कुछ चढ़ा, फिर स्कूल कुल मिलाकर खाना बनाने-खाने की जगह बनकर रह गए। जहां-तहां मां-बाप अपने बच्चों को खाने के लिए प्राइमरी स्कूल में भेज देते हैं, लेकिन पढ़ने के लिए वे इंग्लिश मीडियम वाले प्राइवेट स्कूल में ही जाते हैं।

Question remain unresolved

जाहिर है, समस्या सिर्फ शिक्षकों की ट्रेनिंग से नहीं जुड़ी है। भाषाई राजनीति वाले दो-चार प्रदेशों को छोड़ दें तो पूरे देश में सरकारी स्कूलों की कोई साख ही नहीं बची है। इस समस्या से उबरने के लिए नीति आयोग के सीईओ अमिताभ कांत ने शिक्षा को प्राइवेट हाथों में सौंप देने का सुझाव दिया है, लेकिन उसके अपने खतरे हैं। सरकार को अगर व्यापक आबादी को दी जाने वाली शिक्षा का हाल सुधारना है तो उसे सरकारी स्कूलों में अंग्रेजी पढ़ाने जैसे कुछ ठोस उपायों के जरिये लोगों में इनकी साख बहाल करनी होगी

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