शिक्षा के सुधार के लिए शिक्षकों के प्रशिक्षण पर ध्यान देने की आवश्यकता

#Dainik_Jagarn_Editorial

शिक्षा में परिवर्तन और सुधार की राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय गोष्ठियों में अनेक बार पूरा परिदृश्य चार प्रश्नों में बांटकर विश्लेषित किया जाता है-किसे पढ़ाएं, क्या पढ़ाएं, कैसे पढ़ाएं और कौन पढ़ाए?

  • पहले प्रश्न में बच्चे को जानना, समझाना, उसकी रुचियों, मनोविज्ञान इत्यादि सम्मिलित होगा।
  • दूसरा होगा कि क्या और कितना उसे सिखाना है यानी विषयवस्तु और पूरा पाठ्यक्रम।
  • तीसरा महत्वपूर्ण अवयव है विधा। इसमें शिक्षण विधियां, संचार तकनीक के उपयोग शामिल होंगे।
  • चौथा होगा कि वह व्यक्ति कौन और कैसा होगा जो पढ़ाने के लिए उपयुक्त हो और उसके साथ ही अधिकृत भी हो।

इस व्यक्ति की पहचान गुरुकुल के गुरु से प्रारंभ होकर मास्टर साहब तक पहुंची और आज संविदा अध्यापक, अतिथि अध्यापक, शिक्षा मित्र जैसे संबोधनों में सिमट गई है। जैसे गुरुकुल की संकल्पना बिना गुरु के नहीं हो सकती।

रिक्त पद

  • देश में 105630 एकल अध्यापक वाले स्कूल हैं। कुछ दिन पहले ही लोकसभा में यह जानकारी भी दी गई कि सरकारी स्कूलों में अध्यापकों के 10,14,491 पद रिक्त हैं। ऐसे में देश के 30-35 हजार स्कूलों में अध्यापकों का किसी भी दिन स्कूल में न होना सामान्य घटना ही मानी जाएगी।
  • प्रारंभिक स्कूलों में 17.5 फीसद और माध्यमिक स्कूलों में 14.9 फीसद पद खाली हैं।
  • इन सारे पदों पर नियुक्ति का अधिकार केवल राज्य सरकारों के अधिकार क्षेत्र में ही आता है। केंद्र इसमें कुछ नहीं कर सकता है, वह समय-समय पर आर्थिक सहायता देता रहता है। वैसे केंद्रीय विश्वविद्यालयों में भी साल भर पहले तक 16,600 पद रिक्त थे।

हर बार हर स्तर पर आश्वासन दिए जाते हैं कि रिक्त शिक्षकों की नियुक्तियां शीघ्र ही पूरी कर दी जाएंगी, मगर नतीजा वही ढाक के तीन पात रहता है। इसके पीछे के कारण भी सभी को ज्ञात हैं। वे लोग जो सुधार ला सकने की स्थिति में हैं, सरकारी स्कूलों की स्थितियों से प्रभावित नहीं होते। उनके बच्चों के लिए नामी-गिरामी निजी स्कूल उपलब्ध हैं। वे समय-समय पर शिक्षा की गुणवत्ता में हो रही गिरावट पर चिंता अवश्य प्रकट करते रहते हैं।

विश्व के सौ या दो सौ उच्च शिक्षा संस्थानों और विश्वविद्यालयों में भारत की अनुपस्थिति पर भी चिंता प्रकट की जाती है। नए-नए उपाय भी सुझाए जाते हैं और उनमें से कुछ का क्रियान्वयन भी प्रारंभ किया जाता है, लेकिन परिवर्तन दिखाई नहीं देता है। शिक्षा की गुणवत्ता की धुरी ‘कौन पढ़ाए’ के आसपास ही घूमती है।

केंद्र बिंदु होना चाहिए अध्यापको के प्रशिक्षण  पर

अध्यापकों की तैयारी की ओर ध्यान देना केवल शिक्षा देने के लिए ही आवश्यक नहीं है। इसके अनेक पक्ष ऐसे हैं जो जाने-अनजाने जीवन के हर क्षेत्र में प्रभाव डालते हैं। शिक्षक प्रशिक्षण संस्थानों में यदि प्रशिक्षक अपने कर्तव्य का पूरी तरह पालन करता है तो हर प्रशिक्षु उसका अवलोकन करता है और वैसा ही बनने की ओर अग्रसर करता है। जब प्रशिक्षु अपने प्रश्न बिना हिचक प्रशिक्षक से पूछ सकता है तभी उसकी प्रतिभा जाग्रत होती है। वह स्कूलों में जाकर भी इस खुले वार्तालाप के महत्व को आधार बनाकर अपना कार्य करता है। 

  • पंडित विद्यानिवास मिश्र के शब्दों में- ‘आचार्य शब्द का बड़ा विशद अर्थ है: आचार्य वह है जो केवल स्वयं आचरण नहीं करता, बल्कि जो आचरण कराता है, केवल आचरण करने से आचार्य नहीं होगा। जो आचरण करे और दूसरों से आचरण कराए, स्वयं पढ़े, दूसरों से पढाए, स्वयं तैयारी करे और दूसरों से तैयारी कराए वह आचार्य है।’
  • एक समय नालंदा, तक्षशिला, विक्रमशिला जैसे ज्ञान केंद्रों में साठ से अधिक देशों के ज्ञानार्थी आकर अपनी ज्ञान पिपासा शांत करते थे और मानवीय ज्ञान भंडार को और परिपुष्ट करने में अपना योगदान करते थे।
  •  स्वामी विवेकानंद ने सच्चे अध्यापक के लिए कहा था-‘सच्चे आचार्य वही हैं जो अपने शिष्य की प्रवृति के अनुसार अपनी सारी शक्तिका प्रयोग कर सकते हैं। सच्ची सहानुभूति के बिना हम कभी भी ठीक-ठीक शिक्षा नहीं दे सकते।
  • गुरु के साथ हमारा संबंध ठीक वैसा ही है जैसा पूर्वज के साथ वंशज का.. जिन देशो में इस प्रकार के गुरु-शिष्य संबंध की उपेक्षा हुई है.. वहां गुरु का मतलब रहता है अपनी दक्षिणा से और शिष्य का मतलब रहता है गुरु के शब्दों से। इसके बाद दोनों अपना-अपना रास्ता नापते हैं।’

 आज भारत में भी अधिकांश शैक्षिक संस्थाओं में इसी प्रकार की स्थिति बन गई है या बनती जा रही है। आज खुलेआम शिक्षा उद्योग पर नीतियां बनती हैं, गोष्ठियां होती हैं और लाभांश कमाने के नए रास्ते तलाशे जाते हैं। ऐसे में अध्यापकों के प्रशिक्षण में इन प्रवृतियों का परिचय कराना आवश्यक है। देश को ऐसे अध्यापक चाहिए जो पहले देश की ज्ञानार्जन परंपरा से परिचय प्राप्त करें और विश्व स्तर पर जो घटित हो रहा है उसे जानें। फिर दोनों के बीच जितना आवश्यक और उपयोगी हो उसमें समन्वय स्थापित करें। इसके लिए शिक्षकों के सेवा-पूर्व एवं सेवाकालीन प्रशिक्षण के संस्थान योग्यतम व्यक्तियों द्वारा संचालित हों, श्रेष्ठतम आचार्य वहां कार्य करें और समाज एवं सरकारें उन्हें सभी प्रकार के आवश्यक संसाधन तथा स्वायत्तता उपलब्ध कराएं। शिक्षा सुधारों में इस समय सबसे अधिक प्राथमिकता का क्षेत्र शिक्षक प्रशिक्षण संस्थानों को जीवंत और सक्रिय बनाकर एक अनुकरणीय कार्यसंस्कृति को पुन: स्थापित करना ही है।

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