अदालतों के डिजिटल होने की राह में अभी कई सारे झोल

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Recent context

करीब दो महीने पहले उच्चतम न्यायालय ने अपना सारा कामकाज पेपरलेस करने का ऐलान किया था बाद में न्यायालय ने इस पर स्पष्टीकरण देते हुए कहा कि इस महत्त्वाकांक्षी योजना को पूरा करने की राह में कई 'तकनीकी एवं प्रकार्यात्मक मुद्दे हैं। ग्रीष्मावकाश के बाद न्यायालय का कामकाज दोबारा शुरू होने पर पेपरलेस कामकाज से संबंधित मुद्दे अनगिनत रूप में सामने आए हैं।

  • सर्वोच्च न्यायालय की 14 अदालतों में से केवल पांच के समक्ष ही दाखिल होने वाली नयी याचिकाओं को न्यायाधीश इंटरएक्टिव डिसप्ले उपकरण की मदद से डिजिटल रूप में देख सकते हैं।
  • इसका मतलब है कि अब भी न्यायाधीशों को अपनी मेज के अगल-बगल रखी फाइलों के ढेर के बीच ही काम करना पड़ रहा है।
  • नयी याचिकाओं का विवरण देखने वाला डिसप्ले उपकरण उनकी मेज पर रखा हुआ है लेकिन फिलहाल वह यूं ही पड़ा हुआ है। अभी तक कोई भी ई-याचिका इन अदालतों के समक्ष विचार के लिए नहीं आई है।

Need to digitise lower judiciary

उच्चतम न्यायालय को एक साथ सैकड़ों अपीलों का निपटारा करना होता है, लिहाजा उसके नीचे की अदालतों का भी डिजिटलीकरण होना जरूरी है।

हालांकि निचली अदालतों को निर्देश देने के लिए शीर्ष स्तर पर एक ई-समिति बनी हुई है लेकिन उच्च न्यायालयों और जिला अदालतों की इलेक्ट्रॉनिक प्रगति की हालत काफी खस्ता है। कुछ गिने-चुने उच्च न्यायालयों की ही वेबसाइट वकीलों के लिए मददगार साबित होती हैं। राष्ट्रीय महत्त्व के विभिन्न सामाजिक एवं आर्थिक मसलों पर उच्च न्यायालय अपने अधिकार-क्षेत्र में सुनवाई करते हैं और उन पर फैसला देते हैं। लेकिन इन फैसलों से झलकने वाली न्यायाधीशों की विद्वता और बुद्धिमत्ता आम लोगों तक नहीं पहुंच पाती है क्योंकि लोग उन फैसलों को वेबसाइट पर देख ही नहीं पाते हैं।

  • निचली अदालतों के पास संसाधनों की कमी होने से ऐसा कर पाना खासा दुष्कर कार्य है।
  • अब भी केस फाइल करने वाले काउंटरों पर केस से जुड़े कागजों का पुलिंदा लेकर पहुंचते हैं। देश भर में कहीं भी निचली अदालतों के स्तर पर ई-फाइलिंग की उम्मीद करना अभी बेमानी ही कहा जाएगा।

एकीकृत केस प्रबंधन सूचना प्रणाली

हालांकि 10 मई को एकीकृत केस प्रबंधन सूचना प्रणाली (आईसीएमआईएस) के गठन का जब ऐलान किया गया था तो उसे एक क्रांतिकारी कदम बताया गया लेकिन असलियत तो यह है कि उच्चतम न्यायालय की नई वेबसाइट अब भी विकास की प्रक्रिया में है और ऑनलाइन इस्तेमाल करने वालों को खासी दिक्कत हो रही है। अच्छी-भली चल रही पुरानी वेबसाइट को नई वेबसाइट के चालू होने के पहले ही बंद कर दिया गया जिससे अनावश्यक भ्रम की स्थिति पैदा हो रही है।

Measures initiated to digitise in past

  • पहला वाकया नहीं है जब शीर्ष अदालत डिजिटल अवतार लेने की बात कर रही है।
  • अक्टूबर 2006 में भी यह घोषणा की गई थी कि ई-फाइलिंग व्यवस्था शुरू की जा रही है।
  • लेकिन एक दशक से भी अधिक समय बीत जाने के बाद भी अदालत पर कागजों का बोझ बढ़ता ही जा रहा है।

Need uniformity

गुजरात उच्च न्यायालय ने संवेदनशील मामलों में गवाहों के मुकर जाने संबंधी एक मामले में एक लंबा फैसला सुनाया था। इस मामले में एक पूर्व सांसद पर एक युवक की हत्या का आरोप था और बाद में उस केस के 195 में से 105 गवाह मुकर गए थे। न्यायालय के 120 पृष्ठों के इस फैसले के बारे में आम लोगों को कोई जानकारी नहीं है क्योंकि उस फैसले तक उनकी पहुंच ही नहीं है। न्यायाधीश ही अपने फैसले पर यह चिह्नित करते हैं कि उन्हें वेबसाइट पर अपलोड किया जाए या नहीं। वेबसाइट पर अपलोड होने से स्थानीय समाचारपत्रों के रिपोर्टरों को भी उन फैसलों के बारे में पता चल जाता है। वर्षों से चली आ रही इस विडंबना पर अब तक किसी भी न्यायाधीश ने गौर नहीं किया है। इतना ही नहीं, अदालत अपनी ही वेबसाइट पर डाली गई सामग्री की प्रामाणिकता को लेकर भी उपभोक्ताओं को आगाह करता है।

  • कई अन्य उच्च न्यायालयों की वेबसाइट भी आम लोगों की कोई मदद नहीं कर पाती हैं।
  • इसकी वजह यह है कि ये वेबसाइट अपने ही डिजाइन से संचालित होती हैं।
  • केवल स्थानीय वकीलों को ही उन वेबसाइट की सामग्री देख पाने की इजाजत होती है जबकि मुवक्किलों को वेबसाइट पर जाने के लिए भुगतान करना होता है।
  •  इस तरह उच्च न्यायालयों के फैसले चाहे कितने भी अहम क्यों न रहे हों लेकिन बाकी दुनिया के लिए उनके दरवाजे असल में बंद ही रहते हैं।

सरकारी विभागों की वेबसाइट बनाने वाले राष्ट्रीय सूचना-विज्ञान केंद्र (एनआईसी) को भी ई-समिति यह बताने में नाकाम रही है कि सभी अदालतों के लिए एकसमान परिपाटी अपनाई जानी चाहिए। इसी तरह विभिन्न न्यायाधिकरणों की वेबसाइट भी एक ही परिपाटी पर बनाई जानी चाहिए। इनमें से कई न्यायाधिकरणों की वेबसाइट का तो महीनों से अद्यतन भी नहीं किया जाता है। आज के समय में समाज अदालतों की शक्तियों का बखूबी अहसास कर रहा है और शासन के अन्य अंगों से निराश होने पर उसे न्यायपालिका से ही आस लगी होती है। ऐसे में अदालतों का डिजिटल होना समय की मांग बन चुका

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