खुदकुशी का समाज

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कपूरथला में गरीबी से तंग आकर युवक द्वारा चार भाई-बहनों के साथ ज़हर खाने की घटना वास्तव में रोंगटे खड़े करने वाली है। गरीबी में पल रहे बच्चों ने अभिजात्य वर्ग के प्रतीक बर्गर को सम्मोहन के साथ खाया होगा, उन्हें क्या पता था कि उसमें उनकी मौत का सामान भी है।

  • इस हृदयविदारक घटना ने हमारे समाज के इस नंगे सच को उजागर कर दिया है कि हम भीड़ में बिल्कुल अकेले हैं, समाज दिखावे का है, जो किसी के दुख-दर्द की परवाह नहीं करता।
  • कहने को हम सोशल मीडिया के जरिये ईरान-तुरान की घटनाओं पर प्रतिक्रिया देकर शाब्दिक गुस्से का इज़हार करते हैं।
  •  मगर हमारे पड़ोस में जो गरीबी, लाचारी व भुखमरी से जूझ रहा है, उसकी सुध नहीं लेते। कपूरथला की घटना के निष्कर्ष भी यही हैं कि हताशा-गरीबी में पल रहे परिवार का जब यह विश्वास खत्म हो गया कि कहीं से मदद मिल सकती है तो उन्होंने मौत को गले लगा लिया।
  • भारतीय समाज का मूल चरित्र रहा है कि भले ही बहुत पैसा न हो सुख-दुख में साथ जरूर खड़ा रहा जाये। कोशिश होती थी कि पड़ोस में व्यक्ति भूखा न रहे। ज्यादा पुरानी बात नहीं पड़ोस से कटोरी में दाल व चीनी लेने का प्रचलन मध्यम व गरीब तबके में खूब रहा है। इसी का नाम ही तो समाज है।

Urbanisation & distorting society:

शहरीकरण की विसंगतियों ने व्यक्ति को इतना बौना बना दिया है कि उसे अपने परिवार के सिवाय किसी की चिंता नहीं है। न मदद देने वाले उत्सुक रहते हैं और न जरूरतमंद मांगना चाहते हैं। सामाजिक संरचना संवेदनहीन व आत्मकेंद्रित होती जा रही है। मिलने-जुलने व सुख-दुख बांटने के मौके सिमटते जा रहे हैं।

ऐसा नहीं है कि पिछले तीन सालों में यह सब कुछ हुआ। यह समाज में धीरे-धीरे होने वाले बदलाव की प्रक्रिया है, जो भयावह भविष्य के संकेत दे रही है। सड़क दुर्घटना में तड़पते घायल को उसके हाल में छोड़कर आगे बढ़ जाना, हत्यारों की अनदेखी, इलाज के अभाव में दम तोड़ते लोगों की उपेक्षा जैसे समाज के संवेदहीन व्यवहार के सैकड़ों किस्से सीसीटीवी फुटेज के जरिये हमारे सामने आते हैं। मगर हम मूकदर्शक बने रहते हैं। यह जानते हुए भी कि इन हालात से हमें भी दो-चार होना पड़ सकता है। यह अलगाव का समाज विष-बीज बो रहा है, जिसकी फसल हर किसी को एक दिन काटनी ही पड़ेगी। कपूरथला की घटना को सबक के तौर पर लिया जाना चाहिए।

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