तीन तलाक और मुस्लिम समाज

पितृसत्तात्मक सामाजिक संरचना

पितृसत्तात्मक सामाजिक संरचना का आधार ही स्त्री शोषण है। इस सत्ता को बनाए रखने के लिए औरतों को हमेशा कई तरह के रीति-रिवाजों की बेड़ियों में बांध दिया जाता है। इन रीति-रिवाजों का आधार अधिकतर धार्मिक होता है। सभी धर्मों में यह अपने चरम पर है।

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ताजा मामला इस्लाम धर्म को मानने वाली स्त्रियों से जुड़ा है। इस्लाम वह पहला धर्म है जिसने पति-पत्नी को संबंध विच्छेद यानी तलाक और खुला का हक दिया। मसलन, अगर किसी बीवी को अपने शौहर के साथ नहीं रहना है तो वह खुला मांग सकती है और अगर शौहर बीवी के साथ शादीशुदा जिंदगी कायम नहीं रखना चाहता तो वह तलाक दे सकता है। अगरचे औरतों को भी खुला या संबंध विच्छेद का हक हासिल है, पर उन्हें बचपन से ही इस तरह पाला जाता है कि वे खुला मांग सकने की सोचें भी नहीं। और इस तरह विवाह को तोड़ने का पूरा अधिकार मर्द के सुपुर्द हो जाता है। मतलब शौहर यह फैसला करेगा कि उसे अपनी बीवी को साथ रखना है या नहीं। विवाह को बचाए और बनाए रखने की नैतिक जिम्मेदारी औरतों पर रहती है जबकि उसे खत्म करने का सामाजिक अधिकार केवल मर्दों को दे दिया गया है जो अपने आप में ही भेदभावपूर्ण है।

Is this in Koran

  • इस्लाम का आधार कुरान है और इसमें लिखी सारी बातें शरिया कानून का आधार हैं। कुरान में कहीं भी एक वक्त में तीन तलाक देने का जिक्र नहीं है, बल्कि यह कहा गया है कि तलाक देते वक्त हमेशा बिगड़ी बात बनने की गुंजाइश रखो।
  •  इस गुंजाइश का जिक्र हदीस में कुछ इस तरह है कि पहले एक तलाक दो, बीच में तीन महीने दस दिन की इद््दत की मुद््दत और अगर उस दरमियान मियां-बीवी के बीच सुलह न हो पाए तो दूसरा तलाक, उसकी इद््दत और आखिर तीसरा तलाक और इद््दत की मुद््दत खत्म होने पर यह तलाक मान लिया जाए। इस तरीके से तलाक देने में एक बड़ा तवील वक्त गुजर जाता है जो अपने में ही मर्द के लिए झल्लाहट का सबब भी हो सकता है।
  • गुजरते वक्त के साथ कई मुसलिम उलेमाओं द्वारा कुरान की अपनी सहूलियत के हिसाब से तफसीर और तजुर्मानी ने कई तरह की कुरीतियों को जन्म दिया है जिनका जिक्र भी कुरान में मौजूद नहीं है, तीन तलाक का शिगूफा भी इन्हीं में से एक है। उस पर रही-सही कसर 1973 में गठित आॅल इंडिया मुसलिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने पूरी कर दी जो धार्मिक (कट्टर) मुसलिम उलेमाओं का एक संगठन है और वे अपने आपको भारत के मुसलमानों का नुमाइंदा बताते हैं (जिसका हक उन्हें किसने दिया अल्लाह जाने!)। इस बोर्ड ने ही शाहबानो केस में आए सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलटने का तत्कालीन सरकार पर दबाव बनाया था और वह दबाव काम आया। तत्कालीन सरकार ने अपनी सियासी गरज में उलेमाओं के हक में फैसला किया।
    गौरतलब है कि यों तो ये बोर्ड कुरान में किसी तरह के बदलाव की गुंजाइश से भी इनकार करते हैं, पर अलग-अलग मौलानाओं द्वारा दी गई कुरान की अलग-अलग व्याख्या (तफसीर) से भी इनकार नहीं करते, जिसकी वजह से भी इस्लामिक समाज में कुरीतियों का बोलबाला है, क्योंकि फतवे पर फतवे जारी करने वाले इन मौलानाओं या उलेमाओं का इसमें कोई निहित स्वार्थ होने से इनकार नहीं किया जा सकता।
  • तलाक के मसले का भी अपना एक समाजशास्त्रीय आधार है। मर्द और औरत पारिवारिक इकाई के दो हिस्से हैं। होना तो यह चाहिए कि दोनों हिस्सों को मजबूती दें लेकिन हुआ कुछ यों कि एक के हिस्से में सारे अधिकार और दूसरे को सारी जिम्मेदारियां दे डालीं। विवाह को बनाए रखने की नैतिक जिम्मेदारी औरतों के हिस्से कर दी गई, जबकि उसे खत्म करने का अधिकार केवल मर्दों को दे दिया गया, जो अपने आप में भेदभावपूर्ण है। यह ठीक है कि औरतों को भी खुला का हक हासिल है लेकिन वह बेचारी बेजुबान जब अपनी मेहर की रकम तक खुद तय नहीं कर सकती तो शौहर से खुला क्या मांगेगी? मेहर की रकम तय करने से लेकर उसे खर्च करने का इख्तियार शरियतन औरतों का हक है लेकिन यहां भी औरतों को कमजोर करने के लिए आम चलन में इसे सिर्फ सांकेतिक कर दिया है।

अक्सर मिसालों में तो यह देखने को मिला है कि मेहर की रकम एक सौ एक रुपए तय कर दी गई है, जबकि याद रखें कि हक-ए-मेहर वह रकम है जो औरतों की अमानत होती है और उनकी निजी होती है। इस तरह से औरतों को माली तौर पर कमजोर करके उन्हें मर्दों के अधीन बनाए रखना इस साजिश की दूसरी सीढ़ी है, जबकि पहली सीढ़ी छोटी बच्चियों की परवरिश और तरबियत के समय दिया जाने वाला माहौल है। औरतों का समाजीकरण मर्दों की तुलना में भिन्न होता है यह जगजाहिर है, और इसका किसी धर्मविशेष से कतई लेना-देना नहीं, बल्कि समाजीकरण की यह प्रक्रिया पितृसत्तात्मक सामाजिक संरचना में निहित है। बच्चियों और महिलाओं को न केवल बुनियादी या उच्च शिक्षा से महरूम रखा जाता है बल्कि कम उम्र में शादी करके मां-बाप अपने फर्ज से सुबुकदोश हो जाने की खुशी में अपनी बेटियों की हकतलफी की भी फिक्र नहीं करते, और ससुराल में भी उनकी सारी खुशी इस बिंदु पर टिकी होती है कि वे अपने शौहर को कितना मुतमईन रख सकती हैं। शौहर की जरा-सी टेढ़ी नजर उसके लिए नुकसानदेह है और वह हर मुमकिन कोशिश करती है कि शौहर की कृपादृष्टि उस पर बनी रहे। इतना करने के बावजूद तलाक नाम की तलवार उसके सर पर हमेशा लटकी रहती है कि न जाने कब उसकी कोई गलती शौहर-ए-नामदार को खराब लग जाए और वे तलाक दे बैठें।

 

इस्लाम ने तलाक और खुला के मसले को आसान बनाया, पर समाज ने उसे ही औरतों के जी का जंजाल बना दिया। जाने में हुआ हो या अनजाने में, भारतीय मुसलिम महिलाओं की स्थिति समाज में दोयम दर्जे की है। समाज के हाशिये पर आने वाले सभी वर्गों में मुसलिम महिलाएं सबसे पीछे हैं, चाहे वह शैक्षणिक क्षेत्र हो, आर्थिक क्षेत्र हो या सामाजिक क्षेत्र हो।

अच्छी बात यह है कि अब मुसलिम औरतें मुखर होकर अपना विरोध दर्ज करा रही हैं। सुप्रीम कोर्ट में चल रहे मामले इसकी बानगी भर हैं। इससे मुसलिम पर्सनल लॉ बोर्ड घबरा गया है और वह भी तीन तलाक के मसले पर विचार कर रहा है। देर से ही सही, संवैधानिक दायरे में रहते हुए देश की शीर्ष अदालत ने इस मामले की गंभीरता को संज्ञान में लेते हुए इस पर सुनवाई का फैसला लिया है और उम्मीद है कि जल्द ही इस पर औरतों के हक में कोई फैसला आएगा। हालांकि अदालती मामलों में लगने वाले लंबे समय के कारण हमें या आपको सिर्फ अदालती फैसले के इंतजार तक महदूद नहीं होना चाहिए बल्कि इससे एक कदम आगे बढ़ कर ऐसे काम करने होंगे जो औरतों के स्वावलंबन की दिशा में हों। मसलन, सबसे पहले मूल्यपरक, उच्च शिक्षा तक उनकी पहुंच पक्की करना। दूसरे, सभी औरतों को आर्थिक तौर पर मजबूत करने के लिए नौकरियों में उनकी उपस्थिति सुनिश्चित करना। तीसरे, समाजीकरण के नियमों को बदलना, जिससे कोई औरत अपने शौहर के तलाक देने से जिंदगी से मायूस न हो और शौहर से मुतमईन नहीं होने पर खुला मांगने से न हिचकिचाए

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