स्वस्थ समाज : बड़ा मुद्दा

- स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मस्तिष्क रहता है। अगर हमारे युवा मानव संसाधन रुग्ण रहेंगे, कुपोषित रहेंगे, तो दुनिया की अपेक्षाओं पर कैसे खरे उतरेंगे। आज हर परिवार अपनी बचत का एक बड़ा हिस्सा इन गैरजरूरी बीमारियों के इलाज पर खर्च कर देता है। मानसिक और शारीरिक श्रम और परिवार को होने वाली व्यथा का मूल्यांकन ही नहीं किया जा सकता है।

- लिहाजा समाज को स्वस्थ रखने के लिए सभी बच्चों, महिलाओं, पुरुषों को भी स्वस्थ रखना होगा। इसके लिए सरकार से लेकर समाज तक सभी को जागना होगा। भारत जैसे देश के लिए यह मसला किसी विडंबना से कम नहीं है। एक तरफ तो हम तरक्की की सीढिय़ां तेजी से चढ़ते जा रहे हैं लेकिन अपने मानव संसाधनों को स्वास्थ्य सुविधाएं मुहैया कराने के मामले में दुनिया के कई छोटे देशों से पीछे हैं। इस नाकामी की हमें बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ रही है।

- रोकी जा सकने वाली बीमारियों और समय से पहले होने वाली मौतों के चलते हर साल हमें अपने सकल घरेलू उत्पाद के छह फीसद की चपत लगती है। इस हालात की मुख्य वजह स्वास्थ्य क्षेत्र में बहुत कम निवेश का होना है।

- जन स्वास्थ्य नीति कभी सरकार की प्राथमिकता में नहीं रही। आज भी स्वास्थ्य के मद में सरकारी और निजी समेत कुल खर्च जीडीपी का करीब चार फीसद है। स्वच्छता को लेकर जो तेजी अब दिखाई दे रही है वही अगर पहले दिखाई देती तो अब तक उसका फायदा परिलक्षित होने लगता।
- शारीरिक रूप से स्वस्थ व्यक्ति की सोच भी स्वस्थ होती है। ऐसे लोग न केवल सकारात्मक सोचते हैं बल्कि विकार युक्त और अपराध जैसी बातें भी इनके जेहन में कम ही आती हैं। यह प्रवृत्ति समाज के लिए किसी वरदान से कम नहीं होगी।

- जब समाज में बुराई और बुरे लोग कम संख्या में होंगे तो उन्हें आसानी से हतोत्साहित किया जा सकेगा। ऐसे में स्वस्थ समाज के मायने और उसे पाने की पड़ताल आज हम सबके लिए बड़ा मुद्दा है।

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