Need to focus on growth to have meaningful and descent employment
#Businee_Standard
भारत के लिए रोजगार के अवसर पैदा करना विकास की सबसे बड़ी चुनौती माना जाता है। यह राजनीतिक हलकों में भी विवाद का एक प्रमुख कारण है। आंकड़ेबाज रोजगार पर नोटबंदी के असर को लेकर तर्क-वितर्क कर रहे हैं। लेकिन ये तर्क-वितर्क बेकार हैं क्योंकि रोजगार के आंकड़ों की हमारी प्रणाली वे बारीक सूचनाएं मुहैया नहीं कराती है, जो अल्पकालिक रुझानों को उनकी वजहों से जोडऩे के लिए जरूरी हैं।
No real change in Employment data
यह प्रणाली रोजगार और बेरोजगारी पर जो बुनियादी सूचनाएं मुहैया कराती है, उसमें भी एक समयावधि में या विभिन्न आर्थिक स्थितियों में बहुत कम अंतर नजर आता है। एनएसएस के पांच वर्षीय सर्वेक्षण और अब श्रम ब्यूरो के सालाना सर्वेक्षण बेरोजगारी के स्तर में मामूली बदलाव दर्शाते हैं और कुल आंकड़ों में कोई स्पष्ट रुझान नजर नहीं आता है। असल बात यह है कि भारत में कोई भी व्यक्ति खुले तौर पर बेरोजगार नहीं रह सकता। जिन्हें श्रम बाजार में स्थायी रोजगार नहीं मिल पाता, वे कोई अस्थायी काम करते हैं या परिवार के काम-धंधे में जुट जाते हैं। श्रम बाजार की दशाएं उस आयु वर्ग के व्यक्तियों के अनुपात में उतार-चढ़ाव या रुझान से प्रदर्शित की जा सकती हैं, जो काम करने के लिए तैयार हैं। ये दशाएं स्पष्ट बेरोजगारी दर को प्रदर्शित नहीं करती हैं।
इसके बावजूद रोजगार सृजन की रणनीति का पता लगाने के लिए रोजगार सृजन के वर्तमान रुझानों के कुछ आकलनों की जरूरत होती है। हाल का एक अध्ययन (1) 1999-2000 से 2011-12 तक के रुझानों का संकेत देता है। यह अवधि ऊंची वृद्धि का चरण है।
श्रम बल की सालाना वृद्धि 1999-2000 से 2011-12 के दौरान घटकर 1.4 फीसदी पर आ गई, जो 1983-84 से 1999-2000 के दौरान 1.8 फीसदी थी। इसकी एक वजह बच्चों और महिलाओं की कम श्रम भागीदारी दर थी।
आबादी में युवाओं की तादाद बढऩे के बावजूद कामगार आबादी में युवाओं में संख्या में इसी अनुपात में बढ़ोतरी नहीं हुई, इसलिए इतनी बड़ी कामगार आबादी का फायदा नहीं मिल पाया।
भारत की जिन देशों से तुलना की जाती है, उनके मुकाबले हमारे यहां कम पढ़े-लिखे कामगारों (2011-12 में अशिक्षित या अशिक्षित बराबर कामगार 26.6 फीसदी) की संख्या आनुपातिक रूप से ज्यादा थी और कॉलेज शिक्षा प्राप्त कामगारों का अनुपात भी आनुपातिक रूप से ज्यादा था (2011-12 में 12.2 फीसदी)।
संगठित क्षेत्र की हिस्सेदारी और स्थायी रोजगार में बढ़ोतरी से रोजगार की स्थितियां सुधरी हैं। रोजगार में संगठित क्षेत्र की हिस्सेदारी 2011-12 में बढ़कर 25.7 फीसदी हो गई, जो 1999-2000 में 17 फीसदी थी। इसी तरह स्थायी रोजगार 2011-12 में बढ़कर 21.4 फीसदी हो गया है, जो 1999-2000 में 17 फीसदी था।
वर्ष 1999-2000 और 2011-2012 के बीच संगठित क्षेत्र में प्रति कामगार आय में 2.3 फीसदी और असंगिठत क्षेत्र में 4.2 फीसदी सालाना बढ़ोतरी हुई।
1999-2000 और 2011-12 के बीच काम में महिला-पुरुष असमानता कम हुई क्योंकि महिलाओं के लिए रोजगार दशाओं में पुरुषों की तुलना में ज्यादा सुधार हुआ।
हाल के रुझान कम अनुकूल नजर आते हैं क्योंकि श्रम ब्यूरो का सालाना रोजगार-बेरोजगारी सर्वेक्षण दर्शाता है कि बेरोजगारी बढ़कर 2015-16 में 5 फीसदी पर पहुंच गई है, जो 2011-12 में 3.8 फीसदी थी। एक विश्लेषक (2) का अनुमान है कि 37 से 55 लाख ‘रोजगार का नुकसान’ हैं।
रोजगार में कितना बड़ा अंतर है? भारत उस स्तर पर कितनी जल्द पहुंच सकता है, जहां कोई छिपी बेरोजगारी न हो और काम करना चाहने वाले सभी लोग उचित वेतन और अच्छी कार्य दशाओं पर रोजगार हासिल कर सकते हैं?
मानव विकास अध्ययन संस्थान ने उपर्युक्त अनुमानों का हवाला देते हुए कहा है कि वर्तमान आधिक्य कामगार संख्या 11.7 करोड़ है। इसमें से 5.2 करोड़ को काम से हटाया जा सकता है और इससे उत्पादन को कोई नुकसान भी नहीं होगा। 5.2 करोड़ इस समय कामगार आबादी में शामिल नहीं हैं, लेकिन वे काम करने में सक्षम हैं और करना चाहते हैं। वहीं 1.3 करोड़ सूचित बेरोजगार हैं। इस सरप्लस कामगार आबादी में हर साल 60 से 80 लाख की बढ़ोतरी होगी। क्या हम हर साल 1.6 करोड़ लोगों को उपयुक्त कामों में खपा सकते हैं और 2030 तक पूर्ण रोजगार का लक्ष्य हासिल कर सकते हैं?