न्यायपालिका को न्याय की तलाश


#Business_Standard
Supre Court के चार वरिष्ठतम न्यायाधीशों ने शुक्रवार को सार्वजनिक रूप से एक अप्रत्याशित बात कही कि देश के प्रधान न्यायाधीश संवेदनशील मसलों को गलत तरीके से संभाल रहे हैं और इससे देश की सर्वोच्च अदालत की सत्यनिष्ठï खतरे में है। उन्होंने जनता को यह असाधारण संदेश दिया कि वे अपनी ‘आत्मा को बेचना’ नहीं चाहते और अगर इस संस्थान को बचाया नहीं गया तो देश में लोकतंत्र की रक्षा खतरे में पड़ जाएगी।
    देश के प्रधान न्यायाधीश के अलावा यही चार न्यायाधीश मिलकर देश के सर्वोच्च न्यायालय के कॉलेजियम में आते हैं। कॉलेजियम वह प्रमुख निर्णय लेने वाली संस्था है जो उच्च न्यायपालिका की नियुक्तियों और स्थानांतरणों के निर्णय लेती है। 
    उन्होंने यह आरोप भी लगाया कि प्रधान न्यायाधीश बार-बार हस्तक्षेप करके यह सुनिश्चित करते हैं कि केवल उनकी पसंद के न्यायाधीश ही मामलों की सुनवाई करें। 
    उन्होंने Memorandum of Procedure  को अंतिम रूप देने में हो रही देरी की ओर भी ध्यान आकृष्टï किया। यह मेमोरंडम ही वे दिशानिर्देश मुहैया कराता है जिनके आधार पर कॉलेजियम की भविष्य की नियुक्तियां पारदर्शी और पात्रता पर आधारित हों।
All eyes on Chief Justice of India
अब जबकि यह मामला सार्वजनिक हो गया है तो सारा दारोमदार प्रधान न्यायाधीश पर है। अगर उनके चार वरिष्ठïतम साथी (जिन्हें विधिक दायरे के लोग संयमी बताते हैं) ऐसा अतिरंजित कदम उठाने और एक दुर्लभ नजीर पेश करने पर मजबूर हुए तो इसका मोटे तौर पर यही मतलब हुआ कि शीर्ष पर बैठा व्यक्ति कुछ तो गलत कर रहा है और अपने साथियों को साथ लेने में नाकाम रहा है। अब उनके लिए वक्त है कि वे आत्मावलोकन करें। विभिन्न पीठों के लिए न्यायाधीश चयन के लिए एक तय प्रक्रिया का पालन होना चाहिए। अगर ऐसी प्रक्रिया नहीं है या मौजूदा मानकों में कमियां हैं तो कॉलेजियम को उस मसले को हल करना चाहिए और मुख्य न्यायाधीश को चाहिए कि वह इस काम में अपने साथियों की मदद लें। किसी को भी प्रशासनिक विशेषाधिकार नहीं होने चाहिए।
Roster Preparation and Chief Justice
देश के प्रधान न्यायाधीश को यकीनन रोस्टर तय करने का अधिकार है। चारों न्यायाधीशों ने भी कहा है कि यही व्यवस्था है। परंतु उनका आरोप है कि प्रधान न्यायाधीश तय मानकों से इतना दूर निकल गए हैं कि इसके काफी अवांछित परिणाम हो सकते हैं। अगर ऐसा हुआ तो स्वयं संस्थान की प्रतिष्ठा संदेह के घेरे में आ जाएगी। अंतरिम व्यवस्था की बात करें तो सर्वोच्च न्यायालय को सार्वजनिक रूप से ऐसा उचित संकेत देना चाहिए कि सारे मसले हल हो गए हैं। न्यायाधीशों को यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि वे खुद ही बंटे हुए नहीं रह सकते और वे देश को नीचा भी नहीं दिखा सकते। यह अच्छी बात है कि अपने कष्टï सार्वजनिक करने के एक दिन बाद दो न्यायाधीश कह चुके हैं कि किसी बाहरी हस्तक्षेप की आवश्यकता नहीं है और संस्थान स्वयं जरूरी कदम उठाकर संकट हल करेगा।
यह बात महत्त्वपूर्ण है क्योंकि देश की सबसे बड़ी अदालत में अगर मतभेद होता है तो इससे राजनेताओं को न्यायपालिका की स्वायत्तता में हस्तक्षेप करने का अवसर मिलेगा। सरकार और विपक्ष अगर इस मुद्दे से दूर रहें तो बेहतर होगा। सरकार को मेमोरंडम ऑफ प्रोसीजर की गति तेज करनी चाहिए जिसकी 10 महीने से प्रतीक्षा है। इस प्रकरण का असर देश के अगले प्रधान न्यायाधीश के चयन पर नहीं पडऩा चाहिए। हमारे सांविधिक और सार्वजनिक प्रतिष्ठïानों में पराभव का मसला अलग है। इसकी वजह से ही हमारा देश एक संप्रभु राष्ट्र के रूप में बुनियादी काम तक कर पाने में नाकाम है। अब वक्त आ गया है। अगर देश को 21वीं सदी में मजबूती और स्थायित्व के साथ आगे बढऩा है तो संस्थागत सुधारों की इसमें अहम भूमिका है।


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