खाड़ी देशों में भारत का बढ़ता कद

This article describes rising stature of India in gulf region


#Hindustan
पश्चिम एशिया के तीन देशों की यात्रा पूरी कर प्रधानमंत्री भारत लौट चुके हैं। उनके इस दौरे को पश्चिम एशिया में भारत के बढ़ते कद के रूप में देखा जा रहा है। यह गलत भी नहीं है। एक तरफ प्रधानमंत्री ने पूर्वी एशियाई देशों के साथ ‘एक्ट ईस्ट पॉलिसी’ के तहत संबंधों को नई गरमाहट दी है, तो दूसरी तरफ पश्चिम एशिया पर भी बराबर की नजर रखी है। इसकी तस्दीक इससे भी होती है कि इस साल 26 जनवरी को बतौर मुख्य अतिथि आसियान के शासनाध्यक्ष भारत आए, तो पिछले साल अबू धाबी के युवराज मोहम्मद बिन जायद अल नाहयान राजपथ पर मौजूद थे। हाल-फिलहाल इजरायल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू की भी भारत यात्रा हुई थी। साफ है, पश्चिम एशिया व खाड़ी के देशों को लेकर भारत अपनी विदेश नीति को नई गति दे रहा है।


Why this was required: West ASIA Policy


ऐसा किया जाना जरूरी भी है। यह हमारे हित में है और अमन-पसंद देशों के हक में भी। 
    इसकी पहली वजह तो यह है कि अफगानिस्तान आतंकी वारदातों से वक्त-बेवक्त अस्थिर होता रहा है और पहली बार अमेरिका ने वहां भारत की भूमिका को मान्यता दी है। ऐसे में, खाड़ी के देशों में शांति व संतुलन साधने से हमारा वैश्विक कद ऊंचा उठेगा। इस दिशा में हम आगे बढ़े भी हैं। भारत, ईरान और अफगानिस्तान के बीच एक त्रिपक्षीय समझौता हुआ है, जिसकी महत्वपूर्ण धुरी चाबहार बंदरगाह है। इतना ही नहीं, भारत सरकार की कोशिश यही रही है कि संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) के साथ सामरिक साझेदारी आगे बढ़े। प्रधानमंत्री मोदी की यह यूएई यात्रा इसी कड़ी का हिस्सा थी। इस्लामी देशों में जो नए समीकरण बन रहे हैं, उसमें भी यह आवश्यक है कि भारत और यूएई की दोस्ती नया मुकाम हासिल करे।
    रही बात ओमान की, तो वह हमारा पुराना दोस्त रहा है। इसका पता इससे भी चलता है कि ओमान में 300 साल पहले एक शिव मंदिर बना था, जो गुजरात से गए भारतीयों ने बनाया था। मगर प्रधानमंत्री की यात्रा सिर्फ पुराने रिश्तों की वजह से ‘लंबे समय तक याद रखा जाने वाला’ दौरा नहीं है। असल में इंडो-पैसिफिक क्षेत्र में जिस तरह से भारत की भूमिका को सराहना मिली है और प्रशांत महासागर में चीन का दखल बढ़ा है, उसे देखते हुए यह देश भारत का महत्वपूर्ण मित्र साबित हो सकता है। इसीलिए वापस लौटकर प्रधानमंत्री मोदी ने अपने ट्वीट में ओमान से ‘व्यापार और निवेश समेत सभी क्षेत्रों में संबंधों में उल्लेखनीय गति’ मिलने का भरोसा जताया है। जिस तरह के रक्षा समझौते वहां हुए हैं, उनसे मुमकिन है कि आने वाले दिनों में हमें ओमान की नौसैन्य सुविधा भी हासिल हो।
    प्रधानमंत्री की इस यात्रा में जिस देश पर सबसे ज्यादा नजर थी, वह था फलस्तीन। फलस्तीन विवाद एक ऐसा मसला है, जिससे पश्चिम एशिया लगातार जूझता रहा है। इसने वहां जंगी माहौल तक बनाया है। हालांकि संयुक्त राष्ट्र ने अपने एक प्रस्ताव में ‘टू स्टेट सॉल्यूशन’ (द्वि-राष्ट्र समाधान) की व्यवस्था की है, पर यह रास्ता भी अब तक मंजिल नहीं पा सका है। ऐसे में, भारत के आगे बढ़ने से इस मसले का समाधान हो सकता है। भारत कितना प्रभावी हो सकता है, प्रधानमंत्री मोदी के रामल्ला जाने के लिए जॉर्डन की सरकार का हेलीकॉप्टर देना और सुरक्षा का जिम्मा इजरायली वायु सेना द्वारा निभाना इसका नमूना मात्र है। फलस्तीन के साथ हमारे अरसे से नजदीकी रिश्ते रहे हैं। संभवत: इसीलिए प्रधानमंत्री मोदी के फलस्तीन पहुंचने से पहले ही राष्ट्रपति महमूद अब्बास ने कहा कि भारत इस मसले को हल करने में अपनी भागीदारी निभाए।
भारत की तरफ उम्मीद भरी नजरों से देखने की वजह भी है। अभी पश्चिम एशिया एक नए माहौल से गुजर रहा है। अमेरिका ने अपने पत्ते खोल दिए हैं और यरुशलम को इजरायल की राजधानी के रूप में मान्यता दे दी है। जबकि पहले यही माना जाता था कि अमेरिका भी ‘टू स्टेट सॉल्यूशन’ का हिमायती है। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की घोषणा से अरब देशों में हलचल स्वाभाविक थी। मुश्किल यह भी है कि अरब देशों का भरोसा ईरान से डिगा हुआ है। लिहाजा वे चाहते हैं कि किसी तरह इजरायल को साथ लेकर फलस्तीन से विवाद निपटा लिया जाए। चूंकि इजरायल व फलस्तीन, दोनों देशों में भारत को पर्याप्त सम्मान मिलता रहा है, इसलिए प्रधानमंत्री मोदी की पहल बिल्कुल सटीक समय पर सामने आई है।
फलस्तीन पहुंचने वाले मोदी भारत के पहले प्रधानमंत्री हैं। उनका दौरा यह भी तस्दीक करता है कि भारत अब नेतृत्व की भूमिका में आगे बढ़ चुका है। अब तक तो यही होता रहा है कि ऐसे मसलों पर भारत तटस्थ रहता था और गुटनिरपेक्ष आंदोलन के मंच से हल निकालने को उत्सुक रहता था। मगर अब ऐसा लग रहा है कि भारत अपने बूते दुनिया भर में समर्थन जुटाने में सक्षम है। विवादित मसलों पर वह अपनी राय खुलकर जाहिर करने लगा है। इसका मतलब यह नहीं कि गुटनिरपेक्ष देशों के मंच को हमने किनारे कर दिया है। उसे तो अब भी पर्याप्त तवज्जो दी जा रही है। मगर नरेंद्र मोदी की ताजा यात्रा बता रही है कि भारत अब अगुवा की भूमिका में आने को तैयार है।
हालांकि फलस्तीन मसले का हल इतना आसान भी नहीं। जिस किसी देश ने इसमें हाथ डाला है, उसके हाथ झुलसे ही हैं। लिहाजा भारत को भी संभलकर आगे बढ़ना होगा। हमारे हक में एक बात और है। कई देश चाहते हैं कि भारत इस भूमिका में सामने आए। यानी भारत ने अपने तईं प्रयास किया, तो उसे अन्य मुल्क भी हाथोंहाथ लेंगे। इस समर्थन का एक पक्ष आतंकवाद भी है। दुनिया भर में यह एक बड़ी चुनौती बनकर उभरा है। चूंकि इससे निपटने का नई दिल्ली के पास करीबी व गहरा अनुभव है, और इसके लिए हमारी सराहना होती रही है, इसलिए संभव है कि आतंकवाद के खिलाफ जंग में भी भारत वैश्विक मंचों पर खास भूमिका में नजर आए। अब देखना सिर्फ इतना है कि भारत कितनी मजबूती के साथ आगे बढ़ता है? हालांकि अच्छी बात है कि हमारी सरकार इन तमाम पहलुओं को समझ रही है और इस मोर्चे पर खरी भी उतर रही है।


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