म्यांमार ( myanmar ) संकट से पार पाने की चुनौती

Myanmar is important for India and in no case it want to loose its friendship. India have to find practical way to resolve Rohingya issue where on the one hand it save the humanity but on the other also secure its strategic and political superiority in the region.

#Dainik_Jagaran

Complexity of Rohingya issue

रोहिंग्या मुसलमानों का मसला दिन प्रतिदिन पेचीदा होता जा रहा है। इस मसले की जद में भारत भी आ चुका है। रोहिंग्या मुस्लिम शरणार्थियों का मसला जब सुर्खियां नहीं बना था तब प्रधानमंत्री के म्यांमार दौरे ने यह दर्शाया था कि इस पड़ोसी देश को लेकर भारत को अपने रणनीतिक हितों और घरेलू आदर्शों के बीच संतुलन साधने की जद्दोजहद क्यों करनी पड़ती है? यह जद्दोजहद अभी भी करनी पड़ रही है और इसका पता इससे चलता है कि एक ओर नई दिल्ली यह स्पष्ट कर रही कि वह अवैध रूप से आए रोहिंग्या शरणार्थियों को स्वीकार नहीं करेगी वहीं दूसरी ओर वह बांग्लादेश भागकर आए इन शरणार्थियों को राहत सामग्री भेज रही है। इसी के साथ म्यांमार सरकार की सीधी आलोचना से बच रही है। भारतीय प्रधानमंत्री का म्यांमार दौरा ऐसे समय हुआ था जब रोहिंग्या संकट से निपटने को लेकर म्यांमार सरकार और आंग सान सूकी की आलोचना हो रही थी। इस आलोचना के स्वर लगातार तेज होते जा रहे हैं। रोहिंग्या संकट का दायरा काफी बड़ा है और सूकी की साख भी दांव पर लगी है। संयुक्त राष्ट्र के अनुसार म्यांमार के सैन्य बलों द्वारा चलाई जा रही दमनपूर्ण कार्रवाई के चलते लाखों रोहिंग्या बांग्लादेश का रुख कर रहे हैं।

भले ही सूकी किसी औपचारिक पद पर न हों पर एक तरह से म्यांमार की नेता वही हैं। मौजूदा हालात के लिए उन्होंने ‘आतंकियों’ को जिम्मेदार ठहराते हुए दखल देने से इन्कार कर दिया। रखाइन प्रांत में शुरू हुए इस संकट के बाद पहली बार उन्होंने कहा कि उनकी सरकार अपनी सबसे बड़ी चुनौती से जूझ रही है। हमसे डेढ़ साल में इस चुनौती का समाधान तलाशने की उम्मीद लगाना बेमानी होगा। रखाइन में कई दशकों से ही ऐसे हालात बने हुए हैं। इसकी जड़ें औपनिवेशिक दौर से जुड़ी हैं। देश में जो लोग मौजूद हैं वे भले ही हमारे नागरिक न हों, पर हमें उनकी देखभाल करने की जरूरत है। इसी के साथ उन्होंने यह रेखांकित किया कि हमारे पास पर्याप्त संसाधन नहीं हैं, फिर भी यह सुनिश्चित करेंगे कि सभी को कानूनी संरक्षण मिले।

Myanmar’s military establishment & why Ang san suu kyi remained silent about crisis

म्यांमार के सैन्य प्रतिष्ठान पर सूकी का कोई नियंत्रण नहीं है और उनके एवं सैन्य नेतृत्व के बीच अविश्वास की खाई अभी भी बनी हुई है। रोहिंग्या मुसलमानों से निपटने में सैन्य कार्रवाई की निंदा न करके उन्होंने सैन्य जनरलों को एक तरह से राजनीतिक संरक्षण दिया है। प्रधानमंत्री का म्यांमार दौरा बीते पांच वषों के दौरान किसी भी भारतीय प्रधानमंत्री की तीसरा म्यांमार दौरा था जिसमें दो तो उन्होंने ही किए हैं। जब इस मसले पर म्यांमार अलग-थलग पड़ता दिखा तो संयुक्त बयान के जरिये भारत ने उसके प्रति यह कहकर समर्थन व्यक्त किया, ‘रखाइन में हालिया आतंकी हमलों की भारत कड़ी निंदा करता है, जिनमें म्यांमार सुरक्षा बलों के कई जवानों को जान गंवानी पड़ी है। हम मानते हैं कि आतंक मानवाधिकारों का दमन करता है, लिहाजा आतंकियों का महिमामंडन नहीं किया जाना चाहिए।’

Myanmar and political & strategic concern of India

म्यांमार अपने अशांत रखाइन प्रांत में जहां रोहिंग्या मुसलमानों के खिलाफ हिंसा थमने का नाम नहीं ले रही हैं, वहां बुनियादी ढांचे और सामाजिक-आर्थिक सहायता के रूप में भारत की मदद लेने पर सहमत है। अपने व्यापक भू-राजनीतिक और सुरक्षा हितों को देखते हुए भारत लगातार म्यांमार को साधने में जुटा है। अपने आसपास चीन के बढ़ते प्रभाव को देखते हुए भारत इस देश में बुनियादी ढांचे और कनेक्टिविटी से जुड़ी परियोजनाओं के दम पर अपनी पैठ बढ़ाना चाहता है। म्यांमार में चीनी प्रभाव की काट तलाशना भारत के लिए मुश्किल होता जा रहा है, क्योंकि चीन हथियारों से लेकर अनाज तक सभी चीजें उसे बेच रहा है और अगर चीन म्यांमार में अपनी नौसैनिक मौजूदगी बढ़ाता है तो भारत के समक्ष हिंद महासागर में चुनौतियां और बढ़ जाएंगी। इसलिए यह कोई हैरानी की बात नहीं कि म्यांमार मोदी सरकार की ‘एक्ट ईस्ट नीति’ के मूल में है और उसे लेकर तमाम महत्वाकांक्षी परियोजनाओं का तानाबाना बुना जा रहा है।

Myanmar & Need of it for India

इनमें भारत-म्यांमार-थाईलैंड एशियाई त्रिपक्षीय राजमार्ग, कलादन मल्टी मॉडल प्जेक्ट, ड-रीवर-पोर्ट कार्गो ट्रांसपोर्ट प्जेक्ट के अलावा बिम्सटेक (बहु-स्तरीय तकनीकी एवं आर्थिक सहयोग के लिए बंगाल की खाड़ी के देशों की पहल) जैसी योजनाएं प्रमुख हैं। पूवरेत्तर भारत में अलगाववादियों से निपटने के लिए भी भारत म्यांमार के सुरक्षा बलों के साथ कंधे के कंधा मिलाकर काम कर रहा है। म्यांमार के साथ भारत की 1,600 किलोमीटर सीमा लगती है और अपनी जमीन से नगा विद्हियों को खदेड़ने में म्यांमार का रवैया बेहद सहयोगात्मक रहा है। भारत म्यांमार को ऐसे लोकतंत्र के रूप में उभरते हुए देखना चाहेगा जो अपने पड़ोसियों के साथ शांतिपूर्वक रहे। यह इच्छा शायद देर से जाकर पूरी हो, लेकिन अतीत में म्यांमार के साथ भारत के रिश्ते यही बताते हैं कि उसे न छेड़ना ही भारत के हित में रहा है।

नब्बे के दशक के मध्य तक भारत म्यांमार के सैनिक शासकों का कटु आलोचक हुआ करता था, पर तेजी से वृद्धि करते दक्षिण पूर्वी एशियाई देशों के साथ जुड़ने की हसरत के साथ अपनी एक्ट ईस्ट नीति को सिरे चढ़ाने के लिए भारत ने एक ओर जहां वहां के सैनिक शासकों को लेकर अपने तेवर नरम किए वहीं दूसरी ओर लोकतंत्र के लिए आवाज उठा रही सू की का मुखर समर्थन भी बंद किया। जब भारत ने देखा कि उसके लिए बेहद अहम प्राकृतिक गैस का एक बड़ा स्नोत तो उसके बगल में है और वह लगातार चीनी शिकंजे में कसता जा रहा है तो उसने सैनिक शासकों के साथ दोस्ती गांठना शुरू कर दी। म्यांमार के मामले में भारत के सामने पश्चिमी देशों के रुख पर टिकना मुश्किल था। यहां उसके समक्ष विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र की भूमिका और अपने सामरिक हितों को लेकर दुविधा बनी हुई थी।

भारत में म्यांमार के शरणार्थियों की बड़ी तादाद है जो 1998 में वहां हुई फौजी कार्रवाई के चलते यहां आए थे। भारतीय अभिजात्य वर्ग लंबे समय से सू की के नेतृत्व में चल रहे आंदोलन का समर्थक रहा है। 1993 में सू की को भारतीय नागरिक सम्मान से भी नवाजा जा चुका है। हाल के वषों में म्यांमार को लेकर भारत के रणनीतिक हित और ज्यादा अहम हो गए हैं, क्योंकि व्यापार, ऊर्जा और रक्षा क्षेत्ं में चीन के साथ म्यांमार की गलबहियां कुछ ज्यादा बढ़ी हैं। म्यांमार पर पश्चिमी देशों के प्रतिबंधों का विध करके भारत ने म्यांमार के सत्ता प्रतिष्ठान का भी पुख्ता भरोसा हासिल किया है।

India in no case want to loose Myanmar

125 वषों के बाद नवंबर 2015 में म्यांमार में पहली बार हुए खुले चुनाव में जब सू की के नेतृत्व वाली नेशनल लीग फॉर डेमोक्रेसी यानी एनएलडी ने बहुमत हासिल किया तो सू ने स्टेट काउंसलर और विदेश मंत्री का पद संभाला। इससे उन्हें म्यांमार के भविष्य को आकार देने के लिए सेना के साथ मिलकर काम करने का मौका मिला और यहीं भारत को अपना कौशल दिखाने की गुंजाइश मिली। रणनीतिक लाभ की यह स्थिति भारत ने बड़ी मेहनत से हासिल की है जिसे वह किसी भी सूरत में गंवाना नहीं चाहेगा।

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