निजी स्कूलों पर नकेल कसने का वक्त

After Ryan case it is time to think over privatization of schools and we need to come up with strong regulation to set standards .


#Dainik_Jagaran
Recent Context
पूरा देश गुरुग्राम के रेयान इंटरनेशनल स्कूल में पढ़ने वाले सात वर्षीय प्रद्युम्न की दर्दनाक मौत से आहत है। ऐसी त्रासदियां माता-पिता और परिवार पहले भी झेलते रहे हैं। थोड़े दिनों बाद हर ऐसी दुर्घटना भुला दी जाती है, क्योंकि पूरा ध्यान किसी अन्य दुर्घटना पर केंद्रित हो जाता है। 


देश में इस समय बहस बच्चों की सुरक्षा, स्कूलों के उत्तरदायित्व, सरकारी स्कूलों तथा निजी स्कूलों के रंग-ढंग से जुड़ी बातों पर छिड़ी हुई है। इसके साथ ही नियामक संस्थाओं, सरकारी स्कूलों की गिरती साख तथा उन्हें सुचारू रूप से चलाने के लिए नियुक्त अधिकारियों की अक्षमताओं, निजी स्कूल चलाने वालों के उद्देश्यों, प्रबंधन क्षमता, राजनीति और राजनेताओं के शिक्षा में प्रवेश के मुद्दे भी चर्चा के केंद्र में हैं।

Administrative deficit


देखा जाए तो हर त्रासदी के बाद प्रशासन की अक्षमता सामने आती है और एक बार फिर यह स्पष्ट हो जाता है कि व्यवस्था कितनी शिथिल और अपनी जिम्मेदारियों से दूर हो गई है। हरियाणा सरकार चार दिन तक तय ही नहीं कर पाई कि इस दुर्घटना में स्कूल प्रबंधन की भी कोई जिम्मेदारी है? हरियाणा सरकार को सजगता का परिचय देते हुए स्कूल को तुरंत अपने हाथ में ले लेना चाहिए था, लेकिन उसकी ओर से विरोधाभासी बयान आते रहे! यदि सरकार ने चौबीस घंटे में स्कूल की कमान संभाल ली होती तो देश भर के स्कूलों को जो संदेश जाता, वह अब कुछ भी करने से नहीं जाएगा। हालांकि अब राज्य सरकार ने कहा है कि तीन महीने वही रेयान का संचालन करेगी। बहरहाल सरकारी संस्थाओं की ओर से आईं सभी प्रतिक्रियाएं अपेक्षित और घिसीपिटी परिपाटी पर ही रहीं। अर्थात सीबीएसई ने अपने स्कूलों को नए ‘दिशानिर्देश’ भेज दिए, उसने स्कूल से रिपोर्ट मांग ली, मानवाधिकार आयोग ने भी रिपोर्ट तलब कर ली, केंद्र सरकार ने भी निर्देश जारी कर दिए! क्या इतना ही काफी है? बेशक नहीं।

Increasing Privatisation of Education
देश में निजी स्कूल तेजी से बढ़ रहे हैं। नए-नए निवेशक इस क्षेत्र में आ रहे हैं। सारे देश में ऐसा माहौल बनाया जा रहा है कि स्कूल शिक्षा को सुधारने का एक ही रास्ता है-उनका निजीकरण का देना
    कई राज्य सरकारें अपने स्कूलों को निजी स्कूलों की चेन चलाने वालों को दे चुकी हैं। बच्चों की घटती संख्या के कारण सरकारी स्कूलों का ‘विलय’ भी तेजी से किया जा रहा है। 
आखिर सरकारी स्कूलों की इस बदहाली के लिए जिम्मेदार कौन है?
 वास्तव में निजी स्कूलों में निरंकुशता की एक प्रमुख वजह सरकारी स्कूलों की बदहाली है। हालांकि इसके अन्य भी कारण हैं। जैसे-ऐसे अधिकांश बड़े नाम वाले स्कूलों के पीछे या तो राजनेता स्वयं होता है या कोई बड़ा बिल्डर, शराब-माफिया या काले धन को उगाहने वाला कोई अन्य व्यक्ति या परिवार!
चूंकि देश में नया स्कूल खोलने का अधिकार सभी को है, अत: नियामक संस्था चाहकर भी ऐसे लोगों को स्कूल खोलने से नहीं रोक सकती है। उसके पास ऐसा कोई ‘अधिकार’ ही नहीं है कि वह स्कूल खोलने की अनुमति उन्हें ही दे जिनकी पृष्ठभूमि शिक्षा से जुड़ी रही हो! कुछ अपवादों को छोड़ दें तो यह भी किसी से छिपा नहीं है कि जो निरीक्षण समितियां भेजी जाती हैं, वे स्वागत-सत्कार, सौहार्द के आदान-प्रदान से आगे भी बढ़ जाती हैं! निजी स्कूलों में प्रबंधन की आंख के इशारे पर और निर्धारित से कम वेतन लेकर भी अधिक काम करने के लिए मजबूर अध्यापक हमारे बच्चों की नियति बन गए हैं। सरकारी स्कूलों में उनका ‘गरीबी रेखा के नीचे’ लगातार जाना और निजी स्कूलों में अधिक से अधिक भौतिक सुविधा प्रदान करने के नाम पर लगातर फीस बढ़ाते रहना भी इसी नियति के भाग बन गए हैं।

क्या सरकारों को शिक्षा सुधारों को लेकर हथियार डाल देने का हक है? 
संविधान ने तो उन्हें ऐसा कोई अधिकार नहीं दिया है। यह राज्य सरकारों का दायित्व है कि जनसंख्या वृद्धि के अनुपात को ध्यान में रखकर नए स्कूल खोलें, अध्यापकों के पद समय से पहले भरे जाएं, उसमें प्रशिक्षण, योग्यता और अभिरुचि के साथ कोई समझौता न किया जाए! स्कूलों के ‘विलय’ के बाद उन वायदों का क्या होगा कि हर बच्चे को प्राइमरी स्कूल डेढ़ किलोमीटर के अंदर ही उपलब्ध कराया जाएगा? उन ग्यारह-बारह साल की लड़कियों की शिक्षा का क्या होगा जिन्हें तीन-चार किलोमीटर से अधिक दूरी पर स्कूल जाने के लिए उनके माता-पिता तैयार नहीं होंगे? अंतत: उन्हीं की शिक्षा प्रभावित होगी जिन्हें प्राथमिकता के आधार पर शिक्षा में लाने का वायदा पिछले सात दशकों से किया जा रहा है? क्या अब वह समय नहीं आ गया है जब देश अपनी शिक्षा की सर्व-सुलभता, बराबरी तथा गुणवत्ता को वह प्राथमिकता दे जो उसे मिलनी चाहिए? यह तो निर्विवाद है कि किसी भी विकासशील देश को सबसे अधिक फायदा शिक्षा के क्षेत्र में किए गए निवेश से ही होता है, फिर उसमें सरकारें कोताही कैसे कर सकती हैं? यदि ऐसा नहीं किया गया तो देश में असमानता बढ़ती जाएगी और उससे जो आक्रोश तथा निराश पैदा होगी वह समाज के लिए अनेक समस्याएं खड़ी करेगी। यदि शिक्षा में सरकारी भागीदारी नहीं बढ़ाई गई और निजी क्षेत्र को मनमानी करने की स्थिति को नियंत्रित नहीं किया गया तो आर्थिक क्षेत्र में लगातार बढ़ रही खाई और चौड़ी होती जाएगी।

निजी स्कूलों ने शिक्षा के अधिकार कानून (आरटीई एक्ट) के अंतर्गत 25 प्रतिशत स्थान कमजोर वर्ग के बच्चों को देने का जो प्रावधान रखा गया था उसका प्रतिरोध पूरी ताकत से किया। वे आज भी अनेक प्रकार के अवरोध लगा रहे हैं। इससे उनकी मानसिकता उजागर हो रही है। इसमें परिवर्तन तभी हो सकता है जब सरकारें स्थिति की गंभीरता को समझें और यह निश्चय करें कि स्कूल किसी भी रसूखवाले का क्यों न हो, उसे व्यापार का स्थान नहीं बनने दिया जाएगा। सीबीएसई एक साल नए स्कूलों को मान्यता देने पर रोक लगाकर इस समय संबद्ध स्कूलों के सुचारू रूप से संचालन के लिए अपनी संपूर्ण शक्ति लगाए। राष्ट्रीय स्तर पर यह विचार होना चाहिए कि अध्यापकों को कम वेतन देना और कागजों पर नियमानुसार निर्धारित दिखाना आखिर किस प्रकार के वातावरण को स्कूल में जन्म देता गया? क्या कोई स्कूल ऐसा करने के बाद बच्चों को मूल्यपरक शिक्षा देने का दम भर सकता है? फीस बढ़ाने में नियमों का पालन न करना, हर प्रकार से शोषण करना कब तक जारी रहेगा? निजी स्कूलों को कितनी स्वायत्तता दी जा सकती है और कितना नियंत्रण आवश्यक है इस पर भी निर्णय लेने का साहस अब सरकारों को दिखाना ही चाहिए। किसी भी देश, समाज और सरकार को अपने बच्चों के भविष्य से किसी को भी खिलवाड़ करने की अनुमति नहीं देनी चाहिए
 

Download this article as PDF by sharing it

Thanks for sharing, PDF file ready to download now

Sorry, in order to download PDF, you need to share it

Share Download