उच्च शिक्षा और अंतरराष्ट्रीय मानदंडों की भारत के सन्दर्भ में प्रासंगिकता

आजकल देश में उच्च शिक्षा की कमियों को दूर कर उसमें गुणवत्ता लाने की चर्चा बड़े जोरों पर है| गुणवत्ता के सरोकार के बारे में हमारा ध्यान उनअंतरराष्ट्रीय मानदंडों की ओर ही जा रहा है जो अन्यत्र देश काल के संदर्भ में ठीक हो सकते हैं, लेकिन यह क्या यह जरूरी है की वो  हर जगह ठीक हों इस पर विचार कर ही हमें सही दिशा में उच्च शिक्षा में सुधर के लिए कदम उठाने चहिए|

अंतरराष्ट्रीय मानदंड के  सार्वभौम पैमाने  

  • छात्र संख्या
  • कक्षा में छात्रों और अध्यापक के बीच का अनुपात
  • संस्था की प्रतिष्ठा
  • विदेशों के साथ संबंध
  •  अंतरराष्ट्रीय प्रकाशनों की संख्या 

उच्च शिक्षा संस्थानों की ranking

ranking

गुणवत्ता की पैमाइश के नक़ल के प्रभाव

हम अपने विश्वविद्यालयों की तुलना हार्वर्ड, ऑक्सफोर्ड और एमआइटी जैसी विदेशी संस्थाओं से करना चाह रहे हैं। उनकी ही तर्ज पर जांच-परख करने पर हमारे श्रेष्ठ विश्वविद्यालय या उच्च शिक्षा के अन्य संस्थान फिसड्डी ही साबित होते हैं और हम अंतरराष्ट्रीय रैंकिंग की सूची में कहीं ठहरते ही नहीं हैं। इन्हीं मानकों पर संतुष्ट होने पर शिक्षण संस्थाओं को ए/बी/सी/डी ग्रेड दी जा रही है। प्राध्यापकों की पदोन्नति में एपीआइ की गणना हो रही है और इसके चलते :

  • आजकल शिक्षा संस्थानों में हम शोध, संगोष्ठी और प्रकाशन की तत्वहीन मारामारी का अद्भुत नजारा देखने को बाध्य हो रहे हैं।
  • गुणहीन शोध पत्रिकाओं की भीड़ लग रही है और शोध में नकल और चोरी की घटनाएं दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही हैं।
  • शिक्षा के परिसर में आज पढ़ने आने वाला युवा विद्यार्थीनहीं, बल्कि अच्छे परीक्षार्थीबनने के लिए ही यत्नशील रहता है।
  • सफलता यानी अच्छे अंक पाने पर उसका जोर निरंतर बढ़ता जा रहा है।
  • ट्यूशन या कोचिंग की जरूरत और उसकी बढ़ती व्यावसायिक गिरफ्त को देखने से यही लगता है कि प्रचलित शिक्षा अधूरी, दोषपूर्ण और अपर्याप्त है। इसलिए सही अर्थो में व्यक्तित्व और कुशलता की वृद्धि की दृष्टि से अव्यावहारिक है।

मानदंडों की भारत में प्रासंगिकता

कई निष्कर्ष हमारे भारतीय समाज के लिए असामान्य हैं और प्रासंगिकता की दृष्टि से एक हद तक संदिग्ध भी, लेकिन हम उन्हें अपनाने के लिए अंधी और अंतहीन दौड़ में शामिल हो रहे हैं। आज विभिन्न अंतरराष्ट्रीय संगठन प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से दिशा-निर्देश देते हैं, जिनके अनुसार नीति निर्धारण किया जाता है। कौन से विषय आगे बढ़ेंगे और उन्हें किन मुद्दों पर शोध के लिए क्या सहायता मिलेगी? यह सब उन्हीं नीतियों पर निर्भर करता है न कि स्थानीय दशाओं या क्षमताओं के ऊपर। सबमें ज्ञान की प्रकृति और उनके निर्माण और प्रयोग में सांस्कृतिक संदर्भ की प्रासंगिकता अलग-अलग है। 

क्या है आवश्यकता

शिक्षा एकरूपी नहीं होनी चाहिए। सिखाने वाला संगठन ऐसा हो जो स्वतंत्रता/स्वायत्तता पर बल दे। उसे बदलाव के लिए तत्परता होना चाहिए। तभी रचनाशीलता आ सकेगी। उसे रिजिडनहीं होना चाहिए। शैक्षिक संस्थान वस्तु नहीं पैदा करते वे मनुष्य रचते हैं और ज्ञान के द्वारा उसका परिष्कार और परिमार्जन करते हैं। हमें विचार करना चाहिए कि उच्च शिक्षा का उद्देश्य क्या है? हम किस तरह के मनुष्य की परिकल्पना कर रहे हैं? हर शिक्षा संस्था अपनी शक्ति और विशिष्टता के साथ उन क्षेत्रों को रेखांकित करे जिनमें प्रामाणिक रूप से उसके द्वारा योगदान संभव है। उसका उद्यम यदि उस क्षेत्र विशेष में केंद्रित हो तो बात बन सकती है। मोटे तौर पर कह सकते हैं कि गुणात्मक शिक्षा की यह स्वाभाविक अपेक्षा होती है कि उसमें छात्र और अध्यापक, दोनों ही ज्ञान की प्रक्रिया के साथ गहराई से जुड़ें। गुणवत्ता की तलाश के लिए दरकार है आंतरिक पुनराविष्कार की

 

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