CURRENT AFFAIRS 26 November 2018

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1.चुनाव में दस हजार से ज्यादा नकद खर्च नहीं कर सकेंगे प्रत्याशी

  • चुनाव में बढ़ते धन प्रवाह पर नजर रखने के लिए चुनाव आयोग ने उम्मीदवारों के प्रतिदिन नकद चुनाव खर्च को 20 हजार रुपये से घटाकर 10 हजार रुपये कर दिया है। आयोग के अनुसार ऐसा चुनाव खर्च में पारदर्शिता लाने और आर्थिक लेन-देन के इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों के प्रचलन में आने के चलते किया गया है।दस हजार रुपये से ज्यादा का लेन-देन रेखांकित चेक या अन्य इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों से किया जाए। इसके लिए उम्मीदवार अलग से अपना बैंक खाता खुलवाएं। 2017 में आयकर कानून में हुए बदलाव के मद्देनजर नकद खर्च की ताजा सीमा तय की गई है।

USE IN PAPER 2-DEMOCRACY,ELECTION

2.गणित में फेल हो रही छात्र ने की खुदकशी

             USE IN PAPER 4-ETHICS

3.भारत के साथ सैन्य अभ्यास के लिए मालदीव ने भरी हामी

  • ऑपरेशन इंद्रमें दिखा रूस-भारत का दम
  • इसलिये चुना मैकेनाइज्ड इंफेंट्री को

· ये इंफेंट्री भारत के हाई एल्टीट्यूड एरिया में तैनात है। इसको इंफेंट्री व आम्र्ड को मिलाकर बनाया गया है। इसे किंग ऑफ बैटल भी कहा जाता है।

USE IN PAPER 2-IR  PRELIMINARY

4.सूर्यास्त के बाद भी ऐतिहासिक स्थलों को खोलने पर विचार

  • भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के तहत आने वाले लगभग 4,000 ऐतिहासिक स्थलों को सूर्यास्त के बाद भी देखने की इजाजत मिल सकती है। अगर संस्कृति मंत्रलय द्वारा तैयार इस प्रस्ताव को मंजूरी मिलती है तो संरक्षित स्मारक रात नौ बजे तक पर्यटकों के लिए खुल सकेंगे।

MAINS-ART & CULTURE

5.काले धन पर सूचना देने से पीएमओ का इन्कार

  • काले धन पर सूचना देने से पीएमओ का इन्कार प्रधानमंत्री कार्यालय (पीएमओ) ने सूचना का अधिकार (आरटीआइ) कानून के एक प्रावधान का हवाला देते हुए विदेश से लाए गए काले धन के बारे में ब्योरा देने से इन्कार कर दिया है। पीएमओ ने इसके लिए आरटीआइ के उस प्रावधान का हवाला दिया, जिसमें सूचना की जानकारी सार्वजनिक होने से जांच और दोषियों के खिलाफ मुकदमा चलाने में बाधा उत्पन्न हो सकती है।

USE IN PAPER 2-ACCOUNTABILITY,DEMOCRACY,RTI

6.जलवायु परिवर्तन से अमेरिका को हो सकता है अरबों डॉलर का नुकसान

  • अमेरिकी सरकार की एक नई रिपोर्ट में जलवायु परिवर्तन और इसके भयानक प्रभावों के बारे में चेतावनी दी गई है कि इससे अर्थव्यवस्था को सदी के अंत तक सैकड़ों अरब डॉलर का नुकसान उठाना पड़ सकता है। फोर्थ नेशनल क्लाइमेट असेसमेंटनामक इस रिपोर्ट को दिसंबर में आना था, लेकिन ट्रंप प्रशासन ने इसे शुक्रवार को ही जारी कर दिया। बता दें कि एक ओर जहां रिपरेट जलवायु परिवर्तन से अमेरिका के भावी नुकसान की ओर इशारा कर रही है, वहीं दूसरी ओर राष्ट्रपति डोनाल्ड टंप पिछले साल पेरिस समझौते से अमेरिका को अलग कर चुके हैं। उनका कहना था कि इससे देश पर अतिरिक्त आर्थिक बोझ पड़ रहा है।

USE IN PAPER 3-ECONOMICS-ENVIRONMENTAL DISASTER

7.ब्रिटिश संसद ने जब्त किए फेसबुक के आंतरिक दस्तावेज

  • डाटा चोरी के आरोपों पर सोशल नेटवर्किंग साइट फेसबुक की मुश्किलें कम होती नहीं दिख रही हैं। ब्रिटेन की संसद ने कैंब्रिज एनालिटिका से जुड़े मामले में फेसबुक के कुछ आंतरिक दस्तावेज जब्त किए हैं। द गार्जियन में छपी खबर के मुताबिक, इन दस्तावेज में फेसबुक के सीईओ मार्क जुकरबर्ग और कंपनी के उच्च अधिकारियों के बीच के ईमेल भी शामिल हैं। एक दिन पहले ही इस मामले में पूछताछ के लिए सात देशों की समिति के गठन का फैसला हुआ है।

USE IN PAPER 2-SOCIAL MEDIA ,DATA DEMOCRACY

8.पानी से विषाक्त पारा हटाने की नई तकनीक खोजी

  • विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के अनुसार पारा मनुष्य शरीर के लिए सबसे ज्यादा हानिकारक पदार्थ है। यह हमारे तंत्रिका तंत्र को प्रभावित कर सकता है, हमारे दिमाग को विकसित होने से रोक सकता है। यह बच्चों के लिए विशेषकर नुकसानदेह होता है और गर्भावस्था में मां से उसके बच्चे में भी आ जाता है। पारा प्रकृति में आसानी से फैलता है और हमारी फूड चेन में भी आ जाता है। उदाहरण के लिए ताजा पानी की मछली में सबसे ज्यादा पारा होता है। बता दें कि इससे पानी को भी पीने योग्य बनाया जा सकता है। वहीं, दूसरी ओर पानी से पारा अलग करने की विधियां और तकनीक बहुत अधिक कारगर नहीं हैं। वहीं, जो विधियां बहुत अच्छी हैं उनमें खर्च इतना बढ़ जाता है कि उसका इस्तेमाल नहीं किया जा सकता।

· इस विधि में इलेक्ट्रोड प्लेट को दोबारा उपयोग में लाने के लिए भी बनाया जा सकता है और पारे को भी सुरक्षित तरीके से हटाया जा सकता है। इस तकनीक में उच्च क्षमता वाले इलेक्ट्रोड का एक परमाणु पारा के चार परमाणुओं से बंधन बनाता है। परमाणु केवल सतह पर ही बंधन नहीं बनाते हैं, बल्कि मैटेरियल में अंदर तक जाकर मोटी परत बनाते हैं।

USE IN PAPER 3-ENVIRONMENT,RESOURCE,SCIENCE & TECH

  • EDITORIAL

1.पंजाब में खतरे की नई आहट

          पाकिस्तान समर्थित आतंकी

  • खुफिया एजेंसियों ने भी चेतावनी जारी की थी कि जम्मू-कश्मीर के रास्ते पाकिस्तान समर्थित आतंकी पंजाब में दाखिल हो गए हैं। सेना प्रमुख जनरल बिपिन रावत ने भी आतंकी हमले को लेकर चेताया था। प्रथमदृष्टया यह अलगाववादियों की करतूत दिखती है जिन्हें आइएसआइ समर्थित खालिस्तानी या कश्मीरी आतंकी समूहों का समर्थन मिला। पाकिस्तान अपनी के-2 रणनीति को पुनर्जीवित करने में जुटा है। के-2 में कश्मीर और खालिस्तान दोनों आते हैं। यह पाकिस्तान की उस ऑपरेशन टोपाक रणनीति का हिस्सा है जिसकी अवधारणा पाकिस्तानी सैन्य तानाशाह जनरल जिया उल हक ने पेश की थी। इसका मकसद भारत को रणनीतिक रूप से छिन्न-भिन्न कर पंजाब में उथल-पुथल से जम्मू-कश्मीर को शेष भारत से अलग करना था। पाकिस्तान और विदेशों में बसे अलगाववादी सिख इसी कवायद में जुटे हैं जिससे पंजाब में अलगाववाद को नए सिरे से उकसाकर खालिस्तान मुद्दे को उभार सकें। आइएसआइ ने लेफ्टिनेंट कर्नल शाहिद महमूद मलही को इसका जिम्मा सौंपा है कि वह अमेरिका, कनाडा और यूरोपीय देशों में बसे सिखों की भावनाओं को भड़काकर खालिस्तान के लिए रेफरेंडम 2020’ के पक्ष में माहौल बनाएं। मलही जाति के लोगों की भारत और पाकिस्तान दोनों देशों के पंजाब प्रांतों में मौजूदगी है। पहले ये पाकिस्तान के सियालकोट के आसपास बसे थे। पाकिस्तान में मलही मुस्लिम और भारत में सिख मलही मुख्य रूप से अमीर जमींदार हैं। सिख जटों में से अधिकांश मलही 1947 में भारतीय पंजाब में आकर बस गए थे। मलही सिख प्रवासियों में तमाम लोग अमेरिका, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया और अन्य पश्चिमी देशों में बड़े कारोबारी और किसान हैं। कर्नल मलही ने सिख भारतीय प्रवासियों विशेषकर जट सिखों के साथ बढ़िया रिश्ते बना लिए हैं।

खालिस्तान की मांग

· वैसे खालिस्तान की मांग 1940 के दशक से ही उठाई गई, लेकिन इसने 1970 के दशक में जोर पकड़ा, क्योंकि तब आंतरिक और बाहरी दोनों मोर्चो पर इसके लिए माकूल हालात थे। खालिस्तानी पंजाब और आसपास के इलाकों को मिलाकर सिखों के लिए एक अलग देश खालिस्तान बनाना चाहते थे। भारत के कुछ नेता और कुछ प्रवासी सिख इसके लिए जनरल जिया उल हक के संपर्क में आए और इस तरह पंजाब और आसपास के इलाकों को अशांत करने के लिए आतंकियों को प्रशिक्षण, हथियार और पैसों की मदद मुहैया की जाने लगी। जानमाल के नुकसान और कड़े संघर्ष के बाद सुरक्षा बलों ने 1993 तक खालिस्तानी आंदोलन को कुचल डाला। इसके बाद पंजाब में दो दशक अमन और चैन से गुजरे। हालांकि भूमिगत तौर पर सक्रिय कुछ धड़े और विदेशों में बसे अलगाववादी सिखों ने कभी हार नहीं मानी। इस मुहिम को फिर से जिंदा करने की एक बड़ी कोशिश के तहत लंदन में 12 अगस्त, 2018 को खालिस्तान के समर्थन में एक बड़ी रैली आयोजित की गई। इसमें खालिस्तान रेफरेंडम, 2020’ प्रस्ताव भी पारित हुआ। इसमें एक स्वतंत्र सिख राष्ट्र के लिए लंदन घोषणापत्रका भी एलान किया गया। इसका आयोजन कर्नल मलही के निर्देश पर ब्रिटिश संस्था सिख फॉर जस्टिस ने किया। उन्हें पाकिस्तानी मूल के हाउस ऑफ लॉर्डस के गैर-संबद्ध सदस्य लॉर्ड नजीर अहमद, ग्रीन पार्टी की सदस्य कैरोलिन लुकास और लेबर पार्टी के सांसद मैट वेस्टर्न का भी समर्थन मिला।

पंजाब की मौजूदा घरेलू परिस्थितियां

  • पंजाब की मौजूदा घरेलू परिस्थितियां कुछ-कुछ 1970 के दशक से मेल खा रही हैं। वर्ष 1972 में पंजाब विधानसभा का चुनाव हारने के बाद शिरोमणि अकाली दल यानी शिअद में कुछ अकालियों ने कहा कि पार्टी को सिख धार्मिक एजेंडा अपनाना चाहिए। वर्ष 1973 के आनंदपुर साहिब संकल्प में सिखों को एक कौम यानी देश के रूप में परिभाषित किया। संकल्प में केंद्र से राज्य के लिए अधिक शक्तियों के हस्तांतरण का उल्लेख था और कुछ विशेष राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक मुद्दों को उठाया गया था। 2017 में हार के बाद कुछ बेसब्र लोग फिर वैसी तिकड़मों का सहारा ले रहे हैं। 1970 के दशक में कांग्रेस को लगा कि शिअद की राजनीति धार्मिक मामलों और गुरुद्वारे के इर्दगिर्द ही घूम रही है। शिअद को मात देने के लिए संजय गांधी और ज्ञानी जैल सिंह ने जरनैल सिंह भिंडरांवाले को मसीहा के तौर पर पेश किया। इसके बाद हालात और बिगड़ते गए।
  • कट्टरपंथियों की खुशामद के लिए पंजाब कैबिनेट ने भारतीय दंड संहिता में 295एए के रूप में नई धारा ही जोड़ दी जिसके अनुसार, ‘यदि कोई भी धार्मिक भावनाएं भड़काने की मंशा से श्री गुरु ग्रंथ साहिब, श्रीमदभगवदगीता, पवित्र कुरान और पवित्र बाइबल को किसी भी तरह का नुकसान पहुंचाने का प्रयास करेगा तो इस अपराध के लिए उसे आजीवन कारावास का दंड दिया जाएगा।

आइपीसी की धारा 295

  • आइपीसी की धारा 295ए में इसके लिए पहले से ही तीन साल तक की सजा का प्रावधान है। प्रस्तावित ईशनिंदा अधिनियम उन पंथिक तत्वों की भावनाएं भुनाने का प्रयास है जो शिअद की रीढ़ माने जाते हैं। पंजाब के मुख्यमंत्री संभवत: पाकिस्तान में ईशनिंदा कानून के दुरुपयोग से वाकिफ नहीं है जहां उससे जुड़ी तमाम त्रसदियां सामने आई हैं। ईशनिंदा को आपराधिक बनाना एक तरह से कट्टरपंथियों के समक्ष समर्पण करने जैसा ही है। वहीं एक असहज तथ्य यह भी है कि पंजाबी युवाओं की 60 प्रतिशत आबादी मादक पदार्थो की चपेट में आ गई है। खालिस्तानियों के लिए उन्हें अपनी मुहिम से जोड़ना आसान होगा। वहीं गुरु नानक देव के 550वें प्रकाश पर्व के उपलक्ष्य में करतारपुर कॉरिडोर खोलने की पाकिस्तानी पेशकश बड़े पैमाने की घुसपैठ कराने का एक जाल है। प्रधानमंत्री को इन हालात पर विचार कर अलगाववादी भावनाएं भड़काने वालों से सख्ती से निपटने की पहल करनी चाहिए। अपना घर दुरुस्त रखकर ही भारत पाकिस्तान के खिलाफ तमाम दांव आजमा सकता है। हमेशा याद रखें कि सावधानी में ही सुरक्षा है।

2.दस साल में कितनी बदली तस्वीर

  • http://epaper.livehindustan.com/epaperimages/26112018/26112018-NG1R-DEL-12/90463900.jpg 26 नवंबर, 2008 की तारीख भारतीय इतिहास में एक ऐसे नासूर की तरह है, जिसकी टीस एक दशक गुजर जाने के बाद भी बदस्तूर बनी हुई है। यही वो तारीख है जब बड़े-छोटे अनेक आतंकी हमलों से दो-चार होते रहे भारत ने अपने इतिहास का सबसे बड़ा आतंकवादी हमला ङोला था। देश की आर्थिक राजधानी मुंबई आतंकियों के निशाने पर रही थी। हमले को अंजाम देने वाले दस आतंकियों में से नौ तो मार गिराए गए, जबकि एक हमलावर अजमल कसाब को जिंदा पकड़ने में कामयाबी मिली थी। 26/11 के हमले को आज दस साल हो गए हैं, लेकिन उसकी याद आज भी लोगों के दिलों में दहशत भर देती है।

· क्या सबक लिया हमने : यह ठीक है कि मुंबई हमले के बाद देश में फिर वैसा कोई बड़ा हमला नहीं हुआ, लेकिन सीमित प्रभाव वाली आतंकी वारदातें होती रही हैं। विभिन्न महत्वपूर्ण स्थानों को आतंकी निशाना बना चुके हैं। गुरदासपुर, पठानकोट और उड़ी जैसे आतंकी हमले हो चुके हैं। पठानकोट एयरबेस और उड़ी में सेना पर हुए हमले तो निश्चित तौर पर बड़ी गंभीर चिंता पैदा करते हैं। जिन जवानों पर देश की सुरक्षा का दायित्व है, यदि उनके ठिकानों पर तक आतंकी इस तरह से हमले कर ले रहे हैं तो इसके बाद यह स्वीकारने में कोई हिचक नहीं होनी चाहिए कि आतंकवाद के विरुद्ध अब भी हमारी तैयारी पूरी नहीं है।

· 26/11 के हमलों के बाद पूर्व गृह सचिव जीके पिल्लई की निगरानी में सुरक्षा क्षेत्र की खामियों को दुरुस्त करने पर काम हुआ था, लेकिन स्वयं पिल्लई के अनुसार वास्तविकता यह है कि भारत दूसरे 26/11 को रोकने में अभी सक्षम नहीं है। हम 2008 के मुकाबले बस 40 फीसद बेहतर तैयार हैं। सबसे बड़ी दिक्कत पुलिस की भारी कमी और पुलिसकर्मियों की अच्छी ट्रेनिंग न होना है। इससे पुलिस तंत्र कमजोर होता है, जिसके कंधों पर हमले को सबसे पहले रोकने और उसका जवाब देने की जिम्मेदारी होती है। मुंबई हमले ने हमारी सुरक्षा व्यवस्था की जिन खामियों को उजागर किया, उनमें दो बड़ी खामियां सुरक्षा एजेंसियों में तालमेल का अभाव और पुलिस के पास अत्याधुनिक आयुधों का न होना थीं। इसके अलावा राष्ट्रीय, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी सुरक्षा एजेंसियों में तालमेल न होना मुंबई हमले का एक बड़ा कारण बना। 2014 में एक अमेरिकी रिपोर्ट में कहा गया था कि मुंबई हमला खुफिया तंत्र के इतिहास में सर्वाधिक घातक चूकों में से एक है। तीन देशों अमेरिका, ब्रिटेन और भारत की खुफिया एजेंसियां हाईटेक निगरानी और अन्य उपकरणों द्वारा जुटाई गई सभी जानकारियों को एकसाथ रखने में नाकाम रहीं, जिनसे आतंकी हमले को रोका जा सकता था।

· कहने की जरूरत नहीं कि यह तत्कालीन संप्रग सरकार की बड़ी नाकामी थी कि उसने विदेशी सुरक्षा एजेंसियों को भरोसे में लेकर भारतीय एजेंसियों से सूचनाएं साझा करने के लिए तैयार नहीं किया। हालांकि वर्तमान सरकार ने इस दिशा में कुछ कदम उठाएं हैं, जिनमें से एक प्रमुख कदम है मल्टी एजेंसी सेंटर (मैक) को सक्रिय और प्रभावी बनाना। मैक में 24 सुरक्षा एजेंसियों के अधिकारी शामिल हैं, जो बैठकें कर एक-दूसरे से सूचनाएं साझा करते हैं। कई स्नोतों से ऐसी खबरें आती रही हैं कि इस संस्थान की सक्रियता से आतंकी हमलों को रोकने में बड़ी मदद मिली है। हालांकि पठानकोट हमले में सुरक्षा एजेंसियों के बीच तालमेल की कमी सामने आना दिखाता है कि अभी इस दिशा में बहुत कुछ किए जाने की जरूरत है। अब बात पुलिस बलों के आधुनिकीकरण की तो यह मांग लंबे समय से हो रही है और जब तक नेताओं द्वारा इसकी बात भी की जाती है, लेकिन इस दिशा में अब तक कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया।

· पीड़ितों को न्याय का प्रश्न : मुंबई हमले के दस हमलावरों में से एक जिंदा पकड़ा गया था, जिसे हमले के लगभग चार साल बाद 21 नवंबर, 2012 को मुंबई की यरवदा जेल में फांसी दे दी गई थी, लेकिन पाकिस्तान की जमीन पर बैठे इस हमले के असली मास्टरमाइंड जकीउर्रहमान लखवी और हाफिज सईद जब तक आजाद हैं, तब तक इस मामले में न्याय को पूरा नहीं माना जा सकता है। उस हमले में जिंदा पकड़े गए आतंकी कसाब के बयान से लेकर अनगिनत सुबूत इस बात की तस्दीक कर चुके हैं कि मुंबई हमले की साजिश पाकिस्तान की जमीन पर रची गई थी। इसके अलावा भारत द्वारा कई-कई बार सुबूत सौंपे जाने के बावजूद पाकिस्तान ने अभी तक इन गुनहगारों पर कोई कार्रवाई नहीं की है।

  • हाल ही में आई खबर के मुताबिक पाकिस्तान अपनी अदालत में चल रहे मुंबई हमले के मुकदमों को लेकर तरह-तरह के अड़ंगे लगा रहा है। ताजा मामला हमले से संबंधित 27 भारतीय गवाहों का है जिन्हें पाक की अदालत अपने यहां पेश होने को कह रही है। इस्लामाबाद ने इस साल जनवरी में नई दिल्ली से इन गवाहों को भेजने को कहा था, लेकिन भारत की दलील है कि पाक इनकी गवाही की आड़ में धूल झोंक रहा है। यह बिल्कुल ठीक बात है कि पाकिस्तान की मंशा किसी तरह की कार्रवाई करने की नहीं है, अन्यथा अमेरिका द्वारा गिरफ्तार आतंकी डेविड हेडली के बयान ही संबंधित आरोपियों पर कार्रवाई करने के लिए काफी हैं। जाहिर है, 26/11 मामले में पाकिस्तान की समूची कार्रवाई दिखावा भर है। हालांकि संतोषजनक बात यह है कि मौजूदा सरकार की कूटनीतियों के कारण आज विश्व बिरादरी में आतंकवाद के खिलाफ पाकिस्तान का दोहरा चेहरा बेनकाब होता जा रहा है, जिसकी एक बानगी अमेरिका द्वारा पाकिस्तान के सुरक्षा खर्च में हो रही कटौती है। इसके अलावा उसे अलग-थलग करने में भी सरकार कामयाब नजर आ रही है, लेकिन इसके बावजूद यह सच्चाई बनी हुई है कि मुंबई हमले के असली दोषी आज भी पाकिस्तान में खुलेआम घूम रहे हैं। चाहे जिस तरीके से हो, उन्हें सजा दिलाने की दिशा में सरकार को गंभीर होना चाहिए। कुल मिलाकर कह सकते हैं कि मुंबई हमले के दस साल पूरे होने के बाद बदलाव को लेकर स्थिति मिली-जुली है। कुछ बदला है और बहुत कुछ बदलना अभी बाकी है। आतंकवाद से मुकाबले का सबसे अचूक उपाय अपनी सुरक्षा तैयारियों को मजबूत रखना ही है।

3.अनियोजित विकास से बिगड़ा संतुलन

     FACT

  • दीपावली के बाद विश्व स्वास्थ्य संगठन ने अपनी एक रिपोर्ट में बताया कि विश्व के सर्वाधिक प्रदूषित 20 महानगरों में से 14 भारत के हैं और उनमें दिल्ली शीर्ष पर है। यदि गंभीरता से इस बात का आकलन करें तो स्पष्ट होता है कि जिन शहरों में विभिन्न कारणों से पलायन कर आने वालों की संख्या बढ़ी और इसके चलते उनका अनियोजित विकास हुआ, वहां के हवा-पानी में ज्यादा जहर पाया जा रहा है। असल में पर्यावरण को हो रहे नुकसान का मूल कारण अनियोजित शहरीकरण है। बीते दो दशकों के दौरान यह प्रवृत्ति पूरे देश में बढ़ी कि लोगों ने जिला मुख्यालय या कस्बों की सीमा से सटे खेतों पर अवैध कालोनियां काट लीं। इसके बाद जहां कहीं सड़कें बनीं, उसके आसपास के खेत, जंगल, तालाब को वैध या अवैध तरीके से कंक्रीट के जंगल में बदल दिया गया।

· यह दुखद है कि आज विकास का अर्थ विस्तार हो गया है। विस्तार-शहर के आकार का, सड़क का, भवन का आदि-आदि, लेकिन बारीकी से देखें तो यह विस्तार या विकास प्राकृतिक संरचनाओं जैसे कि धरती, नदी या तालाब, पहाड़ और पेड़, जीव-जंतु आदि के नैसर्गिक स्थान को घटा कर किया जाता है। नदी के पाट को घटाकर बने रिवर फ्रंट हों या तालाब को मिट्टी से भरकर बनाई गई कालोनियां, तात्कालिक रूप से तो सुख देती हैं, लेकिन प्रकृति के विपरीत जाना इंसान के लिए संभव नहीं है और उसके दुष्परिणाम कुछ ही दिनों में सामने आ जाते हैं। जैसे कि पीने के जल का संकट, बरसात में जलभराव, आबादी और यातायात बढ़ने से उपजने वाले प्राण वायु का जहरीला होना आदि। देश के अधिकांश उभरते शहर अब सड़कों के दोनों ओर बेतरतीब बढ़ते जा रहे हैं। न तो वहां सार्वजनिक परिवहन है, ना ही सुरक्षा, ना ही बिजली-पानी की न्यूनतम मांग। असल में देश में बढ़े कालेधन को जब बैंक या घर में रखना जटिल होने लगा तो जमीन में निवेश का सहारा लिया जाने लगा। इससे खेत की कीमतें बढ़ीं, खेती की लागत भी बढ़ी और किसानी लाभ का काम नहीं रहा गया। पारंपरिक शिल्प और रोजगार को त्यागने वालों का सहारा शहर बने और उससे वहां का अनियोजित और बगैर दूरगामी सोच के विस्तार का आत्मघाती कदम उभरा।

जलवायु परिवर्तन का प्रभाव

  • साल दर साल बढ़ता जलवायु परिवर्तन का प्रभाव और उसके कारण मौसम की अनियमितता, गांव-गांव तक फैल रहा जल-संकट का साया, बीमारियों के कारण पट रहे अस्पताल ऐसे कई मसले हैं जो आम लोगों को पर्यावरण के प्रति जागरूक बना रहे हैं। कहीं कोई नदी, तालाब के संरक्षण की बात कर रहा है तो कहीं पेड़ लगाकर धरती को बचाने का संकल्प, जंगल और वहां के बाशिंदे जानवरों को बचाने के लिए भी सरकार तथा समाज प्रयास कर रहे हैं, लेकिन भारत जैसे विकासशील व्यवस्था वाले देश में पर्यावरण का सबसे बड़ा संकट तेजी से विस्तारित होता शहरीकरणएक समग्र विषय के तौर लगभग उपेक्षित है। असल में देखें तो संकट जंगल का हो या फिर स्वच्छ वायु का या फिर पानी का, सभी के मूल में विकास की वह अवधारणा है जिससे शहररूपी सुरसा सतत विस्तार कर रही है और उसकी चपेट में आ रही है प्रकृति और नैसर्गिकता।
  • हमारे देश में संस्कृति, मानवता और बसावट का विकास नदियों के किनारे ही हुआ है। सदियों से नदियों की अविरल धारा और उसके तट पर मानव जीवन फलता-फूलता रहा है। बीते कुछ दशकों में विकास की ऐसी धारा बही कि नदी की धारा आबादी के बीच आ गई और आबादी की धारा को जहां जगह मिली वहां बस गई। और यही कारण है कि हर साल कस्बे नगर बन रहे हैं और नगर महानगर। बेहतर रोजगार, आधुनिक जनसुविधाएं और उज्ज्वल भविष्य की लालसा में अपने पुश्तैनी घर-बार छोड़ कर शहर की चकाचौंध की ओर पलायन करने की बढ़ती प्रवृत्ति का परिणाम है कि देश में एक लाख से अधिक आबादी वाले शहरों की संख्या 302 हो गई है, जबकि 1971 में ऐसे शहर मात्र 151 थे। यही हाल दस लाख से अधिक आबादी वाले शहरों की है। इसकी संख्या गत दो दशकों में दोगुनी होकर 16 हो गई है। पांच से 10 लाख आबादी वाले शहर 1971 में मात्र नौ थे, जो आज बढ़कर 50 हो गए हैं। विशेषज्ञों का अनुमान है कि आज देश की कुल आबादी का 8.50 प्रतिशत हिस्सा देश के 26 महानगरों में रह रहा है।

विश्व बैंक की रिपोर्ट

  • विश्व बैंक की ताजा रिपोर्ट बताती है कि आने वाले 20-25 सालों में 10 लाख से अधिक आबादी वाले शहरों की संख्या 60 से अधिक हो जाएगी जिनका देश के सकल घरेलू उत्पाद में योगदान 70 प्रतिशत होगा। एक बात और बेहद चौंकाने वाली है कि भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में गरीबी की रेखा से नीचे रहने वालों की संख्या शहरों में रहने वाले गरीबों के बराबर ही है। यह संख्या धीरे-धीरे बढ़ रही है, यानी यह डर गलत नहीं होगा कि कहीं भारत आने वाली सदी में अरबन स्लमया शहरी मलिन बस्तियों में तब्दील ना हो जाए।
  • शहर के लिए सड़क चाहिए, बिजली चाहिए, मकान चाहिए, दफ्तर चाहिए, इन सबके लिए या तो खेत होम हो रहे हैं या फिर जंगल। निर्माण कार्य के लिए नदियों के प्रवाह में व्यवधान डालकर रेत निकाली जाती है तो चूने के पहाड़ खोदकर सीमेंट बनाने की सामग्री। इसके कारण प्रकृति को हो रहे नुकसान की भरपाई संभव ही नहीं है। जंगल को हजम करने की चाल में पेड़, जंगली जानवर, पारंपरिक जल स्नोत सभी कुछ नष्ट हो रहे हैं। यह वह नुकसान है जिसका हर्जाना संभव नहीं है। शहरीकरण यानी रफ्तार, रफ्तार का मतलब है वाहन, और वाहन हैं कि विदेशी मुद्रा भंडार से खरीदे गए ईंधन को पी रहे हैं और बदले में दे रहे हैं दूषित वायु। शहर को ज्यादा बिजली चाहिए यानी ज्यादा कोयला जलेगा, ज्यादा परमाणु संयंत्र लगेंगे।

शहर का मतलब है औद्योगिकीकरण

  • शहर का मतलब है औद्योगिकीकरण। और अनियोजित कारखानों की स्थापना का परिणाम है कि हमारी लगभग सभी नदियां अब जहरीली हो चुकी हैं। नदी थी खेती के लिए, मछली के लिए, दैनिक कार्यो के लिए, ना कि उसमें गंदगी बहाने के लिए। गांवों के कस्बे, कस्बों के शहर और शहरों के महानगर में बदलने की होड़ एक ऐसी मृग मरीचिका की लिप्सा में लगी है, जिसकी असलियत कुछ देर से खुलती है। दूर से जो जगह रोजगार, सफाई, सुरक्षा, बिजली, सड़क के सुख का केंद्र होते हैं, असल में वहां सांस लेना भी गुनाह लगता है।
  • शहरों की घनी आबादी संक्रामक रोगों के प्रसार का आसान जरिया होती है, यहां दूषित पानी या हवा भीतर ही भीतर इंसान को खाती रहती है। देश के सभी बड़े शहर इन दिनों कूड़े को निबटाने की समस्या से जूझ रहे हैं। कूड़े को एकत्र करना और फिर उसका शमन करना, एक बड़ी चुनौती बनता जा रहा है। एक बार फिर अनियोजित शहरीकरण से उपज रहे कचरे की मार पर्यावरण पर ही पड़ रही है।
  • शहर केवल पर्यावरण प्रदूषण ही नहीं, सामाजिक और सांस्कृतिक प्रदूषण की भी गंभीर समस्या उपजा रहे हैं। लोग अपनों से, मानवीय संवेदनाओं से, अपनी लोक परंपराओं और मान्यताओं से कट रहे हैं। इसकी जगह उनका झुकाव आधुनिक किस्म के बाबाओं-फकीरों, देवताओं और पंथों में बढ़ रहा है, जो अलग किस्म के अंधविश्वास और रूढ़ियों के कारक हैं।

क्या विकास की उम्मीद न करें?

  • तो क्या लोग गांव में ही रहें? क्या विकास की उम्मीद न करें? ऐसे कई सवाल अंधाधुंध शहरीकरण में अपनी पूंजी को हर दिन कई गुना होते देखने वाले कर सकते हैं। असल में हमें अपने विकास की अवधारणा को ही बदलना होगा-पक्की सड़क, अंग्रेजी दवाई, स्थानीय भाषा को छोड़कर अंग्रेजी का प्रयोग, भोजन और कपड़े का पाश्चात्यीकरण असल में विकास नहीं है। यदि कोई चमड़े का काम करने वाला है, वह अपने काम को वैज्ञानिक तरीके से करना सीखता है, अपने श्रम की वास्तविक कीमत वसूलने के प्रति जागरूक होता है, अपने समान सामाजिक अधिकार के प्रति सचेत हो जाता है तो जरूरी नहीं है कि वह गांव में अपने हाथ के काम को छोड़कर शहर में चपरासी या दैनिक मजदूर की नौकरी कर संकरी गलियों की गंदी झुग्गियों में रहे। इंसान की क्षमता, जरूरत और योग्यता के अनुरूप उसे अपने मूल स्थान पर अपने सामाजिक सरोकारों के साथ जीवनयापन का हक मिले, यदि विकास के प्रतिमान ऐसे होंगे तो शहर की ओर लोगों का पलायन रुकेगा। इससे हमारी धरती को कुछ राहत मिलेगी।

4.भरपूर उपज के बाद भी नाराज क्यों है किसान

  • दीवार पर लिखी इबारत' एक ऐसा रूपक है, जिसे देश भर में घूमते हुए महसूस किया जा सकता है लेकिन जरूरी नहीं कि चुनावी मौसम में भी ऐसा हो। 'दीवार पर लिखी इबारत' इसलिए क्योंकि जब आप अपनी आंख और कान खुले रखकर तमाम शहरों और शहरीकृत होते इलाकों से गुजरते हैं तो आपको पता लगता है कि क्या कुछ बदल रहा है और क्या नहीं?
  • ऐसा केवल दीवार पर लिखी इबारत से सामने नहीं आता बल्कि गुजरात के राजमार्गों पर ऊंची फैक्टरियां और कांचीपुरम में पेरियार की पुरानी आवक्ष मूर्ति का शिलालेख या फिर जैसा कि हमने चुनावी राज्य मध्य प्रदेश में देखा, मंडियों में सोयाबीन और खाद्यान्न की भरमार और बाहर ट्रैक्टर ट्रॉलियों की वैसी ही कतार जैसी कि पंजाब के राजमार्गों पर फसल के मौसम में भंडारगृहों के आसपास देखने को मिलती है।
  • मध्य प्रदेश सही मायनों में हरित क्रांति को सफल करने वाला राज्य है। बीते 10 वर्षों में सबसे अधिक कृषि विकास दर इसी ने हासिल की। राज्य के प्रमुख कृषि सचिव राजेश राजौरा ने मुझे बताया कि बीते पांच सालों से यह दर 14 प्रतिशत से अधिक है। टी एन नाइनन ने गत वर्ष 'साप्ताहिक मंथन' स्तंभ में लिखा था कि वर्ष 2010 से 2015 के बीच मध्य प्रदेश में कृषि उत्पादन 92 फीसदी बढ़ा।
  • मध्य प्रदेश जो कृषि प्रधान राज्य है और जहां 10 में से सात आदमी खेती का काम करते हैं तथा 77 फीसदी आबादी ग्रामीण है, वहां खेती में इस प्रदर्शन से लोगों को संतुष्ट होना चाहिए था। बीते 13 वर्ष से अधिक समय से प्रदेश के मुख्यमंत्री के पद पर काबिज और चौथे कार्यकाल के लिए प्रयासरत शिवराज सिंह चौहान की स्थिति मजबूत होनी चाहिए थी। परंतु ऐसा नहीं है और शिवराज को इस वर्ष अपनी सबसे कठिन लड़ाई लडऩी पड़ रही है। जबकि 2013 के पिछले चुनाव में उनकी पार्टी ने कांग्रेस को नौ फीसदी के मत अंतर से पीछे छोड़ा था।
  • मध्य प्रदेश में यात्रा के दौरान कुछ सवालों के जवाब जरूरी लगे। उदाहरण के लिए: किसानों में उत्साह के बजाय निराशा चुनावी मुद्दा क्यों है? किसानों की आत्महत्या के मामले में मध्य प्रदेश सबसे खराब स्थिति वाले राज्यों में क्यों है? किसान इतने नाराज क्यों हैं? कृषि क्षेत्र में एक दशक लंबा तेजी का दौर सजा क्यों बन गया? अगर आप आंख, कान और दिमाग खुला रखकर मध्य प्रदेश जाएं तो पता चलेगा कि देश के कृषि क्षेत्र के साथ दिक्कत क्या है?
  • इन सवालों का जवाब तलाशने हमें राजधानी भोपाल से 40 किलोमीटर दूर सीहोर पहुंचे जहां राज्य की सबसे बड़ी मंडियों में से एक स्थित है। आपको किसान, व्यापारी, बिचौलिया और सरकारी अधिकारी, सबसे अलग-अलग जवाब मिलेगा। हमने ट्रैक्टर ट्रॉली पर बैठे कसिान रामेश्वर चंद्रवंशी से सवाल किया।
  • चंद्रवंशी कहते हैं, 'हमें गेहूं की अच्छी कीमत के अलावा कुछ नहीं चाहिए। यह कीमत 3,000 रुपये क्विंटल होनी चाहिए। सोयाबीन की कीमत 4,000 रुपये प्रति क्विंटल होनी चाहिए।' जब मैं उन्हें याद दिलाता हूं कि यह कीमत तो बाजार मूल्य से 30 प्रतिशत से भी ज्यादा है तो वह कहते हैं कि उन्हें इससे कोई मतलब नहीं। वह कहते हैं कि इतनी कीमत मिलने पर वह और कुछ नहीं मांगेंगे, न ही शिकायत करेंगे। वह मुझे याद दिलाते हैं कि वे सक्षम किसान हैं, गरीबी रेखा के नीचे वाले नहीं।
  • चौहान सरकार ने इस समस्या को दूर करने का प्रयास किया है। गेहूं और धान के न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) में इजाफा किया गया है। इन फसलों पर बोनस भी दिया जा रहा है। सोयाबीन जैसी फसलें जो एमएसपी में नहीं आतीं उन पर प्रति क्विंटल 500 रुपये बोनस (भावांतर) दिया जा रहा है। यह राशि सीधे किसान के खाते में जाती है।
  • मूंग और उड़द का न्यूनतम समर्थन मूल्य व्यापारियों द्वारा चुकाई जाने वाली राशि से 60 से 90 फीसदी अधिक है। दाल की कीमतों में गिरावट उपभोक्ताओं के लिए वरदान है लेकिन किसानों के लिए आपदा से कम नहीं। इंडियन काउंसिल फॉर रिसर्च इन इंटरनैशनल इकनॉमिक रिलेशंस (इक्रियर) के कृषि अर्थशास्त्री अशोक गुलाटी जैसे किसी भी व्यक्ति से पूछिए, वह आपको बताएंगे कि एमएसपी के बाजार मूल्य के दोगुना होने के बावजूद किसान की लागत नहीं निकल पाती।
  • यानी किसान जितनी ज्यादा उपज पैदा करता है, सरकार उतना ही पैसा चुकाती है लेकिन दोनों को केवल नुकसान होता है। गुलाटी और उनके साथियों द्वारा लिखा गया इक्रियर वर्किंग पेपर 339 बताता है कि उत्पादन को अगर बाजार के साथ सुसंगत न किया जाए तो केवल उसमें इजाफा करते जाना नुकसानदेह हो सकता है।
  • दालें इसका बेहतरीन उदाहरण हैं। वर्षों तक हमारा उत्पादन 30-40 लाख टन कमी का शिकार रहा। दुनिया भर में दाल के उत्पादन में कमी के चलते कीमतें बढ़ीं। खुदरा कीमतें तीन अंकों में पहुंचीं तो मीडिया में खबरें आने लगीं। सरकार ने एमएसपी बढ़ाई और दालों के लिए तकनीकी मिशन गठित किया जिससे उत्पादन बढ़ा। इक्रियर के आंकड़ों के मुताबिक इससे घरेलू मांग में 20 लाख टन का सुधार हुआ। इस बीच आयात जारी रहा क्योंकि उसके सौदे पहले ही कर लिए गए थे। परिणामस्वरूप देश में तीन करोड़ टन दाल का भंडार हो गया जबकि जरूरत 2.2-2.3 करोड़ टन की थी। चूंकि आयात शुल्क शून्य था इसलिए आयातित दाल की कीमत एमएसपी से आधी रहती।
  • अगर दाल से आंख नहीं खुलती है तो मध्य प्रदेश में प्याज और लहसुन का उदाहरण हमारे सामने है। गत वर्ष मंदसौर जिले में किसान आंदोलन पर पुलिस की गोलीबारी में छह किसान मारे गए थे। प्याज की कीमतें गिरकर एक रुपये प्रति किलो तक पहुंच गई थीं जिसकी वजह से क्षेत्र में नाराजगी थी। गोलीकांड में मौतों के बाद घबराई सरकार ने कहा कि वह सारा प्याज 8 रुपये प्रति किलो की दर पर खरीदेगी। मंदसौर में ट्रैक्टर ट्रॉलियों की 10 किमी लंबी कतार लग गई और नासिक जैसी दूरदराज जगहों से भी किसान अपना प्याज बेचने आ गए।
  • सरकार को पता ही नहीं था कि इस स्थिति से कैसे निपटा जाए। भंडारण की व्यवस्था न होने से प्याज सडऩे लगा इसलिए उसे दो रुपये प्रति किलो के भाव से ठिकाने लगाया गया। मध्य प्रदेश के करदाताओं को 785 करोड़ रुपये का नुकसान हुआ। इस वर्ष लहसुन के साथ यही होने वाला है। उसकी कीमतें सात रुपये प्रति किलो तक गिर गई हैं जबकि किसान की लागत 15 से 20 रुपये प्रति किलो आती है। हम इतने अजीब हैं कि लहसुन कीमतें औंधे मुंह गिरने के बावजूद चीन से उसका आयात कर रहे हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि आधी सरकार खेती पर ध्यान देती है और आधी उपभोक्ता मूल्य पर और ये दोनों आपस में बातचीत नहीं करते।
  • सोयाबीन मध्य प्रदेश की प्रमुख फसल है। सीहोर तथा अन्य मंडियों में सोयाबीन की बंपर उपज देखी जा सकती है। एक वक्त था जब भारत सोयाबीन पशु आहार का प्रमुख निर्यातक था। अमेरिका सबसे बड़ा सोयाबीन उत्पादक था लेकिन यह अन्य देशों से मुकाबला नहीं कर सका क्योंकि यहां का सोयाबीन ज्यादा दिन टिकता नहीं था और वह जीन संवद्र्धित था। अधिकांश देशों को जीन संवद्र्धित फसल नहीं चाहिए।
  • चुनिंदा यूरोपीय देशों को छोड़कर अधिकांश सोयाबीन पशु आहार आयातकों ने जीएम फसलों को स्वीकार कर लिया है। इनमें दुनिया का सबसे बड़ा आयातक चीन भी शामिल है। दुनिया के तीन सबसे बड़े सोयाबीन उत्पादक अमेरिका, ब्राजील और अर्जेंटीना जीएम फसल उगाते हैं। भारत उनका मुकाबला नहीं कर सकता। यहां जीएम फसल की इजाजत नहीं है। नतीजतन, सोयाबीन का रकबा और कीमत घट रहे हैं और निर्यात समाप्तप्राय है। संभव है अब सरकार ईरान के कच्चे तेल के बदले कुछ सोयाबीन उसे दे सके।
  • मध्य प्रदेश से निकले सबक एकदम सहज हैं। राजनेताओं को उपज बढ़ाने से कोई लाभ नहीं होगा जब तक कि वे कृषि को बाजार से नहीं जोड़ते। पैसे बांटने से हल नहीं निकलेगा। एमएसपी बढ़ाना, खुदरा कीमतों में बढ़ोतरी की गारंटी नहीं है। क्या कोई सरकार यह चाहती है कि खाद्य कीमतों में इजाफा हो? नहीं क्योंकि इसका असर उपभोक्ताओं पर पड़ता है। एक चतुर राजनेता कृषि को बाजार से जोड़ेगा और खाद्य प्रसंस्करण, खुदरा शृंखला, निजी क्षेत्र के भंडारण आदि में निवेश की दिशा में काम करेगा। इसके अलावा वायदा बाजारों की शुरुआत की जाएगी। मध्य प्रदेश की हकीकत तो यही बता रही है।

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