जंगलों की बढ़ोत्तरी के सरकारी आंकड़े तो अच्छे हैं लेकिन उन पर उठ रहे कई सवालों का क्या?

जंगलों की बढ़ोत्तरी के सरकारी आंकड़े तो अच्छे हैं लेकिन उन पर उठ रहे कई सवालों का क्या?

साल का अंत होते-होते मोदी सरकार ने “इंडिया स्टेट ऑफ फॉरेस्ट रिपोर्ट – 2019” रिलीज़ कर दी. यह बताती है कि देश के कुल फॉरेस्ट (जंगल) और ट्री कवर (वृक्षारोपण) को मिलाकर देश की हरियाली में 5,188 वर्ग किलोमीटर की बढ़ोत्तरी हुई है. यह रिपोर्ट फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया (एफएसआई) ने तैयार की है जो हर दो साल में जारी की जाती है. इसमें फॉरेस्ट सर्वे ने हरियाली की इस बढ़ोत्तरी के लिये सरकार की प्रशंसा भी की है. रिपोर्ट के अनुसार अब फॉरेस्ट और ट्री कवर मिलकर देश के कुल भौगोलिक क्षेत्रफल का लगभग 25 फीसदी हो गये हैं.

सरकार एक हेक्टेयर से अधिक क्षेत्र में 10 फीसदी से अधिक वृक्ष घनत्व (ट्री-कैनोपी डेन्सिटी) होने को फॉरेस्ट कवर मानती है. इसे मापने के लिये रिमोट सेंसिंग तकनीक और ज़मीन पर उसके सत्यापन का तरीका इस्तेमाल किया जाता है. सर्वाधिक घने जंगलों में ट्री-कैनोपी का घनत्व 70 प्रतिशत, मध्यम दर्जे के जंगलों में 40-70 प्रतिशत और सबसे कम घने जंगलों में – जिन्हें ओपन फॉरेस्ट भी कहा जाता है – यह घनत्व 10-40 प्रतिशत तक होता है. इसी तरह एक हेक्टेयर से कम क्षेत्रफल के भूखंड में लगे सामान्य पेड़ों को ट्री-कवर कहा जाता है.

रिपोर्ट बताती है कि हमारा फॉरेस्ट कवर अब 7,12,249 वर्ग किलोमीटर हो गया है जो कि देश के कुल भौगोलिक क्षेत्रफल का 21.67 फीसद है. वहीं ट्री कवर 95,027 वर्ग किलोमीटर है जो कि देश के कुल क्षेत्रफल का 2.89 फीसदी है. फॉरेस्ट और ट्री-कवर को मिलाकर 2017 के मुकाबले कुल 0.65% (5,188 वर्ग किलोमीटर) की वृद्धि दर्ज की गई है. इसके अलावा सरकार ने बताया है कि समुद्र तट और खारे पानी में उगने वाले मैंग्रोव में भी बढ़ोत्तरी हुई है और उनका कुल क्षेत्रफल अब करीब 5,000 वर्ग किलोमीटर हो गया है.

वन, पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने सरकार यानी अपनी पीठ थपथपाते हुये कहा, “दुनिया के कुछ ही देशों में जंगल का क्षेत्रफल बढ़ा है और इसमें भारत का नंबर काफी ऊंचा है. भारत ने वनों के क्षेत्र में बढ़ोत्तरी की है और अब (देश का) करीब 25 प्रतिशत (भौगोलिक क्षेत्र) वनों से आच्छादित है. इसमें सबसे महत्वपूर्ण बात है कि 2014 से अब तक 13 हज़ार वर्ग किलोमीटर से अधिक वन क्षेत्रफल बढ़ा है.”

सरकार का दावा है कि जंगल के हालात पता करते वक्त वह उपग्रह से मिली जानकारी (रिमोट सेंसिंग) की जांच ज़मीनी तौर पर भी कराती है लेकिन जानकार कहते हैं कि जंगल को मापने के लिए सरकार जो तरीका और मापदंड इस्तेमाल करती है वह हमेशा सवालों के घेरे में रहा है. सत्याग्रह ने इस बारे में कई जानकारों से बात की.

दिल्ली स्थित सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च (सीपीआर) की कांची कोहली बताती हैं, “जंगल और ट्री-कवर को मापने में सरकार कई महत्वपूर्ण मानकों की अनदेखी करती रही है.” कांची इस क्षेत्र में लंबे समय से रिसर्च कर रही हैं. उनके मुताबिक सरकार इस बात को संज्ञान में ही नहीं लेती कि जंगल और जंगल के बाहर वृक्षारोपित भूमि का इस्तेमाल और प्रबंधन कैसे हो रहा है.

 “ऐसा लगता है कि हर दो साल में आंकड़ों का एक खेल हमारे सामने रखा जाता है लेकिन पिछले कई सालों से देखा जाये तो चाहे वैज्ञानिक हों, या समाज विज्ञानी या सामुदायिक काम में लगे समर्पित लोग, वे सभी लगातार यह सवाल पूछ रहे हैं कि आप (फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया के कर्मचारी) यह गणना करते कैसे हैं? सरकार ज़मीन पर पूरी परिस्थिति का मुआयना नहीं करती है. सिर्फ पेड़ों का खड़ा होना ही स्वस्थ या पर्यावरण के लिये लाभदायक जंगल का प्रमाण नहीं है” कांची कहती हैं कि फॉरेस्ट सर्वे की गणना का तरीका पेड़ों का घनत्व भले ही दिखाता हो लेकिन जंगल की गुणवत्ता का आकलन नहीं करता या अपनी रिपोर्ट में इसके बारे में कुछ नहीं बताता.

https://s02.sgp1.cdn.digitaloceanspaces.com/inline/cphaurbvua-1577951635.jpg कांची कोहली जंगलों की जिस गुणवत्ता की बात कर रही हैं आखिर वह कैसे निर्धारित होती है? जानकारों के अनुसार सैकड़ों सालों में बने जंगल - जिनके भीतर नदियां, जल स्रोत, बेशकीमती औषधियां, वनस्पतियां और वन्य जीव हों - की तुलना वृक्षारोपण द्वारा खड़े किये एकजातीय जंगल (मोनोकल्चर फॉरेस्ट) से नहीं की जा सकती. सरकार अपनी रिपोर्ट में इस अंतर को बताने में नाकाम रहती है. वह यह नहीं बताती कि कितना जंगल पुराने स्वस्थ और जैव विविधता से भरपूर जंगलों को नष्ट करके कृत्रिम रूप से खड़ा किया गया है.

जंगल का मतलब सिर्फ पेड़ नहीं है बल्कि वन्य प्राणी और जैव विविधता है. उत्तराखंड के अल्मोड़ा ज़िले के दुगौड़ा गांव में बांज का यह विशाल जंगल स्वस्थ पारिस्थतिका का एक दुर्लभ नमूना है | फोटो: हृदयेश जोशी

जंगलों के मामले में सरकारों का नजरिया उनकी नीतियों से भी कुछ स्पष्ट हो जाता है. साल 2019 के पहले छह महीनों में विकास कार्यों के लिये वन भूमि को दिये जाने के करीब 99 प्रतिशत प्रस्तावों को हरी झंडी दी गई. मोदी सरकार के कार्यकाल के दौरान उत्तराखंड में चार धाम यात्रा मार्ग के लिये एक लाख से अधिक पेड़ों को काटा गया है. इसी जंगल में आग की घटनाओं को लेकर भले ही सरकार ने 20 प्रतिशत कमी का दावा किया हो लेकिन साल 2017 में ही जंगल में आग की 35888 घटनायें हुईं है. इस साल भी गर्मियों में उत्तराखंड और देश के अन्य हिस्सों में जंगल कई हफ्तों तक धू-धू करते जलते रहे.

https://s02.sgp1.cdn.digitaloceanspaces.com/inline/gqdqzfvifl-1577951647.jpg जंगल को काटने और लगाने के मामले में अक्सर वन विभाग मुनाफे की नज़र से देखता है. स्वस्थ जंगल कटने के बाद वहां आर्थिक मुनाफे के लिये ऐसे पेड़ लगाये जाते हैं जो पर्यावरण के लिये ज़ीरो या कई बार तो हानिकारक होते हैं. वनों को बचाने और पुनर्जीवित करने में सबसे बड़ा योगदान स्थानीय ग्रामीणों का होता है लेकिन अक्सर वन विभाग उन्हें जंगलों से दूर रखना ही वनों की सेहत के लिये फायदेमंद मानता है.

वनों को बचाने में ग्रामीणों का अहम रोल है. उत्तराखंड के भिकियासैंण के पास इस स्वस्थ जंगल को ग्रामीणों ने कई सालों की मेहनत से पुनर्जीवित किया |

जलवायु परिवर्तन की जंग में पूरी लड़ाई अंतरराष्ट्रीय स्तर पर यह साबित करने की भी है कि सरकार कितना कार्बन सिंक बना रही है. सरकार ने 2015 में हुये पेरिस समझौते में यह वादा किया था कि भारत 2022 तक करीब 300 करोड़ टन कार्बन सोखने लायक जंगल लगा देगा. फॉरेस्ट सर्वे की रिपोर्ट में इस दिशा में हुई तरक्की का भी वर्णन है. लेकिन जानकार कहते हैं कि कार्बन सिंक बनाने की कोशिश में आंकड़ों की बाजीगरी भी हो रही है. इसे लेकर भारत सरकार के आंकड़ों पर संयुक्त राष्ट्र संघ भी सवाल उठा चुका है.

अंग्रेज़ी अख़बार बिजनेस स्टैंडर्ड में जनवरी 2019 में छपी यह रिपोर्ट बताती है भारत ने जब वन क्षेत्रफल के आंकड़े संयुक्त राष्ट्र में जमा किये तो उन्हें पारदर्शिता के पैमाने पर खरा नहीं पाया गया. जंगल के विनाश या संरक्षण के हालात को फॉरेस्ट रेफरेंस लेवल या एफआरएल में मापा जाता है. इस मामले में संयुक्त राष्ट्र का कहना था कि, “भारत द्वारा फॉरेस्ट रेफरेंस लेवल (एफआरएल) के लिये इस्तेमाल किये गये आंकड़े और जानकारी आंशिक रूप से पारदर्शी हैं और अपने आप में पूरी नहीं हैं. इसलिये यह संयुक्त राष्ट्र की गाइडलाइन के मुताबिक नहीं हैं.”

इस विषय को लंबे समय से कवर कर रहे पत्रकार नितिन सेठी सत्याग्रह को बताते हैं, “सरकार प्राकृतिक जंगल और वृक्षारोपण के बीच अंतर नहीं करती जो कि हरियाली का सही आकलन पेश नहीं करता. जबकि सरकार के पास इसके लिये तकनीकी क्षमता उपलब्ध है. इसके अलावा उत्तर-पूर्व के राज्यों के जंगलों में बढ़ोत्तरी को पूरे देश में जंगलों की तस्वीर पेश करने के लिये इस्तेमाल किया जाता है.”

सेठी का यह भी कहना है कि सरकार सैटेलाइट तस्वीरों को भी अपने हिसाब से जंगल में बढ़ोत्तरी के लिये इस्तेमाल करती है जो सही नहीं है. उधर दिल्ली स्थित द एनर्जी एंड रिसोर्सेज इंस्टिट्यूट यानी टेरी के सीनियर फेलो डॉ. योगेश गोखले फॉरेस्ट सर्वे की इस रिपोर्ट को पहली नज़र में हौसला बढ़ाने वाला तो मानते हैं लेकिन वे प्राकृतिक जंगलों के नष्ट होने के सवाल से भी इनकार नहीं करते.

“अब यह सामान्य धारणा बन गई है कि हमारा कुदरती जंगल खत्म होता जा रहा है और जो भी जंगल है उसमें प्लांटेशन फॉरेस्ट (यानी वृक्षारोपण) ही ज्यादा है. यह एक बड़ी आलोचना है जो काफी हद तक सही है क्योंकि नेचुरल इकोसिस्टम को हम प्रत्यारोपण से बदल रहे हैं” योगेश गोखले कहते हैं.

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