लोकलुभावनवाद के दौर में देश के 'फंसे हुए' कामगार

लोकलुभावनवाद के दौर में देश के 'फंसे हुए' कामगार

वित्तीय प्रबंधन 'फंसी हुई परिसंपत्तियों' की समस्या को लेकर सजग हुआ है। इन संपत्तियों का आशय ताप बिजलीघरों जैसे प्रतिष्ठानों से है जो आर्थिक या राजनीतिक हालात बदलने से समय से पहले ही अनुत्पादक होते जा रहे हैं। मसलन, कोयला संयंत्रों का सवाल है तो जलवायु परिवर्तन संबंधी कानून मजबूत बनाए गए हैं, कच्चे माल की कीमतें बढ़ी हैं और सौर ऊर्जा जैसी वैकल्पिक तकनीकें अनुमान से अधिक प्रतिस्पर्धी हो चुकी हैं। बहीखातों की मजबूती एवं बैंकों का ऋण जोखिम परखते समय इन समस्याओं को भी ध्यान में रखना होगा। यही वजह है कि कोयला खनन के दरवाजे निजी क्षेत्र के लिए खोलने पर सरकार का जोर देना खतरनाक हो सकता है जब राष्ट्रीयकृत बैंक उन्हें फंड कर रहे हों। इससे आगे गैर-निष्पादित परिसंपत्तियां बन सकती हैं।

फिर भी विकास की योजना बनाते समय फंसी परिसंपत्तियों की समस्या का एक सादृश्य फंसे हुए कामगारों का है। दुनिया भर में ऐसे फंसे कामगार लोकलुभावनवाद के उभार में सबसे खास कारक साबित हुए हैं। अमेरिका के राजनीतिक परिदृश्य में पिछले तीन-चार वर्षों में हुए व्यापक बदलावों पर गौर कीजिए। राष्ट्रपति चुनाव में डॉनल्ड ट्रंप को अप्रत्याशित समर्थन औद्योगिक एवं खनन के लिए मशहूर रहे इलाकों में मिला।

ब्रिटेन के उत्तर में मौजूद औद्योगिक एवं खनन इलाके में परंपरागत तौर पर श्रमिकों की बहुलता रही है और वे टोरी विचारधारा को नापसंद करते रहे हैं लेकिन हाल ही में संपन्न संसदीय चुनावों में उन्होंने कंजर्वेटिव पार्टी को खुलकर समर्थन देकर बोरिस जॉनसन को जिताने में मदद की। इस बीच फ्रांस के 'पीली जैकेट' प्रदर्शन इस परिघटना की शायद सबसे मुखर अभिव्यक्ति करते हैं। सत्ता-विरोधी प्रदर्शनों ने पिछले साल अक्सर फ्रांस के शहरों एवं कस्बों को थमने के लिए मजबूर कर दिया था। राजनीतिक विचारक मैंकर ओल्सन की अवधारणा यह है कि सुधारों की राह में रोड़े अटकाने वाले गठजोड़ बनाना समर्थक गठजोड़ तैयार करने की तुलना में अधिक आसान है। सुधारों के लाभ अक्सर अनिश्चित एवं अव्यवस्थित होते हैं। किसी को भी पक्का पता नहीं होता है कि अमुक सुधार से उन्हें निजी तौर पर क्या कुछ मिलेगा? वहीं सुधारों के प्रति आशंकित लोग नुकसान को लेकर आश्वस्त होते हैं। ऐसे में आक्रोशित 'पराजितों' को एकजुट करना कहीं अधिक आसान है। दुनिया के कई हिस्सों में इस समय दिख रही समस्या एकदम साफ है।

इसका ठीकरा अक्सर 'भूमंडलीकरण' या व्यापार पर मढ़ा जाता है। मसलन, अर्थशास्त्री डेविड ऑटर का 'चीन सदमा' सिद्धांत कहता है कि चीन से व्यापार के चलते अमेरिका के रस्ट बेल्ट इलाके में गंभीर बेरोजगारी देखी गई है। वैसे इस अवधारणा पर पूरी सहमति नहीं बनी है। अमेरिका में राष्ट्रपति पद की उम्मीदवारी पेश कर रहे एंड्रयू यांग जैसे लोगों का मानना है कि ऑटोमेशन जैसे तकनीकी बदलाव भी 'फंसे हुए कर्मचारी' बना सकते हैं।

ऐसे बदलावों के चलते लाक्षणिक रूप से फंसे कामगारों के आर्थिक, सामाजिक एवं राजनीतिक असर उस समय कई गुना बढ़ जाते हैं जब वे वास्तव में भी फंसे हुए होते हैं। यानी, ये कामगार किसी वजह से अपने स्थान से दूर नहीं जा पाते हैं तो वे तकनीकी या नियामकीय बदलावों का अधिक लाभ उठाने की स्थिति में नहीं रह जाते हैं।

किसी भी बदलाव का वेतन एवं श्रमिक कल्याण पर पूरे असर के लिए श्रम गतिशीलता अहम है। पिछली सदी में दक्षिण-मध्य अमेरिका के डस्ट बाउल से हटकर रोजगार पूर्वी तट की ओर चला गया था जिसके लिए मौसमी बदलावों से कृषि के अलाभकारी हो जाने के अलावा कैलिफोर्निया में आजीविका की उम्मीदें भी थीं। वहां जाने वाले अधिकतर लोग सफेदपोश कार्यों से जुड़े हुए थे। लेकिन सामाजिक सुरक्षा ढांचा नहीं होने से यह एक मानव त्रासदी में तब्दील हो गया। अमेरिका की घरेलू अर्थव्यवस्था में कुछ हद तक संतुलन लाने के लिए यह आवक अहम थी। आज की अर्थव्यवस्था में ऐसा संतुलन आसानी से नहीं पाया जा सकता है क्योंकि भौगोलिक आवाजाही उतनी आसान नहीं रह गई है। सुस्ती के दौर में दूसरी जगह जाने पर पूंजी का बड़ा नुकसान उठाना पड़ सकता है। इसके अलावा सामाजिक कारण भी हैं, एकजुट हो चुके समुदाय खुद को अलग होते नहीं देखना चाहते हैं। लेकिन यह एकजुटता राजनीतिक एवं सांस्कृतिक रूप से 'बाहरी' लोगों के खिलाफ भी तब्दील हो सकती है। भारत को फंसी हुई जनसंख्या के सृजन को लेकर सजग रहना होगा। हाल के वर्षों में बड़े औद्योगिक केंद्र नहीं बन पाने से यह मान लेना आसान है कि ये समस्याएं भारत के लिए प्रासंगिक नहीं हैं। लेकिन सच तो यह है कि भारत समेत तमाम देशों में फंसे कामगारों को यह बात एकजुट करती है कि व्यापक आर्थिक, तकनीकी या जलवायु बदलावों के नाते उनकी अपेक्षाएं हकीकत से मेल नहीं खाती हैं। भारत में हम परंपरागत तौर पर सार्वजनिक क्षेत्र में कामगारों को लेकर चिंतित होते थे।

इसी वजह से निजीकरण सियासी तौर पर विवादित रहा है। लेकिन हमें आर्थिक रूप से कम गतिशील इलाकों में फंसे और केवल खुदरा क्षेत्र या सूक्ष्म विनिर्माण गतिविधियों में ही दक्ष दस या सौ कर्मचारियों के लिए भी फिक्र करनी होगी। तकनीक बदलने से इन क्षेत्रों में श्रमिकों की जरूरत कम हो जाएगी। उन्हें नए कौशल के हिसाब से प्रशिक्षित करने और देश भर में भ्रमण को अधिक दिलचस्प बनाने की जरूरत है।

कामगारों का नए इलाकों में स्वागत किया जाए जहां उन्हें आवास एवं पसंदीदा खानपान भरपूर मिले। और उन जगहों को भी आश्वस्त करना होगा कि उनकी सांस्कृतिक पहचान या राजनीतिक स्वायत्तता गंवा रहे हैं। भारत में फंसे कामगारों की समस्या बाकी दुनिया जैसी ही है लेकिन उसमें बुनियादी प्रशिक्षण और संघवाद के अलग मॉडल की भी जरूरत है। इन बिंदुओं पर फौरन ध्यान नहीं दिया गया तो बाकी दुनिया में व्याप्त राजनीतिक अस्थिरता भारत पर सौ गुना भारी पड़ेगी।

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