न्यायिक क्षेत्र में आईबीसी की बेहतर समझ जरूरी

न्यायिक क्षेत्र में आईबीसी की बेहतर समझ जरूरी

बीती कुछ तिमाहियों से देश की आर्थिक तस्वीर खस्ता ही नजर रही है। वृद्धि में आए धीमेपन की प्रकृति के चक्रीय या ढांचागत होने को लेकर जो बहस हो रही है वह मूल मुद्दों से ध्यान भटकाने वाली है। इस आलेख में हम व्यापक चिंताओं से परे इस बात पर ध्यान केंद्रित करेंगे कि कैसे आर्थिक वृद्धि को पटरी पर लाने के लिए दीर्घावधि के ऋण के स्तर को बढ़ाने की आवश्यकता है। सरकारी बैंक अभी भी परियोजनाओं को ऋण देने में हिचकिचा रहे हैं। वे गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियों (एनबीएफसी) को अल्पकालिक ऋण देने में भी हिचक रहे हैं।

भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) ने 24 दिसंबर को 'रिपोर्ट ऑन ट्रेंड ऐंड प्रोग्रेस ऑफ बैंकिंग इन इंडिया 2018-19Ó जारी की। रिपोर्ट में कहा गया है कि हालांकि ऋणशोधन अक्षमता एवं दिवालिया संहिता (आईबीसी) के तहत निस्तारण की समय सीमा को बढ़ाकर 330 दिन कर दिया गया है लेकिन कुछ मामलों में इस सीमा से भी अधिक देरी हो रही है क्योंकि बार-बार वाद हो रहे हैं।

आरबीआई की इसी रिपोर्ट में कहा गया है कि बैंकिंग व्यवस्था में सुधार के लिए यह आवश्यक है कि तनावग्रस्त परिसंपत्तियों का तीव्र गति से निस्तारण किया जाए। यह भी कहा गया है कि सरकारी बैंकों की ऋण वृद्धि बीते कुछ वर्षों के दौरान निजी बैंकों से कमतर रही है। रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि सितंबर 2019 के अंत तक सरकारी बैंकों का कुल फंसा हुआ कर्ज कुल बकाये का 12 फीसदी था। सरकारी बैंकों को इसे 10 फीसदी से कम करना होगा तभी लंबी अवधि का ऋण स्तर हासिल हो सकेगा। बेहतर निगरानी के लिए देश में बेहतर पूंजी वाले दो सरकारी बैंकों की आवश्यकता है।

केंद्र सरकार ने आश्वस्त किया है कि आईबीसी सही ढंग से काम कर रही है। बहरहाल सरकारी बैंकों की मौजूदा सतर्कता बताती है कि ऋण से जुड़े जोखिम और बाद में सरकारी जांच एजेंसियों द्वारा बैंक प्रबंधकों के साथ कड़ाई करने को लेकर जोखिम बरकरार हैं। वित्तीय क्षेत्र में होने वाली धोखाधड़ी के अधिकांश मामलों में दोषसिद्धि मुश्किल होती है। यही कारण है कि आपराधिकता को लेकर जांच जारी रहती है। ऐसे में व्यावहारिक कदम यही है कि परिसंपत्ति को बरकरार रखा जाए क्योंकि चालू परिसंपत्ति वैकल्पिक निवेशकों को भी आकर्षित करती है।

कई प्रवर्तक पहले अपनी ऋण आवश्यकताओं को बढ़ाचढ़ाकर पेश करते हैं और बाद में अंतहीन कानूनी चुनौतियों के माध्यम से अपनी निस्तारण प्रक्रिया को जटिल बना लेते हैं। वे निस्तारण पेशेवरों की नियुक्ति का यह कह कर विरोध करते हैं कि उनके पास काबिलियत नहीं है या वे पूर्वग्रह से ग्रस्त हैं। ऐसा करके वे ऋणदाताओं की समिति में मतभेद पैदा करने का प्रयास करते हैं। अगर ये तरीके नाकाम साबित होते हैं तो वे राष्ट्रीय कंपनी लॉ अपील पंचाट (एनसीएलएटी) की शरण लेते हैं और आखिर में सर्वोच्च न्यायालय की।

एस्सार स्टील ऋण डिफॉल्ट मामले को देश के कानून और कारोबारी स्कूलों के पाठ्यक्रम में शामिल किया जाना चाहिए। इस घटना में ऋणदाताओं ने एस्सार स्टील के लिए आर्सेलर-मित्तल की 42,000 करोड़ रुपये की बोली को स्वीकार कर लिया था। राष्ट्रीय कंपनी लॉ पंचाट (एनसीएलटी) ने मार्च 2019 में स्वामित्व में इस बदलाव को मंजूरी प्रदान कर दी। एस्सार ने एनसएलटी के इस निर्णय के खिलाफ अपील की कि आर्सेलर की पेशकश का 90 फीसदी हिस्सा एनएसीएलएटी के जरिये वित्तीय ऋणदाताओं को जाएगा। एनसीएलएटी ने कहा कि सुरक्षित वित्तीय ऋणदाताओं को संचालन ऋणदाताओं के समकक्ष माना जाना चाहिए और वित्तीय ऋणदाताओं को चुकाई जाने वाली राशि को 42,000 करोड़ रुपये के 65 प्रतिशत पर सीमित किया जाना चाहिए। 14 नवंबर के एक अहम फैसले में सर्वोच्च न्यायालय ने एनसीएलएटी के निर्णय बदल दिया और कहा कि ऋणशोधन प्रक्रिया में संपत्ति वितरण का निर्णय कर्जदार कर सकते हैं। इस फैसले ने आर्सेलर मित्तल के एस्सार स्टील को अधिग्रहीत करने की राह आसान की और आईबीसी को कठिनाई से उबारा।

डिफॉल्ट का हर मामला अलग होता है। पुराने प्रवर्तक मामले को जटिल बनाना चाहते हैं ताकि उनकी परिसंपत्ति कर्जमुक्त होकर और सस्ती कीमत पर उनके अलावा किसी को बिके। एस्सार स्टील मामले में एनसीएलएटी का निर्णय यह संकेत देता है कि पुराने मालिकों में यह स्टेमिना और संसाधन है कि वे अपनी परिसंपत्ति बचाने के लिए लड़ सकें। देश की न्याय व्यवस्था इस आधार पर प्रवर्तकों के पक्ष में नजर आती है कि कामगारों के हित को देखते हुए कारोबार चलता रहे।

आईबीसी अब बहुत अधिक कठिनाई में नहीं है लेकिन अभी भी उस पर ध्यान देने की आवश्यकता है। इसमें ऋणदाता समिति का कर्ज को बट्टे खाते में डालने के लिए एक ढांचे पर सहमत होना और निस्तारण पेशेवरों की विश्वसनीयता का प्रश्न हल करना शामिल है। भूषण पावर ऐंड स्टील का मामला बताता है कि देरी इसलिए भी होती है क्योंकि आईबीसी तथा उससे पहले के विवाद उभर आते हैं। दिसंबर 2019 तक आईबीसी के 1,500 मामले ऋणदाता समिति, निस्तारण प्रतिनिधियों तथा अदालतों के पास लंबित हैं। आईबीसी की व्याख्या में न्यायिक अंतर को लेकर सरकार की प्रतिक्रिया और अन्य विधानों के साथ असंगतता के चलते इसमें बार-बार संशोधन किया गया है। ऐसा कोई तरीका नहीं है जिससे मूल्यांकन की अस्पष्टïताओं को दूर किया जा सके और यह स्पष्टï किया जा सके कि अंतिम बिक्री में किसे क्या हिस्सेदारी मिलेगी। सर्वोच्च न्यायालय, एनसीएलटी और एनसीएलएटी के न्यायाधीशों को विषय विशेषज्ञों द्वारा इस विषय में गहरी जानकारी मुहैया कराई जानी चाहिए ताकि वे विभिन्न प्रकार के ऋणशोधन की प्रकृति और परिणाम से अवगत हो सकें। अनुभवी न्यायाधीश इस विचार से नाराज हो सकते हैं कि उन्हें ऐसे मामलों के आर्थिक प्रभाव की बेहतर समझ पैदा करनी होगी। जबकि यह सही है कि प्रवर्तक अन्य पक्षकार ऐसे मामलों को अपने पक्ष में करने के लिए जुगत लगाते हैं। व्यापक जनहित में सर्वोच्च न्यायालय को चाहिए कि वह न्यायिक निर्णय से पहले ऐसी ब्रीफिंग को अनिवार्य बना दे।

लब्बोलुआब यह है कि गलत निर्णय और धोखाधड़ी से भरे ऋणशोधन प्रक्रिया के मौजूदा मामले यह बताते हैं कि देश में वित्तीय मध्यस्थता के बेहतर नियमन की आवश्यकता है। इसके अलावा ऋणशोधन प्रक्रिया की गति भी तेज करने की जरूरत है। आरबीआई को बैंकों और एनबीएफसी को भी इस विषय में अवगत कराना चाहिए। सर्वोच्च न्यायालय को इस विषय में 12 फरवरी, 2018 का परिपत्र सामने करना चाहिए जिसमें ऋणदाताओं को डिफॉल्ट के मामलों को एनसीएलटी के समक्ष ले जाने के लिए कमतर समय सीमा दी गई है। स्वतंत्रता की तरह समझदारी भरी बैंकिंग के लिए भी शाश्वत सतर्कता के साथ-साथ वित्तीय और आर्थिक मुद्दों की बेहतर समझ की आवश्यकता होती है।

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