बहु-संस्कृतिवाद को उभरते उप-राष्ट्रवाद से गंभीर खतरा
नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) और राष्ट्रीय नागरिक पंजी (एनआरसी) पर मचा घमासान इस बात की तरफ स्पष्ट इशारा करता है कि सरकार लंबे समय से चली आ रही देश की बहु-संस्कृतिवाद की परंपरा के प्रति गंभीर नहीं है। देश को 'मुस्लिम मुक्त' बनाने की प्रधानमंत्री नरेंद मोदी और गृह मंत्री अमित शाह की योजना ने एक विकराल रूप धारण कर लिया है, जो देश के बहु-संस्कृतिवाद के आसन्न खतरों की महज एक झलक भर है। सीएए और एनआरसी पर हो रहा विरोध केवल एक जगह सीमित नहीं है और इसने देश में 'उप-राष्ट्रवाद' की ज्वाला भड़का दी है। अगर यह स्थिति जल्द नियंत्रित नहीं गई तो देश के लिए इसके गंभीर परिणाम हो सकते हैं।
सीएए और एनआरसी को लेकर मुसलमानों में अंसंतुष्टी से देश में विरोध प्रदर्शन का स्वर तेज होता गया और देश के कई क्षेत्रों में विभिन्न समुदायों के लोग एक साथ सड़क पर उतर आए। 27 प्रतिशत आदिवासी आबादी वाले झारखंड के मतदाताओं ने एनआरसी प्रक्रिया को लेकर अपनी नाराजगी जता दी है, खासकर नागरिकता से जुड़े प्रमाण के लिए ऊंचे मानदंड तय किए जाने से लोगों में गुस्सा फूट पड़ा है।
पूर्वोत्तर भारत के लोगों को खासकर इस बात का डर सता रहा है कि सीएए और एनआरसी के बाद बंगाली हिंदुओं के आने से उनकी अपनी विशेष पहचान खत्म हो जाएगी। जनवरी में विधेयक संसद में पारित नहीं हो पाया था और कानून के नए प्रारूप में इन राज्यों की चिंताएं दूर करने के लिए बदलाव किए गए थे। इस तरह, पूर्वोत्तर भारत में बड़े पैमाने पर आदिवासी क्षेत्र इस कानून की जद से बाहर रखे गए थे।
सीएए और एनआरसी पर विभिन्न समूहों एवं समुदायों ने आपत्ति जताई है। पूर्वोत्तर भारत में हिंदू एवं मुस्लिम बंगाली समुदाय स्थानीय लोगों के गुस्से का शिकार हो रहे हैं और खासकर असम में लोगों का गुस्सा इनके खिलाफ दोबारा फूट पड़ा है। सिक्किम के पूर्व फुटबॉल खिलाड़ी और अब राजनीति में उतरे बाईचुंग भूटिया ने ऐसी चिंता जताई है कि उनके राज्य की संस्कृति पर हमला किया जा रहा है। प्राय: सभी लोग बांग्लादेश से आने वाले घुसपैठियों की ओर इशारा कर रहे हैं, लेकिन जब भाषा संस्कृति सीमाएं लांघती हैं तो जातिगत हिंसा का रण क्षेत्र तैयार हो जाता है। भाजपा ने बहुत पहले ही सभी मुसलमान परस्तों को पाकिस्तान जाने की सलाह दे दी है। अब अगर भाजपा यह मांग करने लगे कि सभी बंगालियों को बांग्लादेश जाना चाहिए तो इसमें किसी तरह का आश्चर्य नहीं होना चाहिए।
इस तेजी से उभरते उप-राष्टवाद के साथ जुड़ी सबसे बड़ी चिंता यह है कि अर्थव्यवस्था में अगर सुधार नहीं हुआ और रोजगार की संभावनाएं कम हुईं तो इसमें और तेजी आ सकती है। पिछली बार के वैश्विक वित्तीय संकट से यह बात पूरी तरह साफ हो चुकी है और इसके लिए सरकार को इतिहास के पन्ने भी पलटने की जरूरत नहीं है। देश ने 2008 में वह नजारा देखा था जब महाराष्ट नव निर्माण सेना (एमएनएस) के लोगों के डर से उत्तर प्रदेश और बिहार के भयभीत लोग किस तरह देश की वित्तीय राजधानी मुंबई से पलायन कर रहे थे।
इसके बाद 2012 में भारत की अर्थव्यवस्था शिथिल पड़ी थी तो उस समय भी पूर्वोत्तर के लोग भारत का तथाकथित 'सिलिकन वैली' माने जाने वाले सूचना-प्रौद्योगिकी (आईटी) केंद्र बेंगलूरु से खदेड़े जा रहे थे। इस साल मई में भी कई वीडियो सामने आए, जिनमें राजनीतिक लफंगे कश्मीर से ताल्लुक रखने वाले कारोबारियों को पीट रहे थे और उन्हें आतंकवादी तक कहा जाने लगा था। अगस्त में सरकार ने जम्मू कश्मीर का संविधान प्रदत्त विशेष दर्जा समाप्त कर दिया और मोटे तौर पर देश के ज्यादातर हिस्सों में इसे लेकर संतोष का भाव देखा गया। गैर-कश्मीरी मानने लगे कि अब वह भी 'धरती के स्वर्ग' में जमीन-मकान आदि खरीद पाएंगे। 5 अगस्त से यह पूरा क्षेत्र सुरक्षा घेरे में हैं और धीरे-धीरे इंटरनेट सेवाएं बहाल की जा रही हैं। अक्टूबर में श्रीनगर में एक उच्च स्तरीय निवेश सम्मेलन आयोजित होना था, लेकिन इसे स्थगित कर दिया गया और यह नई दिल्ली में आयोजित हुआ।
आंध प्रदेश में भी उप-राष्टवाद का झंडा बुलंद किया जा रहा है। मुख्यमंत्री वाई एस जगन मोहन रेड्डी ने राज्य के मौजूदा और नए उद्योगों-सार्वजनिक, संयुक्त उद्यम-सभी के लिए स्थानीय लोगों के लिए 75 प्रतिशत नौकरियां आरक्षित करना अनिवार्य कर दिया है। 2014 में विभाजन के बाद अस्तित्व में आया आंध्र प्रदेश देश का पहला ऐसा राज्य है, जिसने यह दिशानिर्देश दिया है। अब दूसरे राज्य भी इस दिशा में आगे बढ़ सकते हैं। महाराष्ट में 2008 में राज ठाकरे के डर से उत्तर प्रदेश और बिहार के लोगों के पलायन के बाद छोटी एवं मझोली फैक्टरियां खाली हो गई थीं और महिंद्रा ऐंड महिंद्रा सहित दूसरे बड़े उद्योगों को कल-पुर्जों की आपूर्ति थम गई थी। बेंगलूरु से पूर्वोत्तर के लोगों के पलायन के बाद हजारों छोटे कारोबार खासकर तेजी से बढ़ता सेवा क्षेत्र कर्मचारी विहीन हो गए थे। हालात इतने खराब हो गए थे कि राज्य के गृहमंत्री को लोगों का डर दूर करने स्वयं रेलवे स्टेशनों के चक्कर लगाने पड़े।
राज्य में निवेश करने के आतुर निवेशकों से रेड्डी ने बात की होती तो वे उन्हें इस स्थानीय राजनीति के नुकसान के बारे में पता चलता। कारोबारों, खासकर जो वैश्विक स्तर पर अपनी पहचान बनाना चाहते हैं, को सामाजिक एवं क्षेत्रीय पक्षों से ध्यान हटाकर प्रतिभा को वरीयता देनी चाहिए। इस तर्क को शायद ही कोई आसानी से स्वीकार करेगा कि आंध्र के लोग देश के दूसरे हिस्सों से अधिक प्रतिभावान हैं, इसलिए उन्हें विशेष अवसर दिया जाना चाहिए। महाराष्ट में एमएनएस को इस तरह की सोच का नुकसान उठाना पड़ा है। वहां निजी क्षेत्र लागत के लिहाज से किफायती मानव श्रम को अधिक तरजीह दे रहे हैं।