महात्मा गांधी कैसा रामराज्य चाहते थे?
भारत में ‘रामराज्य’ शब्द के अर्थ को लेकर कई भ्रांतियां रही हैं. कई विद्वान इस शब्द के प्रयोग से बचते रहे हैं. लेकिन अब जबकि इस शब्द के अर्थ का नए सिरे से राजनीतिक दुरुपयोग हो रहा है और इसके एक संकीर्ण अर्थ को राजनीतिक रूप से स्थापित करने की अज्ञानतापूर्ण कोशिश हो रही है, तो ऐसी स्थिति में हमें गांधी के सपनों का वास्तविक ‘रामराज्य’ फिर से समझने की जरूरत है. ऐसा नहीं है कि स्वयं गांधीजी के समय में इस शब्द के प्रति भ्रांतियां नहीं थीं. कई मौकों पर खुद उन्हें इस पर स्पष्टीकरण देना पड़ा था. इसलिए विभिन्न अवसरों पर उनके रामराज्य संबंधी वक्तव्यों का पुनर्पाठ इस मायने में बहुत ही महत्वपूर्ण हो सकता है.
दांडी मार्च के दौरान ही ऐसी ही भ्रांतियों के निवारण के लिए उन्हें 20 मार्च, 1930 को हिन्दी पत्रिका ‘नवजीवन’ में ‘स्वराज्य और रामराज्य’ शीर्षक से एक लेख लिखना पड़ा था. इसमें गांधीजी ने कहा था- ‘स्वराज्य के कितने ही अर्थ क्यों न किए जाएं, तो भी मेरे नजदीक तो उसका त्रिकाल सत्य एक ही अर्थ है, और वह है रामराज्य. यदि किसी को रामराज्य शब्द बुरा लगे तो मैं उसे धर्मराज्य कहूंगा. रामराज्य शब्द का भावार्थ यह है कि उसमें गरीबों की संपूर्ण रक्षा होगी, सब कार्य धर्मपूर्वक किए जाएंगे और लोकमत का हमेशा आदर किया जाएगा. ...सच्चा चिंतन तो वही है जिसमें रामराज्य के लिए योग्य साधन का ही उपयोग किया गया हो. यह याद रहे कि रामराज्य स्थापित करने के लिए हमें पाण्डित्य की कोई आवश्यकता नहीं है. जिस गुण की आवश्यकता है, वह तो सभी वर्गों के लोगों- स्त्री, पुरुष, बालक और बूढ़ों- तथा सभी धर्मों के लोगों में आज भी मौजूद है. दुःख मात्र इतना ही है कि सब कोई अभी उस हस्ती को पहचानते ही नहीं हैं. सत्य, अहिंसा, मर्यादा-पालन, वीरता, क्षमा, धैर्य आदि गुणों का हममें से हरेक व्यक्ति यदि वह चाहे तो क्या आज ही परिचय नहीं दे सकता?’
इससे पहले अहसहयोग आंदोलन के दौरान 22 मई, 1921 को गुजराती ‘नवजीवन’ में महात्मा गांधी लिख चुके थे -‘कुछ मित्र रामराज्य का अक्षरार्थ करते हुए पूछते हैं कि जब तक राम और दशरथ फिर से जन्म नहीं लेते तब तक क्या रामराज्य मिल सकता है? हम तो रामराज्य का अर्थ स्वराज्य, धर्मराज्य, लोकराज्य करते हैं. वैसा राज्य तो तभी संभव है जब जनता धर्मनिष्ठ और वीर्यवान् बने. ...अभी तो कोई सद्गुणी राजा भी यदि स्वयं प्रजा के बंधन काट दे, तो भी प्रजा उसकी गुलाम बनी रहेगी. हम तो राज्यतंत्र और राज्यनीति को बदलने के लिए प्रयत्न कर रहे हैं; बाद में हमारे सेवक के रूप में अंग्रेज रहेंगे या भारतीय हमें इसकी चिंता नहीं करनी पड़ेगी. हम अंग्रेज जनता को बदलने का प्रयास भी नहीं करते. हम तो स्वयं अपने-आप को बदलने का प्रयास कर रहे हैं.’
अपने अर्थों वाले रामराज्य के निर्माण में महिलाओं की भागीदारी अनिवार्य बताते हुए 16 जनवरी, 1925 को महिलाओं की एक विशेष सभा में महात्मा गांधी ने कहा था - ‘...मैं सदा से कहता आया हूं कि जब तक सार्वजनिक जीवन में भारत की स्त्रियां भाग नहीं लेतीं, तब तक हिन्दुस्तान का उद्धार नहीं हो सकता. लेकिन सार्वजनिक जीवन में वही भाग ले सकेंगी जो तन और मन से पवित्र हैं. जिनके तन और मन एक ही दिशा में - पवित्र दिशा में चलते जा रहे हों, जब तक ऐसी स्त्रियां हिन्दुस्तान के सार्वजनिक जीवन को पवित्र न कर दें, तब तक रामराज्य अथवा स्वराज्य असंभव है. यदि ऐसा स्वराज्य संभव भी हो गया, तो वह ऐसा स्वराज्य होगा जिसमें स्त्रियों का पूरा-पूरा भाग नहीं होगा, और वह मेरे लिए निकम्मा स्वराज्य होगा.’
गांधी जाति-व्यवस्था को रामराज्य के लिए सबसे घातक मानते थे. 24 जनवरी, 1928 को सौराष्ट्र के मोरबी रियासत के राजा की उपस्थिति में मोढ़ बनिया जाति के लोगों ने महात्मा गांधी को मानपत्र भेंट किया. वही मोढ़ बनिया जाति जिसने गांधी के लंदन पढ़ने जाने के निर्णय के बाद उन्हें जाति से बहिष्कृत कर दिया था. मानपत्र लेने के अवसर पर गांधी ने समूची जाति-व्यवस्था को ही रामराज्य अथवा स्वराज्य के लिए घातक बताते हुए कहा था - ‘मैं यह माननेवाला रहा हूं कि (जाति के) इन छोटे-छोटे बाड़ों का नाश होना चाहिए. मुझे इस बारे में कोई शक नहीं कि हिन्दू-धर्म के भीतर जातियों के लिए कोई जगह नहीं है. और यह मैं मोढ़ या दूसरी जो भी जातियां यहां पर हों उन्हें ध्यान में रखकर कहता हूं. ...आप सबसे मोढ़ जाति के निमित्त मैं यह कहना चाहता हूं कि जाति के बाड़ों को भूल जाइये. आज जो जातियां हैं उनको यज्ञ की आहूति के रूप में उपयोग कर स्वाहा कीजिए और नई जाति न बनने दीजिए.’
उन्होंने आगे कहा - ‘...आप (जाति के) इन छोटे-छोटे बाड़ों के खड्डों में पड़े रहेंगे तो बदबू उठेगी. डॉक्टर खड्डे भर देने की सलाह देते हैं, उसी तरह यह भी समझ लीजिए कि जाति के बाड़े भी मनुष्य के लिए घातक हैं. यह समझ लीजिए कि ईश्वर कभी ऐसी घातक रचना नहीं कर सकता. ...(जाति के बचाव में चल रही) बहस और अज्ञान को ज्ञान मत कहिए. आज दुनिया में जुदा-जुदा धर्मों का मुकाबला हो रहा है. लेकिन यदि हम खुले मन से देखें तो जान पड़ेगा कि हमारी जातियां हमारी तरक्की को, (वास्तविक मनुष्य) धर्म को, स्वराज्य को और रामराज्य को रोकने का कार्य करती है. मैं तो इन बाड़ों को तोड़ने की कोशिशें तेज करना चाहता हूं. आपको पता नहीं होगा कि मैंने अपने एक लड़के का ब्याह जाति से बाहर किया है.’
आज रामराज्य को एक खास धार्मिक संप्रदाय से जोड़ा जा रहा है. गांधी के समय भी ऐसा प्रयास हुआ था. इसका जवाब देते हुए 26 फरवरी, 1947 को एक प्रार्थना-सभा में महात्मा गांधी ने कहा था - ‘जिस आदमी की कुर्बानी की भावना अपने संप्रदाय से आगे नहीं बढ़ती, वह खुद तो स्वार्थी है ही, वह अपने संप्रदाय को भी स्वार्थी बनाता है. ...मैंने अपने आदर्श समाज को रामराज्य का नाम दिया है. कोई यह समझने की भूल न करे कि राम-राज्य का अर्थ है हिन्दुओं का शासन. मेरा राम खुदा या गॉड का ही दूसरा नाम है. मैं खुदाई राज चाहता हूं जिसका अर्थ है धरती पर परमात्मा का राज्य. ...ऐसे राज्य की स्थापना से न केवल भारत की संपूर्ण जनता का, बल्कि समग्र संसार का कल्याण होगा.’
25 मई, 1947 को एक साक्षात्कार में महात्मा गांधी ने आर्थिक असमानता को रामराज्य के लिए खतरा बताते हुए कहा था - ‘आज आर्थिक असमानता है. समाजवाद की जड़ में आर्थिक असमानता है. थोड़ों को करोड़ और बाकी लोगों को सूखी रोटी भी नहीं, ऐसी भयानक असमानता में रामराज्य का दर्शन करने की आशा कभी न रखी जाए. इसलिए मैंने दक्षिण अफ्रीका में ही समाजवाद को स्वीकार कर लिया था. मेरा समाजवादियों से और दूसरों से केवल यही विरोध रहा है कि सभी सुधारों के लिए सत्य और अहिंसा ही सर्वोपरि साधन है…’ प्रश्नकर्ता ने इस पर तपाक से गांधी से दूसरा सवाल पूछा - ‘आप कहते हैं कि शासक, जमींदार और पूंजीपति केवल संरक्षक (ट्रस्टी) बनकर रहें. क्या आप इनलोगों से यह उम्मीद करते हैं कि ये अपनी प्रवृत्ति बदलेंगे?’
इस पर महात्मा गांधी का जवाब था - ‘...यदि वे लोग अपने आप संरक्षक नहीं बने तो समय उन्हें बनाएगा या फिर उनका नाश हो जाएगा. जब पंचायत-राज (सही मायनों में) बनेगा, तब लोकमत सब कुछ करवा लेगा. जमींदारी, पूंजी अथवा राजसत्ता की ताकत तब तक ही कायम रह सकती है, जब तक आम लोगों में अपनी ताकत की समझ नहीं होती. लोग अगर रूठ गए तो राजसत्ता, पूंजीपति या जमींदार क्या कर सकता है?’
आज विजयादशमी के दिन हर जगह संत तुलसीदास के ‘रामचरितमानस’ की गूंज रहती है. उसी रामचरितमानस में तुलसीदास ने लिखा था -
दैहिक दैविक भौतिक तापा। राम राज नहिं काहुहि ब्याप।।
सब नर करहिं परस्पर प्रीती। चलहिं स्वधर्म निरत श्रुति नीत।।
यानी ‘रामराज्य’ में किसी भी मनुष्य को दैहिक, दैविक और भौतिक समस्याओं से परेशान नहीं होना पड़ता. सभी मनुष्य आपस में प्रेम से रहते हैं. वे नीति और मर्यादा में तत्पर रहकर अपने-अपने मनुष्योचित धर्म का पालन करते हैं.
लेकिन अब तुलसीदास को भी कथित ‘रामभक्तों’ ने इतना संकीर्ण बना दिया है कि आज तुलसीदास यदि स्वयं मौजूद होते तो अवश्य ही कुछ कहते. हालांकि ऐसे भेड़ियाधसान ‘भक्तों’ की आशंका उन्हें पहले से ही रही होगी इसलिए उन्होंने अपनी एक अन्य पुस्तक ‘दोहावली’ में लिखा है -
तुलसी भेड़ी की धंसनि, जड़ जनता सनमान।
उपजत ही अभिमान भो, खोवत मूढ़ अपान।।
तुलसीदास कहते हैं कि भोली जनता तो भेड़ियाधसान के समान है - एक भेड़ जहां गिरा, सब वहीं गिरने लगते हैं. इसलिए ऐसी जनता से मिली मान-बड़ाई भी मिथ्या है. इसे पाकर जिसके मन में अहंकार उत्पन्न होता है, वह मनुष्य मूढ़तावश अपना आपा खो बैठता है और अपने पद से गिर जाता है.
चलते-चलते तुलसीदास जी की इसी पुस्तक से एक और दोहा पढ़ते चलें -
बलि मिस देखे देवता, कर मिस मानव देव।
मुए मार सुविचार हत, स्वारथ साधन एव।।
यानी बलि के बहाने देवताओं की देवताई भी देख ली. और कर (टैक्स) के बहाने शासकों को भी देख लिया. ये सब अच्छे विचार से हीन होते हैं. ये मरे हुए को ही मारते हैं और केवल अपना स्वार्थ ही साधते हैं.
दाशरथि राम के विजयोत्सव के शोर में सुधिजन समझें और समझाएं कि तुलसीदास और महात्मा गांधी के अर्थों वाला वास्तविक रामराज्य कैसे और कब आएगा!