वक्त की मांग है पुरुष आयोग का गठन
पिछले साल मी टू अभियान का बहुत शोर हुआ था। उस दौरान महिलाओं का एक वर्ग कह रहा था कि अच्छा है कि औरतें अपने प्रति हुए यौन अपराधों की बातें कह रही हैं। बात सच भी थी, क्योंकि औरतों को अपने प्रति हुए इस तरह के अपराधों को छिपाने की सलाह कोई और नहीं उनके परिवार वाले ही देते थे, लेकिन यह भी सच है कि धीरे-धीरे झूठे मामले सामने आने लगे। मी टू आंदोलन अमेरिका से शुरू होकर यहां पहुंचा। अमेरिका में एक अटार्नी जनरल पर भी यौन शोषण का आरोप लगाया गया। बाद में आरोप लगाने वाली महिला ने कहा कि वह तो उन्हें जानती ही नहीं। कभी मिली भी नहीं। अपने यहां भी एक ब्यूटी पेजेंट में भाग लेने वाली एक लेखिका ने एक बड़े लेखक पर ऐसे आरोप लगाए, लेकिन जब उस लेखक ने उस महिला की मेल सार्वजनिक कर दी तो वह मैदान छोड़कर भाग खड़ी हुई। यह भी लगा कि इस तरह की बातें बढ़-चढ़कर इसलिए भी की गईं ताकि रातों रात प्रसिद्धि मिल सके। इस मी टू विमर्श पर कई तरह के विचार सामने आए। वे महिलाएं इस विमर्श से बाहर थीं जो दो जून की रोटी और अपने बाल-बच्चों के लिए हाड़-तोड़ मेहनत करती हैं और इसी दौरान तमाम तरह के अत्याचार और शोषण से गुजरती हैं। ऐसी महिलाएं चर्चा का विषय तब बनती हैं जब कोई एनजीओ या बड़ा संस्थान अथवा मीडिया उन्हें अपने विचार प्रकट करने के लिए बुलाता है। मी टू के दिनों में ही वी टू, ही टू, मैन टू की आवाजें सुनी गईं, लेकिन वे बहुत धीमी थीं।
महिलाओं को अधिकार मिलें और कानून उनकी सहायता करे, लेकिन कानून के नाम पर निरपराधों को फंसाना, उनकी प्रतिष्ठा को धूमिल करना लोकतंत्र और मानवता के खिलाफ है। मानव अधिकार न केवल स्त्रियों के होते हैं, न केवल पुरुषों के। वे सबके लिए होते हैं और कानून का काम सभी के मानव अधिकारों की रक्षा करना है। अफसोस कि स्त्रियों के लिए जो कानून बने हैं वे इतने एकपक्षीय हैं कि वे औरतों को देवी और सदा सच बोलने वाली और पुरुषों को खलनायक के तौर पर पेश करते हैं। ये एकपक्षीय कानून पुरुषों के घर की औरतों को भी पितृसत्ता का प्रतीक मानकर सताने का काम करते हैं। इसीलिए जेंडर न्यूट्रल कानूनों की मांग उठने लगी है। जो भी अपराधी हो-स्त्री या पुरुष उसे सजा मिले। कानून का काम अपराधी को सजा देना ही होना चाहिए। उसकी लाठी से निरपराध को क्यों सताया जाए?
हाल में मीडिया के एक हिस्से में मैन टू अभियान चला। मैन टू अभियान चलाने में अग्रणी भूमिका अभिनेत्री पूजा बेदी ने निभाई। उन्होंने कहा कि अब वक्त आ गया है कि पुरुषों के अधिकारों की बातें भी होनी चाहिए। आखिर यह वह जमाना नहीं जिसे पितृसत्ता के वर्चस्व का पर्याय माना जाता हो। अब महिलाओं को भी पूरे अधिकार हैं। इसके बावजूद महिलाएं जब चाहें तब खुद को शक्तिशाली कहती हैं और जब चाहे तब बेचारी दिखाने लगती हैं। उदाहरण के तौर पर लिव इन में रहने वाली महिलाएं, जो रिश्ता टूटने पर दुष्कर्म का आरोप लगा देती हैं। जबकि अदालतें सहमति से संबंध को दुष्कर्म नहीं मानतीं। पूजा बेदी ने मी टू के दिनों का उदाहरण देते हुए कहा कि उन दिनों पीआर एजेंसीज सक्रिय हो गई थीं। वे फिल्म जगत में जगह बनाने को आतुर लड़कियों को सलाह दे रही थीं कि वे नामी-गिरामी लोगों पर ऐसे आरोप लगा दें। इससे उनकी चर्चा होगी और काम मिलेगा। उन्होंने राष्ट्रीय महिला आयोग के आंकड़े देकर यह भी बताया कि अप्रैल 2013 से जुलाई 2014 तक दुष्कर्म के जितने मामले दर्ज कराए गए उनमें से 53.2 प्रतिशत झूठे पाए गए। एनसीआरबी के आंकड़ों में भी बताया गया है कि दहेज से संबंधित दस प्रतिशत केस झूठे होते हैं। उनके अनुसार उच्चतम न्यायालय ने भी यही कहा कि जो कानून महिलाओं को उनके पति और ससुराल वालों से रक्षा के लिए बनाया गया था उसे ससुराल वालों और पति से बदला लेने के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है। पूजा बेदी ने मांग की कि वक्त आ गया है कि महिला कमीशन की तर्ज पर पुरुष कमीशन भी बनाया जाए ताकि निरपराध पुरुष भी अपनी बात कह सकें, क्योंकि उनकी बात कोई नहीं सुनता-न मीडिया, न सरकार और न ही समाज। वे बरी होने के बाद भी अपमान ङोलने को मजबूर होते हैं। उनका परिवार तहस-नहस हो जाता है।
अपने देश में हर वर्ष औसतन 94 हजार पुरुष आत्महत्या करते हैं। यह संख्या औरतों के मुकाबले छह प्रतिशत अधिक है। आत्महत्या का बड़ा कारण पारिवारिक और वैवाहिक विवाद होता है। इस पर महिला अधिकारों की एक प्रवक्ता ने बड़ी मासूमियत से कहा था कि पुरुष ऐसा इसलिए करते हैं, क्योंकि वे अवसाद का शिकार हो जाते हैं। क्या इसकी जांच-पड़ताल की जरूरत नहीं कि आखिर कोई अवसाद का शिकार क्यों होता है?