संस्कृति का समर्थन अपढ़ लोगों के हाथों विकृत हो रहा है और व्यापक समाज को इसकी चिंता तक नहीं है
कुछ वर्ष पहले राजस्थानी कवि और संस्कृतिविद चन्द्रप्रकाश देवल यह प्रस्ताव लेकर आये कि उदयपुर में मेवाड़ी मिनिएचर चित्रों का एक बड़ा संग्रह है और वे उसे सूचीबद्ध करने का एक प्रोजेक्ट हाथ में लेना चाहते हैं. हमने उन्हें इस काम के लिए रज़ा फ़ैलोशिप दे दी. काफ़ी अवधि बीत जाने के बाद उनसे सूचना मिली कि काम पूरा हो गया है. पिछले दिनों नियोगी बुक्स द्वारा प्रकाशित और आलोक भल्ला और चन्द्रप्रकाश देवल द्वारा लिखित पुस्तक ‘दि गीता’ मिली तो बहुत सुखद आश्चर्य हुआ. यह पुस्तक विचारशील अनुसन्धान के अलावा अल्लाह बख़्श चित्रकार द्वारा उदयपुर के महाराणा जय सिंह के संरक्षण में बनायी चित्र-श्रृंखला की बहुरंगी प्रस्तुति है. भारत की समूची मिनिएचर कला-सम्पदा में ‘गीता’ का ऐसा समग्र चित्रण नहीं है. हर चित्र पर मेवाड़ी में मूल संस्कृत श्लोक का अनुवाद अंकित है जिसका देवल जी ने हिन्दी और आलोक भल्ला ने अंग्रेज़ी में अनुवाद किया है. इस समय जब बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में एक मुसलमान प्रोफ़ेसर की नियुक्ति को लेकर बवाल मचाया जा रहा है, यह कृति एक प्रतिबिन्दु की तरह आयी है. यही नहीं कि ‘गीता’ का चित्रण एक मुसलमान कलाकार ने अद्भुत कौशल, रैडिकल दृष्टि और गहरी समझ और संवेदना से किया है बल्कि यह भी किसी हिन्दू द्वारा गीता का ऐसा समग्र चित्रण नहीं है. कम से कम मेरी जानकारी में यह ‘गीता’ का एकमात्र समग्र चित्रण है.
यह दिलचस्प है कि इस चित्र-श्रृंखला में कृष्ण का न तो वीर, न ही प्रेमी रूप दिखाया गया है जो कृष्ण पर आधारित चित्रावलियों में आम रहा है. यहां कृष्ण में न तो नायकत्व की मुद्राएं हैं, न ही किसी तरह का आध्यात्मिक अभिमान. चित्रकार के लिए गीता एक विलक्षण संवाद है ईश्वर और मनुष्य के बीच, युद्ध की दयनीयता और दुख के बारे में हर चित्र एक तरह का उन्मीलन है. इसलिए इसे मात्र गीता का चित्रण नहीं बल्कि गीता की एक चित्रकार द्वारा व्याख्या, उसके एक अद्भुत चित्रपाठ के रूप में भी देखा-समझा जाना चाहिये.
उदयपुर के सिटी पैलेस संग्रहालय में ‘महाभारत’ को लेकर 4000 चित्र संग्रहीत हैं. जिनमें से 550 से अधिक चित्र ‘गीता’ को लेकर हैं. इस मुक़ाम पर याद आता है कि आधुनिक चित्रकार मक़बूल फ़िदा हुसैन ने एक ज़माने में ‘रामायण’ और ‘महाभारत’ दोनों को लेकर बड़ी संख्या में चित्र बनाये थे जो हैदराबाद के साहित्य-संस्कृति प्रेमी बदरीविशाल पित्ती जी ने निजी संग्रह में थे. किसी हिन्दू चित्रकार ने इन दोनों महाकाव्यों को लेकर सम्भवतः इससे पहले और बाद भी ऐसे चित्र नहीं बनाये.
हमारा यह भीषण दुर्भाग्य है कि ऐसी मानसिकता पढ़े लिखों तक में आम होती जा रही है कि तथाकथित भारतीय संस्कृति की रक्षा और समझ सिर्फ़ हिन्दुओं में ही है, हो सकती है। हम उस विपुल कलात्मक-बौद्धिक-साहित्यिक साक्ष्य की अनदेखी कर रहे हैं जिसमें भारत के हर सम्प्रदाय ने, ख़ासकर मुसलिम, सिख, बौद्ध, जैन सम्प्रदायों ने भारतीय संस्कृति की समृद्धि में बहुत निर्णायक भूमिका निभायी है और उसकी निरन्तरता और व्याख्या में योगदान किया है.
एक सुबह
यह सर्वथा अप्रत्याशित थी. विश्वकोष अहमदाबाद की सभा में देश के श्रेष्ठ वास्तुकार और संस्था-निर्माता बालकृष्ण दोषी की उपस्थिति. 90 की उमर में भी वे फुर्तीले हैं और बहुत गरमजोशी से मिले और उन्होंने मुझे अपनी बहुचर्चित पुस्तक ‘पाथ्स अनचार्टर्ड’ के नये सुन्दर संस्करण की एक प्रति भेंट की. अगली सुबह हम उनके साथ ‘हुसैन गुफा’ और उनका कार्यालय ‘संगत’ देखने गये. गुफा एक काफ़ी विचित्र संरचना है जिसकी छत पर अन्दर हुसैन ने चित्र बनाये हैं. वहां जब-तब कर्मशालाएं आदि होती रहती हैं. संरचना दो मिथकीय अभिप्रायों कूर्म और सर्प को लेकर विकसित की गयी है। गुफा के बगल में एक पूरी सुसज्जित कलावीथिका भी है. हम इस पर सहमत होते हैं कि जल्दी ही गुफा में नियमित संवादों की एक श्रृंखला रज़ा फ़ाउण्डेशन शुरू करे. दोषी ने बरसों कार्बूज़िए के साथ काम किया था. अपनी पुस्तक में एक जगह वे लिखते हैं: ‘कार्बूज़िए ने दो समानान्तर रेखाएं खींचीं और कहा कि ये दो नदी के तट हैं. फिर एक भटकती सी रेखा समानान्तर रेखाओं के बीच खींचते हुए वे बोले कि सत्य कभी किसी नदी-तट को नहीं छूता. वह बीच में बहता है कभी अधिक बायीं और, कभी अधिक दायीं और अन्ततः वृहत्तर सत्य के समुद्र में मिल जाता है. वह कभी पक्ष नहीं लेता, न ही इतना परिभाषिक होता है कि सत्व को नज़रन्दाज़ कर दे.’ अन्यत्र वे उद्घृत करते हैं हिन्दू दर्शन का सार: विकास, विस्तार, क्षोभ और द्रव: प्रस्फुटन, बढ़त, और पिघलाव.
उसके बाद हम कथक गुरु और रश्मि के साथ कथक में शिक्षा पानेवाली कुमुदिनी लाखिया के घर गये. वे नब्बे बरस की हो रही हैं और उनके घुटने कष्ट देने लगे हैं पर अब भी नियमित रूप से ‘कदम्ब’ संस्था चलाती हैं और उसमें नयी-नयी कौरियोग्राफ़ी करने का उनका उत्साह ज़रा भी शिथिल नहीं हुआ है. कुमुदिनी जी उन बेहद बिरले कथक-गुरुओं में से हैं जिनके सक्षम शिष्यों की संख्या बड़ी है और जिनमें से कइयों ने कथक में बहुत सार्थक नवाचार किया है. उनका आग्रह परम्परा को जान-समझ और स्वायत्त कर कुछ नया सोचने-करने पर रहा है. स्वयं दशकों पहले उन्होंने सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की एक कविता ‘कोट’ पर कथक-रचना कर कथक में एक नया मोड़ ही ला दिया था. वे पुरानी चीज़ों को भी नये सन्दर्भ में नयी चमक के साथ पुनरुज्जीवित करने में विश्वास करती हैं. जब कुमुदिनी जी शम्भु महाराज से सीखती थीं तो रश्मि बिरजू महाराज से, जिनकी उमर कम थी पर हुनर बहुत बड़ा. कुछ उस ज़माने की याद होती है. संस्कृति की सार्वजनिक दुर्दशा से वे बहुत क्षुब्ध और निराश हैं. संस्कृति का सार्वजनिक समर्थन इस समय अपढ़ लोगों के हाथों विकृत हो रहा है और व्यापक समाज को इसकी चिन्ता तक नहीं है. मीडिया भी इस ओर ज़रा भी ध्यान नहीं दे रहा है.
संवैधानिक मूल्य और स्थिति
हमारे स्वतंत्रता-संग्राम का समापन दो उपलब्धियों में हुआ. देश स्वतंत्र हुआ और स्वतंत्रता मिलने के बाद जल्दी ही हमें एक सुविचारित-सुलिखित संविधान मिला. यह संविधान परिपूर्ण और सदा के लिए स्थिर संविधान नहीं था. पिछले 70 वर्षों में उसे कई बार संशोधित किया गया है जो उसकी निरन्तर गतिशीलता का प्रमाण है. लोकतंत्र, क़ानून, व्यवस्था, विभिन्न अंगों के कर्तव्य और मर्यादाएं आदि का प्रावधान संविधान में विस्तार से है. उसकी संभवतः सबसे मौलिक देन है उसमें भारतीय समाज को स्वतंत्रता, समता और न्याय के आधार पर विकसित होने के स्वप्न का शामिल किया जाना. इन तीनों मूल्यों के आधार पर, जो मूलतः इसी संविधान के बुनियादी मूल्य है, स्वयं संविधान और उसके पालन को जांचा जा सकता है. यह जांच और भी ज़रूरी है जब हाल ही में महाराष्ट्र के मामले में राज्यपाल, प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति का आचरण सन्देह और विवाद के घेरे में आ गया. इन सभी पदों पर संविधान की रक्षा और उसके पालन की शपथ ली गयी है. विडम्बना यह है कि इस संवैधानिक अवमूल्यन को लेकर जैसी प्रतिकूल प्रतिक्रिया होनी थी वैसी नहीं हुई है. एक कारण तो निश्चय ही यह है कि संविधान की, किसी अवसरवादिता के चलते, अवज्ञा करने के सभी राजनैतिक दल दोषी रहे हैं.
स्वतंत्रता के खाते में कुछ अच्छा विकास है जैसे कि दलितों-स्त्रियों-आदिवासियों में बढ़ती राजनैतिक चेतना और अपने हक़ पर इसरार करने के सफल अभियान. पर निजी स्वतंत्रता को राज्य द्वारा और कई बार सामाजिक समूहों द्वारा हरने की कोशिशें भी बराबर होती रही हैं और आज लगभग चरम पर हैं. अल्पसंख्यकों की स्वतंत्रता कहने को बरक़रार है पर अमल में वह लगातार सीमित की जा रही है. समता के खाते में यह है कि ग़रीबी और अशिक्षा में कमी आयी है पर इधर बेरोज़गारी इस क़दर बढ़ गयी है कि समता एक बहुत दूर का सपना लगने लगी है, ख़ास कर जब सत्ताधारी शक्तियां पूंजीपतियों के पक्ष में बहुत झुकी हुई हैं. न्याय के हिस्से सबको न्याय मिल पाना बहुत दूर की बात बना हुआ है. न्याय-प्रक्रिया इस क़दर ख़र्चीली और विलम्बकारी है कि वह आम आदमी के हिस्से न्याय कम ही आ पाता है. स्वयं न्यायालयों का आचरण, जैसा कि सर्वोच्च न्यायालय के हाल के कई फ़ैसलों से ज़ाहिर हो रहा है, राजनैतिक दबावों में, कई बार न्याय के पक्ष में कम, आस्था आदि के पक्ष में अधिक झुका जान पड़ता है.
संविधान को, इस तरह, विधायिका, न्यायपालिका और कार्यपालिका ने, अपने आचरण और व्यवहार से पुष्ट कम, अशक्त अधिक किया है. अलबत्ता संविधान फिर भी बना हुआ है और उसे आमूलचूल बदलने के दुश्चक्र फ़िलवक्त अदृश्य रूप से सक्रिय हैं. स्वतंत्रता, समता और न्याय के मूल्य बहुत सारी नागरिक गतिविधियों में जिनमें साहित्य, कलाए, शिक्षा, पर्यावरण आदि शामिल हैं अभी भी सक्रिय और सशक्त हैं. संविधान ने स्वयं नहीं सोचा था कि वह संवैधानिक संस्थाओं में नहीं अन्यत्र नागरिकों की सृजनशीलता में बचा रहेगा!