- बडे़ राज्यों में भी बच्चों की सेहत ठीक नहीं
- नीति आयोग की ‘हेल्दी स्टेट्स प्रोग्रेसिव इंडिया' रिपोर्ट स्वास्थ्य सेवाओं की गुणवत्ता और लोगों तक उनकी पहुंच के आधार पर राज्यों की रैंकिंग करती है और बताती है कि स्वास्थ्य सेवाओं के 23 प्रमुख संकेतकों, इनमें सुखद बदलाव से जुड़ी प्रक्रियाओं, संचालन व सूचनाओं को राज्यों ने कितनी तवज्जो दी। इस मामले में ओडिशा, मध्य प्रदेश और असम जैसे सूबों ने उल्लेखनीय सुधार किया है, जबकि उत्तराखंड जैसे राज्य ने एक से अधिक संकेतकों में लगातार गिरावट दिखाई है। हम यहां महिला और बाल स्वास्थ्य से जुड़े पांच प्रमुख संकेतकों के आधार पर देश के बड़े राज्यों की पड़ताल करेंगे। यह विश्लेषण रिपोर्ट के आधार वर्ष 2015-16 से किया गया है, जबकि आंकडे़ 2016 के हैं।.
- पहला संकेतक है, नवजात की मौत। इस मामले में राज्यों में भारी विषमताएं हैं। केरल में नवजात मृत्यु दर (प्रति हजार नवजातों में 28 दिनों तक न जीवित रहने वाले) छह है, जबकि मध्य प्रदेश में सबसे अधिक 32। हालांकि ओडिशा और मध्य प्रदेश, दोनों राज्यों में 2015-16 से इसमें उल्लेखनीय कमी आई है, क्योंकि ओडिशा में यह दर 35 से घटकर 32 हुई है, जबकि मध्य प्रदेश में 34 से घटकर 32। इस मामले में केरल और तमिलनाडु सतत विकास लक्ष्य पा चुके हैं, जो साल 2030 तक नवजात मृत्यु दर को घटाकर 12 या इससे कम करने की है। महाराष्ट्र और पंजाब भी लक्ष्य छूने के करीब हैं, जहां यह दर 13 है। उत्तराखंड को छोड़ दें, तो देश के तमाम राज्यों में नवजात मृत्यु दर में कमी आई है। उत्तराखंड में आधार वर्ष के मुकाबले इसमें दो अंक की वृद्धि हुई है और यह 28 से बढ़कर 30 हो गई है।.
- दूसरा संकेतक है- बाल मृत्यु। भारत में प्रति हजार बच्चों में से 39 पांच वर्ष तक भी जीवित नहीं रह पाते, पर उत्तराखंड और छत्तीसगढ़ को छोड़कर शेष सभी राज्यों में यह आंकड़ा स्थिर है या घटा है। उत्तराखंड में यह 38 से बढ़कर 41 हो गया है, जबकि छत्तीसगढ़ में 48 से बढ़कर 49। इस मामले में मध्य प्रदेश (55) शीर्ष पर है, जबकि केरल (11) सबसे नीचे। केरल, तमिलनाडु (19), महाराष्ट्र (21) व पंजाब (24) ने जहां सतत विकास लक्ष्य (1,000 बच्चों पर 25 बच्चों की मौत) हासिल कर लिया है, वहीं शीर्ष के दो राज्यों- असम (52) और मध्य प्रदेश (55) में राष्ट्रीय औसत के मुकाबले क्रमश: 10 व सात प्वॉइंट की कमी आई है।.
- तीसरा संकेतक है, जन्म के वक्त शिशु का कम वजन। ढाई किलो या इससे कम वजन के नवजातों में कुपोषण, संक्रमण, बौनापन और वयस्क जीवन में स्थाई व गंभीर बीमारी होने का खतरा ज्यादा रहता है। रिपोर्ट बताती है कि जम्मू-कश्मीर में सेहतमंद नवजात पैदा होते हैं, जहां केवल 5.5 फीसदी कम वजन के हैं, जबकि ओडिशा में सबसे अधिक 18.2 फीसदी। राजस्थान और हरियाणा ने इस मामले में महत्वपूर्ण सुधार किया है, जहां 2015-16 से कम वजन वाले शिशुओं के जन्म में 40 फीसदी से अधिक की गिरावट आई है। .
- चौथा संकेतक है, जन्म के समय लिंगानुपात। इस मामले में छत्तीसगढ़ और केरल ही बेहतर राज्य हैं, जहां 1,000 शिशु लड़कों पर शिशु लड़कियों की संख्या 950 से अधिक है। यह बताता है कि लिंग के आधार पर गर्भपात अब भी तमाम राज्यों में प्रचलित है। छत्तीसगढ़ में यह आंकड़ा 963 है, जबकि हरियाणा में सबसे कम 832। इससे भी अधिक चिंता की बात यह है कि 2013-15 और 2014-16 के बीच केरल, ओडिशा, पश्चिम बंगाल, कर्नाटक, हिमाचल प्रदेश, आंध्र प्रदेश, बिहार, तेलंगाना, असम, महाराष्ट्र, राजस्थान के अलावा गुजरात में भी बच्चों-बच्चियों का यह फासला बढ़ा है। .
- पांचवां संकेतक है, पूर्ण टीकाकरण। केरल, झारखंड, जम्मू-कश्मीर, आंध्र प्रदेश और मणिपुर में जहां शत-प्रतिशत टीकाकरण है, तो वहीं 10 अन्य राज्यों व केंद्रशासित क्षेत्रों में यह आंकड़ा 90 फीसदी से ज्यादा है। पूर्ण टीकाकरण का मतलब है कि सभी बच्चों को टीबी से बचाव के लिए बीसीजी, डिप्थीरिया, काली खांसी और टेटनस से बचाव के लिए डीपीटी वैक्सीन की तीन डोज, ओरल पोलियो वैक्सीन की तीन डोज और चेचक की वैक्सीन लगाई गई है। ओडिशा, नगालैंड और दमन और दीव में 60 फीसदी बच्चों को ही ये टीके लग पाए, हालांकि अब यहां भी इन टीकों से वंचित बच्चों के लिए टीकाकरण अभियान शुरू किया गया है।.
भारत की कुल आबादी 130 करोड़ है। जिस तरह से आबादी बढ़ रही है, बीमारियां भी बढ़ी हैं। डेंगू कहर बरपाने लगा है, तो जापानी इंसेफलाइटिस और चमकी जैसे नए नाम वाले बुखार से बच्चों की मौत हो रही है। ये आंकडे़ लगातार बढ़ रहे हैं। सरकारी और निजी अस्पतालों और क्लीनिकों में मरीजों की लाइन लगी हुई है। एक डॉक्टर दिन में 80 से 100 मरीज देख रहा है, सर्जरी करने वाले कुछ देर के लिए ही ओटी से बाहर आ रहे हैं। विश्व स्वास्थ संगठन कहता है कि एक हजार लोगों पर एक डॉक्टर होना चाहिए, लेकिन एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत में डॉक्टर और जनसंख्या का अनुपात है 1,000 पर 0.62 डॉक्टर। देश में जीवन प्रत्याशा (लाइफ एक्सपेक्टेंसी) 1970-75 में 49.7 साल थी, यह बढ़कर 2019 में 69 साल हो चुकी है। महामारी को छोड़कर बीमारी लगने की उम्र जो पहले 55 से 60 साल पर शुरू होती थी, हार्ट अटैक से लेकर मधुमेह व ब्लड प्रेशर की समस्या 30 से 45 साल की उम्र में देखने को मिल रही है। अब तो 45 साल की उम्र में घुटने भी जवाब देने लगे हैं।