- उदारवाद पर पुतिन का कठोर रवैया
- रूस के राष्ट्रपति ब्लादिमीर पुतिन ने उदारवाद को लेकर कई महत्वपूर्ण बातें की हैं। उन्होंने कहा है कि पूरी दुनिया से उदारवाद का दौर लगभग खत्म हो गया है। उनका मानना है कि उदारवादी विचार को जनता ने नकारना शुरू कर दिया है। उदारवाद की इस मजबूत पश्चिमी अवधारणा पर वामपंथी रूस की तरफ से यह अब तक का सबसे बड़ा हमला माना जा सकता है। पुतिन इतने पर ही नहीं रुके, उन्होंने आगे कहा कि अब वह दौर आ गया है कि उदारवादी किसी को भी किसी भी समय इस अवधारणा की आड़ में कुछ भी करने को मजबूर नहीं कर सकते हैं। पुतिन का मानना है कि पिछले कई दशकों के दौरान उदारवाद के नाम पर लोगों को तरह तरह के आदेश देकर सत्ता ने अपने हिसाब से काम करवाया। रूस के सर्वोच्च नेता का मानना है कि हर अपराध की सजा तो होनी ही चाहिए। किसी देश में घुस आने वालों को शरणार्थी के अधिकार के नाम पर अपराध करने की छूट नहीं दी जा सकती है। उदारवाद के नाम पर अराजकता की इजाजत कतई नहीं दी जा सकती है। उदारवाद का सिद्धांत किसी भी देश के बहुमत के अधिकारों के खिलाफ जाता है, लिहाजा अब वह अर्थहीन हो चुका है। पुतिन ने अपने बयान के समर्थन में कई बातें भी कहीं, उनमें सबसे महत्वपूर्ण है- उदारवाद के सिद्धांत को अपनाने वाली सरकारों ने अपनी जनता को भरोसा देने के बजाए सांस्कृतिक बहुलता और उदारता के नाम पर कई ऐसी बातों की मंजूरी दी जो बहुसंख्यक जनता के हितों के विरुद्ध थीं। इस संबंध में उन्होंने लैंगिक स्वतंत्रता का उदाहरण दिया। उनका कहना था कि समलैंगिक लोगों को अपनी मर्जी से जीवन जीने का हक है, खुश रहने का अधिकार है, लेकिन इसकी इजाजत देश के करोड़ों लोगों की पारंपरिक सांस्कृतिक और पारिवारिक संस्कारों को दांव पर लगाकर नहीं दी जा सकती है।
- हमें इस बात को समझना होगा कि पुतिन ऐसा क्यों कह रहे हैं। एक वामपंथी देश का सर्वोच्च नेता उदारवादी सिद्धांत के खिलाफ क्यों है। यह वह वामपंथी देश रूस है जो 1917 के आसपास से यह घोषणा करता आया है कि वह पूरी दुनिया की जनता को पूंजीवाद से मुक्त करेगा और धरती पर स्वर्ग उतार देगा। पश्चिम में अधिनायकवाद की अवधारणा जोर पकड़ रही थी, जब जर्मनी में नाजी हिटलर बड़े-बड़े दावे करते हुए खुद को श्रेष्ठ बता रहा था। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद उदारवाद की अवधारणा को आगे बढ़ाया गया जिसको वामपंथियों ने भी अपनाया। भारत जब आजाद हुआ तो इस उदारवाद को यहां की बहुलतावादी संस्कृति से जोड़ दिया गया। तर्क दिए जाने लगे कि भारत की बहुलतावादी संस्कृति के लिए दूसरे के प्रति उदार होना चाहिए। जब तक हमारा देश मार्क्सवाद और समाजवाद के रोमांटिसिज्म में रहा, देश में उदारवाद की आंधी चलती रही। लेकिन आंधी लंबे समय तक नहीं चल पाती और वह धीरे-धीरे स्थिर होने लगती है। उदारवाद की आंधी भी धीरे-धीरे थमने लगी पर उदारवाद की बयार बहती रही। आजादी के बाद की ज्यादातर सरकारों ने उदारवाद की इस बयार को रोकने की कभी कोशिश नहीं की, बल्कि जब भी यह थोड़ी धीमी होती तो कृत्रिम तरीके से भी इसको ताकत देने कोशिश सरकारों द्वारा होती रही। कभी संस्थाओं के माध्यम से तो कभी व्यक्तियों के माध्यम से। लेकिन कृत्रिमता कभी भी प्राकृतिक स्वरूप ग्रहण नहीं कर सकती। हिंदी के मशहूर लेखक रामवृक्ष बेनीपुरी ने लिखा है, ‘चाहे कितने भी ट्यूबलाइट लगा दिए जाएं, लेकिन वो सब मिलकर भी आकाशीय बिजली से निकलनेवाले प्रकाश की बराबरी नहीं कर सकते।’ उदारवाद के साथ यही हुआ।
- भारत के परिप्रेक्ष्य में लिबरल या उदारवादियों के सिद्धांतों और तर्को पर विचार करें तो पाते हैं कि वो बार-बार ये कहते हैं कि भारत विविध संस्कृतियों का देश है और हमें इस विविधता को संजो कर रखना चाहिए, इसका सम्मान करना चाहिए। भारत को विविध संस्कृतियों का देश कहते ही सबकुछ गड़बड़ाने लगता है, क्योंकि भारत विविध संस्कृतियों का देश नहीं है, उसकी संस्कृति एक है और विविधता उसका अनूठापन है। इसी अनूठेपन की वजह से भारतीय संस्कृति पूरी दुनिया में अलग स्थान रखती है। लंबे समय तक भारत को विभिन्न संस्कृतियों का देश कहा जाता रहा, अब भी कहा जाता है और इस आधार पर ही बहुलता व विविधता को बचाने के लिए अलग अलग धर्मो के हितों की रक्षा की बात की जाती रही और उनको भारतीय संस्कृति से अलग कर देखा जाता रहा। अज्ञानतावश लोग भारत के हिंदू व मुसलमानों की संस्कृति को अलग अलग देखते हैं। इससे ही दोनों समुदायों के बीच वैमनस्यता बढ़ती गई। जबकि दोनों की एक ही संस्कृति है- भारतीय संस्कृति।
- पुतीन जब कहते हैं कि पिछले कई दशकों के दौरान उदारवाद के नाम पर लोगों को तरह-तरह के आदेश देकर सत्ता ने अपने हिसाब से काम करवाया, तो गलत नहीं कहते हैं। इसकी बानगी आप भारत में भी देख सकते हैं। आप पिछले 50 वर्षो में पेश हुए बजट का विश्लेषण कर लें तो ये बातें साफ तौर पर दिखाई देंगी कि उदारवाद के नाम पर किस तरह से सत्ता प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से आदेश देकर अपना काम करवाती रही है। याद करिये 2015 के आसपास एक शब्द बहुत तेजी से राजनीतिक और साहित्यिक-सांस्कृतिक हलके में प्रचलित हुआ था- असहिष्णुता। असहिष्णुता को इस तरह से प्रचारित किया गया जैसे वह हिंदुत्व का एक दुगरुण हो। जबकि अगर सनातन धर्म के प्राचीन ग्रंथों को देखा जाए तो वहां सहिष्णुता और असहिष्णुता जैसी अवधारणा की उपस्थिति नगण्य है। लेकिन उदारवादियों ने इस नगण्य उपस्थिति को भी केंद्र में ला दिया। नतीजा यह हुआ पूरे देश में सहिष्णुता और असहिष्णुता को लेकर बहस छिड़ गई। एक ऐसी बहस जो न केवल अर्थहीन थी, बल्कि बाद में वह एक चुनावी दांव के तौर पर देखा गया।
- उदारवाद की अवधारणा को भारतीयों पर लादने की कोशिश की गई। भारत में इस तरह की अवधारणा के संकेत नहीं मिलते हैं। यहां तो समभाव की अवधारणा का उल्लेख मिलता है मतलब सबके साथ समान भाव से व्यवहार। उदारवादियों ने 2014 के बाद नरेंद्र मोदी सरकार पर आरोप लगाया कि वह लिबरल सरकार नहीं है। सरकार पर तानाशाही से लेकर फासिज्म तक के आरोप जड़े गए। चुनाव के पहले ‘मैं हिंदू क्यों हूं’ से लेकर ‘व्हाई आइ एम ए लिबरल’ जैसी पुस्तकें लिखी गईं। इस तरह की जितनी भी किताबें लिखी गईं वो उदारवादी अवधारणा को पुष्ट करने के उद्देश्य से लिखी गई थीं। जबकि जरूरत इस बात की है कि भारतीय अवधारणाओं के बारे में लगातार बात करके, लिखित में उसकी व्याख्या करके उसको पुष्ट किया जाए। भारतीय सभ्यता और संस्कृति का आधार इतना मजबूत है, इसकी अवधारणाएं इतनी स्पष्ट और व्यावहारिक हैं कि हमें किसी विदेशी अवधारणा को न तो अपनाने की जरूरत है और न ही उसको पोषित करने की। लेकिन दुर्भाग्य से मार्क्सवाद के रोमांटिसिज्म में हमारे देश ने वो दौर भी देखा जब ज्यादातर बुद्धिजीवी विदेशी अवधारणाओं के प्रभाव में चले गए। सिद्धांतों के प्रतिपादन के लिए भी विदेशी उद्धरणों का सहारा लिया जाने लगा। रूस और चीन का कम्युनिज्म हमारा आदर्श बन गया। लेकिन परिणाम क्या रहा। भारतीय संस्कृति पर आए विदेशी अवधारणाओं के बादल छंट गए, दूसरी तरफ रूस और चीन में अधिनायकवादी ताकतें हावी हो गईं। दोनों जगह लोकतंत्र नहीं पनप सका। चीन में शी चिनफिंग आजीवन शासक बने रहेंगे और रूस में पुतिन भी उसी राह पर हैं। कभी प्रधानमंत्री तो कभी राष्ट्रपति बन जाते हैं, सत्ता की बागडोर अपने हाथ में रखते हैं। तो जो लोग पहले उदारवाद की वकालत कर रहे थे उनका इससे मोहभंग होने लगा है। दूसरी तरफ भारत के साहचर्य और समभाव की अवधारणा फिर से पुष्ट होने लगी है। यह इस वजह से भी हो पा रहा है कि भारत में राजनीतिक परिवर्तन ने संस्कृति के क्षेत्र में भी बदलाव की शुरुआत कर दी है। मार्क्स और मार्क्सवाद की जगह भारत और भारतीयता की बात होने लगी है। भारतीय ज्ञान की समृद्धि के लिए यह शुभ संकेत है।