लगातार दो वर्षों के सूखे के बाद इस साल बेहतर मॉनसून की मेहरबानी से ग्रामीण अर्थव्यवस्था में आखिरकार सुधार होता दिख रहा था। आशा जताई गई कि खरीफ उत्पादन में भारी बढ़ोतरी से ग्रामीण उपभोग में इजाफा समग्र आर्थिक वृद्घि को तेजी देता। मगर प्रधानमंत्री ने नोटबंदी का जो फैसला किया, वह ग्रामीण अर्थव्यवस्था को बुरी तरह शिकंजे में कस रहा है।
क्यों हुआ असर
- असल समस्या है कि ग्रामीण अर्थव्यवस्था बहुत हद तक नकद लेनदेन पर आधारित है, जबकि शहरी मध्यम वर्गीय लोगों के पास ऑनलाइन, मोबाइल मनी के अलावा क्रेडिट और डेबिट कार्ड जैसे विकल्प भी उपलब्ध हैं।
- यह स्वाभाविक कमजोरी परिदृश्य को और बदतर बना देती है कि 90 फीसदी से अधिक ग्रामीण इलाके बैंकिंग सुविधाओं से वंचित हैं, जिसके कारण नए नोटों को उन तक पहुंचाने की सरकारी कोशिशें रंग नहीं ला रही हैं|
- जबसे सरकार ने नोटबंदी का निर्णय किया, उसके 10 दिनों के भीतर सरकार अखिल भारतीय स्तर पर केवल 10 फीसदी नकद निकासी को ही संभव बना पाई है।
हैरानी की बात नहीं कि इसके कारण नकदी की किल्लत हो गई, जिसने ग्रामीण अर्थव्यवस्था को खस्ताहाल कर दिया है। - ग्रामीण मजदूरी दरें नवंबर, 2013 से ही गिरावट की शिकार हैं और यह गौर करने वाला पहलू है कि इस दौरान सूखे की मार बहुत प्रभावी रही। कुल मिलाकर ग्रामीण आमदनी सबसे निचले स्तर पर पहुंच गई।
- विमुद्रीकरण के समय को लेकर भी इसके तार जोड़े जा रहे हैं क्योंकि यह घोषणा कृषि से जुड़ी गतिविधियों के बेहद व्यस्त दौर के बीच में हुई है, जहां किसान या तो खरीफ फसल की कटाई कर रहे थे या फिर रबी फसल की बुआई में लगे थे।
- तमाम किसानों को अपने उत्पादों के लिए खरीदार नहीं मिल रहे हैं क्योंकि खरीदारों के पास नकदी नहीं है, जिसके कारण कीमतों में भारी गिरावट आई है।
- पहले कटाई करके फसल बेचने वाले खुशकिस्मत किसानों को एक और बदनसीबी ने आ घेरा है क्योंकि फसल बेचने के बदले उन्हें जो नोट मिले, वे अब किसी काम के नहीं रहे। ऐसे में इन किसानों के पास नई फसल की बुआई के लिए बीज और खाद जैसी बुनियादी चीजों को खरीदने के लिए नकदी नहीं हैं।
सरकार के कदम इस दिशा में
ग्रामीण इलाकों से तमाम दर्दनाक वाकयों के बाद सरकार की भी आंखें खुलीं और उसने इस दिशा में कुछ कदम भी उठाए। जैसे किसानों के लिए नकद निकासी की सीमा बढ़ाकर 25,000 रुपये कर दी। इसके अलावा फसल बीमा प्रीमियम भुगतान के लिए 15 दिनों की मोहलत भी बढ़ा दी। कृषि मंत्रालय के प्रस्ताव पर शुरुआत में विरोध जताने के बाद वित्त मंत्रालय ने यह मांग भी मान ली कि किसानों को 500 रुपये के पुराने नोट के बदले बीज खरीदने की इजाजत दी जाए।
विश्लेषण
बीज खरीदारी में रियायत जैसे कदम उठाने में सरकार ने बहुत देर कर दी। जैसे साल दर साल केवल 30 फीसदी बीज ही बदले जा रहे हैं। दुखद पहलू है कि रबी फसल में गेहूं बुआई के लिए 15 से 20 नवंबर का समय आदर्श माना जाता है। अगर देर से बुआई होती है और खासतौर मार्च में अगर तापमान में बढ़ोतरी हो जाती है तो इससे फसल उत्पादन प्रभावित होगा। साथ ही यह राहत उर्वरकों और कीटनाशकों जैसे अहम उत्पादों के लिए नहीं दी गई है, जिनकी कमी से उत्पादन घटकर आधा भी रह सकता है। वर्ष 2014-15 के दौरान कृषि क्षेत्र में 0.2 फीसदी की गिरावट आई, जबकि 2015-16 के दौरान इसमें महज 1.2 फीसदी का इजाफा हुआ। अगर कमजोर आधार की भी बात करें तो चालू वित्त वर्ष के संशोधित अनुमान में 1 फीसदी से भी कम बढ़ोतरी का अनुमान है। स्पष्टï है कि ग्रामीण आपदा को दूर करने के लिए अभी काफी कुछ करने की जरूरत है।