- कृषि उत्पादन के पहले अग्रिम अनुमानों के अनुसार खरीफ मौसम का खाद्यान्न उत्पादन पिछले साल के 1240 लाख टन से बढ़कर इस साल 1350 लाख टन होने का अनुमान है जो अभी तक का रिकार्ड होगा। पिछले साल के मुकाबले यह 9 प्रतिशत अधिक होगा।
=>दलहन –तिलहन के उत्पादन में भारी बढोत्तरी :-
- इसमें खास बात यह है कि हालांकि चावल का उत्पादन मात्र 3 प्रतिशत ही बढ़ने की उम्मीद है, लेकिन दालों का उत्पादन 57 प्रतिशत और तिलहन का उत्पादन 41 प्रतिशत से ज्यादा बढ़ने वाला है। उत्पादन के अग्रिम अनुमानों में एक अन्य उत्साहवर्द्धक बात यह है कि मोटे अनाज का उत्पादन पिछले साल की तुलना में 19 प्रतिशत बढ़ेगा। तिलहन का उत्पादन पिछले साल के खरीफ उत्पादन 166 लाख टन से बढ़कर इस साल 234 लाख टन होने वाला है।
- वास्तव में यह देश के लिए और खासतौर पर गरीब आम आदमी के लिए एक खुशखबरी है।
देश में एक तरफ बढ़ती जनसंख्या और दूसरी तरफ दालों और तिलहनों के लगभग स्थिर उत्पादन के कारण देश का घरेलू उत्पादन देश की बढ़ती जरूरतों के मुकाबले बहुत कम रह गया। जहां तक खाद्यान्नों का प्रश्न है, गेहूं और चावल की लगातार बढ़ती हुई प्रति हेक्टेयर उत्पादकता और बढ़ते क्षेत्रफल के चलते देश खाद्यान्नों में लम्बे समय से आत्मनिर्भर ही नहीं बल्कि चावल का लगातार बड़ी मात्रा में निर्यात भी कर रहा है। - गन्ने के उत्पादन में वृद्धि का असर यह है कि किसानों को उनकी उपज का सही मूल्य भी नहीं मिल पाता, लेकिन दालों और तिलहनों में स्थिति लगातार बदतर होती गई।
- गौरतलब है कि 1960 में दालों की प्रति व्यक्ति उपलब्धता 70 ग्राम प्रति व्यक्ति प्रतिदिन थी जो 2013-14 तक आते-आते लगभग 40 ग्राम ही रह गई। हालत यह हुई कि हमारा दालों का आयात बढ़ता हुआ वर्ष 2015-16 तक लगभग 25,609 करोड़ रुपए और खाद्य तेलों का आयात 68,630 करोड़ रुपए तक पहुंच गया। भारी मात्रा में बहुमूल्य विदेशी मुद्रा का पलायन तो हुआ ही, साथ ही साथ दालों और खाद्य तेलों में महंगाई भी बढ़ती चली गई। दालों की कीमतें 150 से 200 रुपए प्रति किलो तक पहुंच गई और आम आदमी की थाली से दाल गायब होने लगी।
- उधर खाद्य तेलों पर तो हमारी निर्भरता विदेशों पर जरूरत से ज्यादा होने लगी।
पिछले सालों के उत्पादन की प्रवृत्ति को देखा जाए तो पता चलता है कि अपने देश में दालों का उत्पादन लगभग स्थिर रहा है। 2014-15 के खरीफ के मौसम में जहां दालों का उत्पादन 57 लाख टन हुआ था, रबी के मौसम में यह उत्पादन 114 लाख टन था। इस बार खरीफ के मौसम में उत्पादन 87 लाख टन हुआ है और अगर रबी के मौसम में भी उत्पादन में वृद्धि इसी अनुपात में होती है तो संभव है कि हमारे देश की विदेशों पर दालों के मामले में निर्भरता बहुत कम रह जाए और दालों की कीमतें भी नियंत्रण में आ जाएं। - गौरतलब है कि इस आशा के साथ ही कि दालों का उत्पादन बढ़ने वाला है, दालों की कीमतों में कुछ गिरावट भी दर्ज हुई है। दालों के संदर्भ में बढ़ती महंगाई का फायदा कभी किसान को नहीं हुआ, बल्कि इसका लाभ सट्टेबाजों को ज्यादा मिला। सरकार ने हाल ही में देश में दालों की आपूर्ति बढ़ाने के लिए मोजांबिक समेत अफ्रीकी देशों से भी कुछ समझौते किए हैं।
- उधर तिलहनों के उत्पादन में 41 प्रतिशत की वृद्धि से एक आशा की किरण दिखाई है कि इससे देश में खाद्य तेल का उत्पादन बढ़ेगा और आयात पर निर्भरता कम होगी।
यह सही है कि हमारे देश में कृषि योग्य भूमि बढ़ने की बजाय पहले से थोड़ी-बहुत कम ही हुई है।
=>हरित क्रांति और दलहन-तिलहन का उत्पादन :-
- हरित क्रांति के समय से सरकार द्वारा गेहूं और चावल के क्षेत्र में बेहतर बीजों के उपयोग और समर्थन मूल्यों के चलते देश में गेहूं और चावल के उत्पादन को प्रोत्साहन मिला।
- उधर गन्ने के उत्पादन को भी न्यूनतम समर्थन मूल्य के चलते खासा प्रोत्साहन मिला, हालांकि चीनी मिलों द्वारा गन्ने के भुगतान में देरी से किसान बुरी तरह से प्रभावित भी होता रहा।
- लेकिन कृषि उत्पाद में सबसे ज्यादा प्रभावित फसलों में दालें और तिलहन रहे। गौरतलब है कि जहां 1990-91 में गेहूं का उत्पादन मात्र 550 लाख टन था, 2014-15 में 865 लाख टन हो गया। चावल का उत्पादन इस दौरान 740 लाख टन से बढ़कर 1055 लाख टन हो गया।
- जबकि दालों का उत्पादन इस दौरान 143 लाख टन से बढ़कर मात्र 172 लाख टन ही हुआ। तिलहनों का उत्पादन भी इस दौरान 190 लाख टन से बढ़कर मात्र 275 लाख टन ही हुआ। 2009-10 तक तो यह मात्र 250 लाख टन ही हुआ था। लेकिन इस दौरान आम आदमी की आमदनियों में वृद्धि के चलते प्रोटीन के स्रोत के नाते दालों की मांग में खासी वृद्धि हुई, जिसके चलते देश में दालों का आयात बढ़ता गया।
- इसी प्रकार खाद्य तेलों की कमी ने विदेशों से आयात बढ़ाया। 2015-16 में दालों और खाद्य तेलों का आयात 94,239 करोड़ रुपए तक पहुंच गया, यानी लगभग 14.4 अरब डालर।
=>दलहन और खाद्य तेलों के बढ़ते आयात: कारण और निदान :-
- हम देखते हैं कि एक तरफ कृषि योग्य भूमि में कोई खास वृद्धि नहीं हुई, सिंचाई की सुविधाओं में थोड़ी -बहुत वृद्धि होने से साल में दो या तीन बार खेती होने के कारण खेती का सकल क्षेत्रफल थोड़ा बहुत बढ़ा, लेकिन दालों और तिलहनों के अंतर्गत आने वाला क्षेत्रफल लगातार घटता गया।
- सरकार की उपेक्षा अथवा प्रोत्साहन के अभाव में हमारे देश में तमाम प्रकार के खाद्य तेल धीरे-धीरे विलुप्त होने लगे। तिल के तेल समेत कई प्रकार के तेलों का उत्पादन घटा और अब कुछ नए प्रकार के तेलों का उत्पादन होने लगा, जिसमें सोयाबीन का प्रमुख स्थान रहा। लेकिन तेल की कमी को पूरा करने के लिए रेप सीड ऑयल, पॉम ऑयल, सोया ऑयल और कनोला ऑयल जैसे तेलों का भारी मात्रा में आयात शुरू हो गया।
- इस वर्ष खरीफ की फसल में तिलहनों और दालों की बेहतर खेती ने एक आशा की किरण दिखाई है, लेकिन अभी भी दालों और तिलहनों में देश को आत्मनिर्भरता प्राप्त नहीं हुई है। इस वर्ष उत्पादन बढ़ने से यह सिद्ध होता है कि भारत में दालों और तिलहनों का उत्पादन बढ़ाना संभव है,
- जरूरत है:-
- सरकार द्वारा किसानों को इस हेतु समर्थन मूल्य,
- बीज की उपलब्धता,
- सिंचाई की सुविधाओं,
- वित्त और भंडारण की सुविधाओं के रूप में प्रोत्साहन दिया जाए।
- यह सही है कि कीमतों को येन-केन-प्रकारेण नियंत्रित करने के लिए दालों और तेल की कमी होने पर सरकार को आयात करना ही पड़ता है लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण है कि पिछले 25 सालों से ज्यादा समय से दालें और खाद्य तेल लगातार सरकार की उपेक्षा का शिकार होते रहे और देश की बहुमूल्य विदेशी मुद्रा अकारण बर्बाद होती रही। अभी सरकार द्वारा थोड़े प्रयास हुए हैं और थोड़ा-बहुत दालों की कीमतों ने भी किसान को अवश्य प्रोत्साहित किया होगा, लेकिन दीर्घकाल में दालों और तिलहनों के लिए सरकार को सघन प्रयास करने होंगे।