बैंको के विलय की चुनौतियां

विलय के बाद SBI

भारतीय स्टेट बैंक (एसबीआई) पांच सहायक बैंकों के विलय के बाद करीब 37 लाख करोड़ रुपये के परिसंपत्ति आधार के साथ दुनिया के शीर्ष 50 बैंकों में शामिल हो जाएगा। उस स्थिति में एसबीआई की मौजूदगी दुनिया के 36 देशों में हो जाएगी। उसके 50 करोड़ से भी अधिक ग्राहक होंगे और कर्मचारियों की संख्या भी  270,000 हो जाएगी। विलय के बाद एसबीआई भारत के दूसरे बड़े बैंक से करीब पांच गुना बड़ा होगा। इसी के साथ सम्मिलित बही-खाते में सकल गैर-निष्पादित परिसंपत्ति (एनपीए) का हिस्सा बढ़कर करीब 8.7 फीसदी हो जाएगा। लेकिन माना जा रहा है कि लेखांकन अधिक पारदर्शी हो जाएगा जिससे वित्तीय सेहत के बारे में अधिक स्पष्ट तस्वीर सामने आ सकेगी। बहरहाल एसबीआई को बेसल-3 मानदंडों को पूरा करने के लिए बड़ी मात्रा में पूंजी की जरूरत पड़ेगी।

सवाल है कि क्या विलय के बाद एसबीआई अधिक सक्षम, कारगर और बेहतर परिचालन वाला बैंक बन पाएगा जिसका वित्तीय स्वरूप भी सशक्त होगा? यह फालतू खर्च में कमी लाने और जरूरत से अधिक कर्मचारियों की संख्या में कटौती जैसे कारकों पर निर्भर करेगा। इस पर भी निर्भर करेगा कि विलय के बाद एसबीआई को विशुद्ध रूप से वाणिज्यिक तरीके से चलाने की इजाजत दी जा रही है या नहीं?

  • नई इकाई अपने खर्चों में कटौती और सहयोजन को तभी अमल में ला सकती है जब सहयोगी बैंकों के कोष का भी विलय कर दिया जाता है।
  • इसके अलावा ऑडिट प्रक्रिया और कार्यालयों एवं सूचना प्रौद्योगिकी ढांचे को भी समाहित करने की प्रक्रिया पूरी होने से ही बात बनेगी।
  • नई इकाई की शाखाओं की संख्या करीब 23,900 होगी जिसे कम करके 22,500 के स्तर पर लाना होगा। कार्यबल को भी समायोजित करना होगा।
  • इस दिशा में सबसे बड़ा गतिरोध सहयोगी बैंकों के कर्मचारी संगठनों की तरफ से होने वाला विरोध होगा। इन संगठनों ने पहले ही एक साझा मोर्चा बनाकर विलय का विरोध शुरू कर दिया है। बैंक प्रबंधन को इसका समाधान निकालना होगा क्योंकि प्रभावी तरीके से अतिरिक्त खर्च में कटौती किए बगैर नई इकाई आवश्यकता से अधिक विस्तार वाली इकाई बन जाएगी।
  •  सार्वजनिक क्षेत्र के किसी भी दूसरे बैंक की तरह एसबीआई को भी राजनीतिक हस्तक्षेप से परे पूरी तरह वाणिज्यिक तरीके से संचालित करने की इजाजत नहीं होने से मुश्किलों का सामना करना पड़ता है।
  • एनपीए के मामले में सार्वजनिक बैंकों के खराब प्रदर्शन की यह मूलभूत वजह रही है। विलय के बाद एसबीआई का बड़ा संपत्ति आधार होने से राजनीतिक हस्तक्षेप की आशंका ज्यादा होगी।
  • साधारण तौर पर यही माना जाता है कि कुल बैंकिंग परिसंपत्ति के 10 फीसदी से अधिक हिस्से पर नियंत्रण रखने वाले किसी बैंक के नाकाम होने की बहुत कम संभावना है।
  • अमेरिका में तो बड़ी व्यावसायिक संस्थाओं के आपसी विलय एवं अधिग्रहण पर रोक लगी हुई है ताकि और भी बड़ी इकाई के नाकाम होने की आशंका को दूर किया जा सके। एसबीआई उस सीमारेखा से परे होगा लिहाजा इसकी गतिविधियों पर बेहद सख्त निगरानी और पर्यवेक्षण की जरूरत होगी। 

यह विलय भारत के बैंकिंग क्षेत्र के लिए एक परीक्षण भी होगा। अगर यह काम करता है तो दूसरे  सार्वजनिक बैंक भी विलय का यही रास्ता अपना सकते हैं। इससे भारत के बैंकिंग क्षेत्र में तीन-चार बड़े संस्थान ही सक्रिय दिखेंगे जिससे कारोबारी सक्षमता बढ़ाने में भी मदद मिलेगी। हालांकि यह नहीं भूलना चाहिए कि विलय की यह योजना एक ही स्तर के बैंकों को मिलाने से जुड़ी है और मध्यम स्तर के बैंकों का विलय थोड़ा पेचीदा हो सकता है। एसबीआई और सहयोगी बैंकों की तुलना में मध्यम दर्जे के बैंकों में काफी विविधता हो सकती है। उस स्थिति में मध्यम स्तर के बैंकों का विलय करा पाना बैंकों के सुदृढ़ीकरण की दिशा में सरकार की प्रतिबद्धता की असली परीक्षा होगी।

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