वैश्विक मानकों से दूर : भारत की बहुराष्ट्रीय कंपनियां

# Business standard Editorial

देश का निजी कारोबारी जगत जिसे हम इंडिया इंक के नाम से जानते हैं, वह आखिर किस दिशा में बढ़ रहा है? आमतौर पर जारी किए जाने वाले तिमाही नतीजों के आंकड़ों के अलावा आखिर इनके बड़े लक्ष्य क्या हैं? जहां तक संगठनात्मक आकार और ढांचे में तेजी से बदलाव और उसे किफायती बनाने की बात है तो वर्ष 2000 के दशक के आरंभ में आर्थिक सुधारों ने उसे अंजाम दे दिया। तब से अब तक भारतीय उद्योग जगत ने शायद ही कोई बदलावपरक कदम उठाया हो। 

 उदारीकरण और भारत

  • छोटे और चुस्त-दुरुस्त संस्थानों ने उदारीकरण के बाद आए अवसरों को भरपूर भुनाया है। ये नए अवसर सूचना प्रौद्योगिकी, ई-कॉमर्स और बुनियादी ढांचागत क्षेत्र में पनपे। इनके लिए नए और लचीले पूंजी स्रोत सामने आए।
  • बड़े कारोबारी घरानों ने विकास के लिए बाहर का रुख किया। इनमें टाटा और आदित्य बिड़ला समूह प्रमुख हैं। वहीं भारत फोर्ज, अपोलो टायर्स, एस्सार और गोदरेज भी कुछ प्रमुख नाम हैं।
  • भारतीय बहुराष्ट्रीय कंपनियों की अवधारणा, उदारीकरण के बाद की एक अहम अवधारणा है।
  • दोपहिया बाजार में बजाज ने नाइजीरिया तथा कुछ अन्य अफ्रीकी देशों में अच्छी खासी छवि बना रखी है।
  • टाटा ट्रक्स, गोदरेज व्यक्तिगत इस्तेमाल के उत्पाद, भारती एयरटेल दूरसंचार सेवा, महिंद्रा ऐंड महिंद्रा और भारत फोर्ज आदि कुछ ऐसे भारतीय ब्रांड हैं जिनकी यूरोप और दक्षिणी अमेरिका के विश्व बाजार में प्रतिष्ठा है। 

फिर भी ब्रांड छवि अभी तक नहीं

  • वैश्विक अधिग्रहण की कोशिशों के मिलेजुले नतीजे सामने आए हैं। इसके पीछे कई वजह हैं। इनमें वर्ष 2008 में आई वित्तीय मंदी शामिल है। लेकिन भारतीय कारोबारी जगत इसकी मदद से अपनी बढिय़ा ब्रांड छवि विकसित नहीं कर सका।
  • यह उदारीकरण के बाद के भारतीय कारोबारी जगत के विरोधाभासों में से एक है।
  •  भारत दुनिया की सातवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था वाला देश है। ब्रिक्स देशों में उसका स्थान दूसरा है लेकिन इसके बावजूद चीन के अलीबाबा और श्याओमी या ब्राजील के एंब्रॉयर या पेट्रोब्रास की तरह भारत के पास कोई ऐसा ब्रांड नहीं है जिसकी वैश्विक छवि हो। 

रक्षा क्षेत्र और भारतीय उद्योग

  • वैश्विक बाजार में इस क्षेत्र पहुंच बेमानी है क्योंकि भारत खुद बहुत बड़ा बाजार है और घरेलू उत्पाद यहीं खप सकते हैं।
  •  आने वाले समय में भी भारत बड़ा विश्व बाजार बना रहेगा। सच तो यह है कि वैश्विक ब्रांड हमें वैश्विक स्तर पर प्रतिस्पर्धा करना सिखाते हैं।

अन्य क्षेत्र

  • टेलीविजन और मनोरंजन जगत के इलेक्ट्रॉनिक्स बाजार हमें इस बारे में बताते हैं। एक बार ओनिडा, वीडियोकॉन और बीपीएल जैसे भारतीय ब्रांड इस बाजार पर छाए हुए थे।
  • सन 1990 के दशक में उन्हें पैनासोनिक, एलजी, सोनी और फिलिप्स का समकक्ष माना जाता था। यात्री कारों में हिंदुस्तान मोटर्स और प्रीमियर पद्मिनी का बोलबाला था लेकिन मारुति सुजूकी के आगमन के बाद वे बाजार से बाहर हो गईं। दूसरे स्थान पर कोरिया की हुंडई आ गई। टाटा मोटर्स तीसरे स्थान पर है लेकिन उसने कभी ऐसी यात्री कार नहीं बनाई जिसे बेहतरीन करार दिया जा सके। उसने विकसित बाजारों के लायक कोई कार भी नहीं तैयार की। लक्जरी कारों की बात करें तो भारतीय ब्रांड नदारद नजर आते हैं। 

क्या है समस्या

  • समस्या यह भी है कि भारतीय ब्रांड लागत और मूल्य पर प्रतिस्पर्धा करते हैं। इसके परिणामस्वरूप दो बातें होती हैं। पहला भारत कम लागत वाला यानी सस्ता उत्पादक बना रहता है लेकिन इस क्षेत्र में भी वह चीन, वियतनाम और बांग्लादेश से पीछे है।
  • आज मदुरा, बजाज इलेक्ट्रिकल और हैवेल्स जैसे घरेलू ब्रांड भी अपने कई उत्पाद उपरोक्त देशों से ही मंगाते हैं। विडंबना देखिए कि महाराष्ट्र की कंपनी वीडियोकॉन ने कुछ साल पहले कई वैश्विक ब्रांड के लिए अनुबंधित निर्माता बनने की ठानी। लेकिन फॉक्सकॉन जैसी विनिर्माण दिग्गज कंपनी से तुलना की जाए तो उसकी हालत बहुत बुरी नजर आती है। 
  • दूसरी बात, कीमत और कारोबार की बात करें तो पैनासोनिक से लेकर मर्सिडीज जैसे ब्रांड हमें यही सिखाते हैं कि उपभोक्ताओं के सामने गुणवत्ता ही असल मूल्य है। उदाहरण के लिए कीमत पर अत्यधिक ध्यान देना ही नैनो के लिए समस्या बन गया। नैनो की विफलता से यह मिथक भी टूटा कि भारतीय ग्राहक कीमत को लेकर अत्यधिक संवेदनशील हैं। फिर भी कीमत एक वजह है और इसी के चलते रिलायंस जियो ने लंबे समय तक मुफ्त 4जी सेवाओं की घोषणा की। ऐसा लगता है कि भारतीय प्रतिस्पर्धा आयोग भी इस मामले पर तवज्जो नहीं दे सका है। 
  • अपवाद के तौर पर इसका एकमात्र सबक नागरिक उड्डयन क्षेत्र से मिलता है जहां सरकारी क्षेत्र की कंपनी एयर इंडिया को देसी स्वामित्व वाली निजी विमानन कंपनियों ने काफी पीछे छोड़ दिया है।
  • इन कंपनियों ने सस्ती लेकिन स्तरीय विमानन सेवा के रूप में वैश्विक मानक स्थापित किए हैं। एक हद तक उन्होंने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी टक्कर देनी शुरू कर दी है।

 यह सच है कि घरेलू विमानन कंपनियां कई सालों तक वैश्विक प्रतिस्पर्धा से बची रहीं लेकिन यह दलील तो हर उपभोक्ता बाजार के बारे में दी जा सकती है। एक ऐसे कारोबारी माहौल में जहां उपभोक्ताओं ने रायसीना हिल्स पर कॉर्पोरेट लॉबीइंग की ताकत को पुनस्र्थापित कर दिया है वहां भारतीय बहुराष्ट्रीय कंपनियों को वैश्विक मानकों के लिए प्रतिस्पर्धा शुरू करनी चाहिए।

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