भारत जैसे विशाल देश में, जहां एक-तिहाई जनता अब भी निरक्षर है और 90 प्रतिशत से अधिक लेनदेन नक़द-नारायण से होता है, नोटबंदी के बाद की क्रांति क्या बिना किसी भ्रांति के उस तेज़ी से हो सकती है, जिसकी सरकार अपेक्षा कर रही है?
पश्चिम से सबक
- उत्तरी यूरोप का स्वीडन नकदी-मुक्त समाज बनाने में विश्व में सबसे आगे है.| वह यूरोपीय संघ का सदस्य तो है, किंतु संघ की साझी मुद्रा यूरो के बदले अभी भी अपनी पारंपरिक मुद्रा ‘क्रोना’ (क्रोन या अंग्रेज़ी में क्राउन) से ही चिपका हुआ है. वहां का केंद्रीय बैंक ‘स्वेरिजेस रिक्सबांक’ (स्वीडिश नैशनल बैंक) संसार का सबसे पुराना मुद्रा बैंक है. उसी ने 1661 में संसार का पहला बैंक-नोट जारी किया था
- पिछले क़रीब दो दशकों से स्वीडन का समाज स्वेच्छा से नकदी-मुक्त होता जा रहा है. रिक्सबांक का कहना है कि 2015 में वहां हुए सारे लेनदेन में नक़दी का हिस्सा केवल दो प्रतिशत था. आने वाले कुछ सालों में यह घट कर केवल 0.5 प्रतिशत रह जाने की संभावना है. खुदरा लेनदेन में भी यहां केवल 20 प्रतिशत नकद पैसा हाथ बदलता है, जबकि पांच साल पहले यह अनुपात 50 प्रतिशत हुआ करता था. यदि पूरे विश्व के स्तर पर देखा जाये तो नक़द लेनदेन की मात्रा इस समय 75 प्रतिशत है.
- भारत की तुलना में स्वीडन बहुत छोटा देश है. जनसंख्या मुश्किल से एक करोड़ है - मुंबई या दिल्ली की आधी. पर जीवनस्तर बहुत ऊंचा और साक्षरता शतप्रतिशत है.
Negative of this :
- नक़दी-मुक्त लेनदेन से स्वीडन में बैंक-डकैती की घटनाएं 2008 में 110 से घट कर 2012 में केवल पांच रह गयी थीं. पर 2014 तक बैंक-खातों में सेंधमारी (हैकिंग) जैसे ‘इलेक्ट्रॉनिक धोखाधड़ी’ के मामले 1,40,000 हो गए थे, जो एक ही दशक में दोगुनी वृद्धि से भी अधिक है.
- व्यक्ति की निजता के लिए ख़तरा दूसरी बड़ी समस्या यह है कि हर छोटा-बड़ा लेनदेन तुरंत दर्ज होते रहने और हर बार किसी पदचिन्ह जैसे उसके डिजिटल-निशान बनते रहने से स्वीडन के जनसाधारण की निजता तो वित्तीय मामलों में खत्म होती जा रही है, लेकिन डाटा के इतने बड़े भूसे में इलेक्ट्रॉनिक सेंधमारों का सुराग ढ़ूंढना बेहद मुश्किल होता जा रहा है. नक़दी रखने और गिनने के अभ्यस्त बड़े-बूढ़ों को इन आधुनिक तकनीकों को अपनाने में जो परेशानी होती है, सो अलग से.
- साइबर धोखाधड़ी का अंतरराष्ट्रीय जाल :वर्षों की लंबी खोजबीन के बाद अभी पिछले नवंबर में ही 41 देशों के आइटी विशेषज्ञों ने साइबर धोखाधड़ी के एक ऐसे अंतरराष्ट्रीय जाल का भंडाफोड़ किया, जो 2009 से सक्रिय था. उसके सदस्यों ने कम से कम 1336 मामलों में ऑनलाइन बैंकिग करने वालों के 60 लाख यूरो चुराए. अकेले जर्मनी में 50,000 से अधिक लोग ठगे गए. यह गिरोह ईमेल अटैचमैंट के जरिये ऑनलाइन बैंकिंग करने वालों के कंप्यूटर अपने नियंत्रण में ले लेता था और उन्हें कंप्यूटरों के अपने नेटवर्क का हिस्सा बना कर उनके बैंक-खातों से पैसे निकाल लिया करता था.
भारत जैसे देश में नकदी रहित व्यवस्था की अपनी दिक्कतें हैं. यहां बिजली का कोई भरोसा नहीं रहता. जब-जब बिजली चली जायेगी, बैंक से लेकर ग्राहक तक कोई कुछ नहीं कर सकता. यदि बिजली सदा रहे भी, तब भी नकदी-मुक्त समाज में बैंकों में सारे काम कंप्यूटरों पर स्वचालित ढंग से होंगे. कैशियर और बहुत सारे क्लर्क बेकार हो जायेंगे. केवल ऋण, बांड या शेयरों संबंधी परामर्श देने के लिए इक्के-दुक्के लोग रह जायेंगे. एक दिन ऐसी भी स्थिति आ सकती है कि सारे बैंक तिरोहित हो जायें और पूरे देश में केवल कोई एक ही केंद्रीय बैंक कंप्यूटरों और रोबोट मशीनों के सहारे सारी वित्त प्रणाली चला रहा हो. जब पैसे का ही कोई भौतिक अस्तित्व नहीं होगा, तब आज के लाखों बैंक कर्मचारियों के अस्तित्व का भी भला क्या औचित्य बचेगा?