ग्लोबल वार्मिंग को रोकना अकेले भारत की जिम्मेदारी नहीं है

सन्दर्भ:- अमीर देशों को समझना होगा कि पेरिस या किगाली जैसे समझौते तभी प्रभावी होंगे जब वे विकासशील देशों को तकनीक देने में उदारता दिखाएँ।

  • हालांकि इसे होने में सात साल लग गए फिर भी मॉन्ट्रियल संधि को सुधारने और ग्लोबल वार्मिंग में अहम भूमिका निभाने वाले green_hose_gasहाइड्रोफ्लोरोकार्बंस (एचएफसी) का उत्सर्जन बड़ी हद तक घटाने के लिए हुआ किगाली समझौता एक बड़ी उपलब्धि है.
  • इस तरह के रसायनों का इस्तेमाल रेफ्रिजरेटर और एयरकंडीशनर उद्योग में किया जाता है. इनका इस्तेमाल घटाने पर सहमति बनना कितना अहम है यह इससे भी साफ होता है कि वैज्ञानिक अनुमानों के मुताबिक अगर इनका इस्तेमाल यूं ही चलता रहा तो इस सदी के आखिर तक दुनिया के औसत तापमान में आधे डिग्री की अतिरिक्त वृद्धि हो सकती है.
  • जैसा कि पर्यावरण से जुड़ी दूसरी वार्ताओं के दौरान वह करता है, रवांडा में हुए इस समझौते के दौरान भी भारत ने अपने लिए इस मकसद के लिए तय समयावधि में ढील देने का दबाव बनाया. 
  • आखिर में इस पर सहमति बनी कि भारत 2028 से एचएफसी के इस्तेमाल पर रोक लगाना शुरू करेगा और 2047 तक इस रसायन के इस्तेमाल में कमी के लिए तय की गई अधिकतम सीमा तक पहुंच जाएगा.
  • ब्रिक्स में उसके सहयोगियों चीन, ब्राजील और अफ्रीकी देशों के लिए यह आंकड़ा 2024 और 2045 है.
  • हालांकि एक प्रशंसनीय कदम उठाते हुए भारत ने एचएफसी 23 के उत्पादकों को आदेश दे दिया है कि वे खुद इसके उत्पादन पर लगाम लगाएं और धीरे-धीरे इसे बंद कर दें. 

★रेफ्रिजरेशन उद्योग में इस्तेमाल होने वाले इस रसायन का ग्लोबल वार्मिंग में बहुत बड़ा योगदान है. भारत का यह फैसला बहुत अहम है क्योंकि यहां लोगों की आय बढ़ रही है और इसके साथ ही रेफ्रिजरेटरों और एयरकंडीनशरों की बिक्री भी जिससे एचएफसी का उत्सर्जन भी बढ़ रहा है.

★मॉन्ट्रियल समझौते को लागू करते हुए भारत को यह भी ध्यान रखना होगा कि वह ‘मेक इन इंडिया’ नीति के तहत तय अपने लक्ष्यों को नई और स्वच्छ तकनीकी से इस तरह कैसे जोड़े कि वैश्विक बाजार में दूसरे देशों से होड़ ले सके. 
★इसके लिए उसे संबंधित उद्योगों को एचएफसी के हाइड्रोकार्बन, अमोनिया और कार्बन डाइ ऑक्साइड जैसे विकल्प जल्द से जल्द मुहैया करवाने होंगे और वह भी कम लागत पर. 
★एक लिहाज से यह बदलाव भारत के लिए प्रगति की लंबी छलांग लगाने का भी मौका है. हालांकि मकसद आखिरकार पर्यावरण की सुरक्षा ही होना चाहिए.

★यह भी याद रखना जाना चाहिए कि ओजोन परत की रक्षा के लिए 1985 में हुए विएना समझौते (जो बात में मॉन्ट्रियल समझौते के जरिये लागू हुआ) के बाद बहस का एक लंबा दौर चला था. इस दौरान रेफ्रिजरेंट्स की पिछली पीढ़ी यानी क्लोरोफ्लोरोकार्बंस के मुख्य उत्पादक इन रसायनों और ओजोन परत में हुए छेद के बीच किसी जुड़ाव की ही बात को ही खारिज करते रहे. 
★लेकिन विज्ञान ने जनता और राजनीतिक वर्ग की राय बदली और इन रसायनों का उत्पादन बंद हुआ. इसी तरह पेरिस समझौते- जो किगाली समझौते से और मजबूत हुआ है- के बाद विकासशील देशों की विकसित देशों से यह उम्मीद ठीक ही है कि औद्योगिक इस्तेमाल के लिए स्वच्छ तकनीक देने में उनके साथ उदारता बरती जाए. 
★ग्लोबल वार्मिंग के नतीजों को देखते हुए उन देशों को इस मदद के लिए बहस करने की जरूरत नहीं होनी चाहिए जिनकी ऐतिहासिक रूप से यह समस्या पैदा करने में कोई भूमिका नहीं रही है.

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