जैव प्रौद्योगिकी नियामक

 

जेनेटिक इंजीनियरिंग आकलन समिति (जीईएसी) की ओर से जीन संवद्र्घित (जीएम) सरसों, डीएमएच-11 की वाणिज्यिक उपज को मंजूरी मिलने के साथ ही भारत जीएम फसलें उगाने वाले 25 देशों में शुमार होने के करीब पहुंच गया है। हालांकि दिल्ली विश्वविद्यालय के सेंटर फॉर जेनेटिक मैनिपुलेशन ऑफ क्रॉप प्लांट्स द्वारा विकसित जीएम सरसों को किसानों तक पहुंचाने के पहले कई बाधाएं दूर करने की आवश्यकता है।

Hurdles in implementation

  • इनमें से एक है जीएम फसलों के विरोधियों की तरफ से कड़ा विरोध। इसमें सत्ताधारी भाजपा और उसके सहयोगियों से जुड़ा स्वदेशी जागरण मंच भी शामिल है। याद रखिए कि जीएम विरोधी लॉबी के चलते ही 2010 में तत्कालीन पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश को बीटी बैगन पर रोक लगानी पड़ी थी जबकि जीईएसी उसे मंजूरी दे चुकी थी।
  •  इसके अलावा सरकार को सर्वोच्च न्यायालय जाकर जेनेटिक बदलाव वाली फसलों की खेती पर लगी रोक हटवानी पड़ेगी।
  • इतना ही नहीं कुछ राज्यों में जहां जीएम फसलों के परीक्षण तक को मंजूरी नहीं है, उनके मन में इन फसलों को लेकर जो पूर्वग्रह हैं उन्हें दूर करना होगा। 

 

100 से अधिक जीएम फसलों का भविष्य दांव पर लगा है। इनमें मुख्य अनाज, फल, सब्जियां और वाणिज्यिक फसलें शामिल हैं। इन सभी का विकास अलग-अलग चरण में है। कुछ जीएम फसलों के डेवलपर डीएमएच-11 पर निगाहें जमाए हैं। इसकी परिणति देखकर ही वे अपने उत्पादों को जीईएसी के समक्ष पेश करेंगे। यहां ध्यान देने लायक बात यह है कि इनमें से कई गैर हाइब्रिड जीएम फसलों की किस्म हैं जिनके बीज किसानों द्वारा बार-बार इस्तेमाल किए जा सकते हैं। जबकि हाइब्रिड फसलों के बीज हर बार नए खरीदने होते हैं। इनमें तीन स्थानीय तौर पर विकसित बीटी-कॉटन की किस्में भी हैं जिनके वाणिज्यिक प्रसार की अनुशंसा भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) कर चुकी है। ऐसी किस्मों को मिलने वाली मंजूरी से जीएम बीज के क्षेत्र में बहुराष्ट्रीय कंपनी मोनसैंटो का एकाधिकार समाप्त हो जाएगा। फिलहाल अधिकांश बीटी कॉटन उत्पादक पेटेंट के जरिये संरक्षित बीजों का इस्तेमाल करते हैं जिन्हें यही कंपनी बनाती है। 

 

मंत्रालय ने अपनी वेबसाइट पर इसकी जांच और परीक्षण से संबंधित तमाम जानकारी डाली है। इसमें खाद्य एवं पर्यावरण सुरक्षा रिपोर्ट का आकलन भी शामिल है। जानकारी के मुताबिक जीईएसी ने इस पर आई 700 से अधिक प्रतिक्रियाओं पर भी ध्यान दिया है। इसके अलावा उसने तमाम जीएम विरोधी संगठनों की बात भी सुनी है। इन बातों के बाद ही उसने इसे बाजार में उतारने की सहमति दी है। अगर जीएम फसलों का विरोध करने वाले अभी भी इस निर्णय का विरोध करना चाहते हैं तो वे किसानों को ही नुकसान पहुंचाएंगे। चाहे जो भी हो सच यही है कि मौजूदा जैव प्रौद्योगिकी नियामक ढांचे में अंतिम निर्णय राजनेताओं (पर्यावरण मंत्री) का ही होता है। यह अपने आप में काफी कुछ कहता है। इसकी जगह एक मजबूत, वैज्ञानिक क्षमता संपन्न और पर्याप्त अधिकार वाला जैव प्रौद्योगिकी नियामक होना चाहिए जो गैर विज्ञान क्षेत्र से प्रभावित न हो। जब तक ऐसी व्यवस्था कायम नहीं होती है तब तक आम जनता और जीएम उत्पादों के विरोधियों को समझाना मुश्किल है। ऐसा करके ही इन फसलों के प्रति उनका वैमनस्य समाप्त किया जा सकता है। 

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