IndianExpress (द इंडियन एक्सप्रेस का संपादकीय)
सन्दर्भ :- भारत के नीति नियंताओं को गंभीरता से यह सोचने की जरूरत है कि वे ब्रिक्स से क्या हासिल करना चाहते हैं.
★आठवें ब्रिक्स शिखर सम्मेलन में जब अलग-अलग देशों के नेता गोवा में मिल रहे हैं तो भारत के विदेश नीति नियंताओं को गंभीरता से यह सोचने की जरूरत है कि वे सबसे अजब इस वैश्विक गठबंधन से क्या हासिल करना चाहते हैं.
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ब्रिक्स गोल्डमैन सैक्स के मुख्य अर्थशास्त्री जिम ओ नील का विचार था जो 2001 में अस्तित्व में आया. जिम का मानना था कि ब्राजील, रूस, भारत और चीन- जिसमें बाद में दक्षिण अफ्रीका भी जोड़ दिया गया- की तरक्की की रफ्तार विकसित देशों से ज्यादा होगी और इसलिए उन्हें अपने हितों के लिए अपना गठबंधन बनाना चाहिए.
International Institutions and Brics
ऐसा ही हुआ है. ब्राजील, रूस और भारत जी-7 देशों में सबसे छोटी अर्थव्यवस्था वाले इटली के पास आ गए हैं जबकि चीन दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन गया है. फिर भी जब अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व बैंक जैसी वैश्विक संस्थाओं में प्रतिनिधित्व की बात आती है तो वहां यूरोप और अमेरिका का ही दबदबा है.
★ ब्रिक्स अर्थव्यवस्थाओं ने वैश्विक मंदी से दुनिया को बाहर निकालने में अहम भूमिका निभाई है. उनके खाते में नव विकास बैंक (एनडीबी) की स्थापना जैसी कुछ ठोस उपलब्धियां भी दर्ज हो चुकी हैं.
◆इस सबके बावजूद यह पक्के तौर पर नहीं कहा जा सकता कि अहम मसलों पर ब्रिक्स देश एक सुर में बोलेंगे. ब्रिक्स समकक्षों को अपने संबोधन में राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल ने कहा कि आतंकवाद के खिलाफ दुनिया को मिलकर कार्रवाई करने की जरूरत है. लेकिन इसी मुद्दे पर ब्रिक्स देशों में काफी मतभेद दिख जाता है.
◆चीन अपने अहम सहयोगी पाकिस्तान के साथ खड़ा रहेगा जबकि रूस को अमेरिका की नीयत पर विश्वास नहीं है. दरारें और भी हैं. ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका और भारत चाहते हैं कि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का विस्तार हो.
◆ चीन का रुख इसके उलट है. चीन चाहता है कि ब्रिक्स देशों में मुक्त व्यापार का विस्तार हो जबकि बाकी ऐसा नहीं चाहते. छोटे-छोटे मुद्दों तक पर हाल यही है. कुछ समय पहले जब परंपरा को तोड़ते हुए आईएमएफ के लिए एक गैर यूरोपीय मुखिया के चयन की बात आई तो भी ब्रिक्स देशों में एकराय नहीं बन सकी.
★आगे समस्याएं बढ़ने ही वाली हैं क्योंकि चीन की आर्थिक प्रगति को देखते हुए ब्रिक्स के उसके प्रभुत्व वाले एक गठबंधन के रूप में सिमट जाने की संभावना है. चीन का ‘नॉमिनल जीडीपी’ अब बाकी सदस्य देशों के कुल योग से भी ज्यादा है.
★एनडीबी भी इसलिए ही वजूद में आया कि वह चीन के विराट एजेंडे के अनुकूल है. चीन को लगता है कि यह बैंक मध्य एशिया और इससे आगे के बाजारों को उसके उद्योगों से जोड़ने वाले सड़क और रेल मार्ग बनाने में मदद करेगा.
★एनडीबी उन लैटिन अमेरिकी और अफ्रीकी देशों के लिए भी एक विकल्प होगा जो अब आईएमएफ और विश्व बैंक के दबाव का सामना कर रहे हैं और चीन ही है जो इसका सबसे ज्यादा उठाने की स्थिति में है.
★गोवा में ब्रिक्स के नेता बराबरी के दर्जे के साथ बात करेंगे लेकिन यह सबको पता है कि ब्रिक्स की गाड़ी चीनरूपी इंजन के सहारे ही आगे बढ़ सकती है. क्या इससे भारत के भी हित सधते हैं? अगर हां तो कैसे, सवाल यह है.